ये जो खंडहर हैं आज कभी गुलदाउदी से महकते थे इनमें धड़कन थी और ये चहकते थे सैकड़ों लोगो का रोज़ाना ताँता लगा रहता था...

Update: 2024-06-17 05:52 GMT

युवा कवि शशांक शेखर की कविता 'ये जो खंडहर हैं आज...'

ये जो खंडहर हैं आज

कभी गुलदाउदी से महकते थे

इनमें धड़कन थी और ये चहकते थे

सैकड़ों लोगो का रोज़ाना ताँता लगा रहता था

ये शहर की शान थे उसकी पहचान थे

हर गुज़रगाह इन तक पहुँचती थी

लोग इनसे अपना पता मालूम करते थे

अनगिनत सेवादार दम बदम पसीना बहाते रहते

मसरूफ़ियत थी यहाँ और चुनिंदा लोगों की ऐशगाह थी ये

किसी दीवार की टेक लगाये

अगर सुनी जाये इसकी नफ़्स

न जाने कितने क़िस्से शाया होंगे

एक वक़्त था जब बच्चे यहाँ खेला करते थे

दीवारें खुरचते थे सीढ़ियों से फिसलते थे

बुजुर्ग यहाँ जिल्द वाली मोटी किताबें लिए

जाड़े की आग सेका करते थे

कहने को तो अब ये खंडहर हैं

पर मेरे देखे बेजान नहीं लगते मुझे

अब इनके झरोखों में नशेमन हैं

और यहाँ कबूतरों के झुंड यायावरी करते हैं

पहले से ज़्यादा चिड़िया यहाँ मीठे गीत गाती हैं

कदम कदम पर झाड़ियाँ हैं

और उनमे मश्शाक गिलहरियाँ दौड़ती हैं

बाज़ दफ़ा एक गिद्ध यहाँ आता है

किसी हमदर्द डॉक्टर की तरह

और खंडहर का मुआयना करके जाता है

की अभी कितनी उम्र खंडहर की बाक़ी है

पीछे एक कुआँ है किसकी सीढ़ियों पर

अब झाड़ियाँ उग आयी हैं बेतरतीबी से

जैसे उम्र के साथ हमारे कानों पर आ जाते हैं बाल

खंडहर को पूरा शहर अब भी देख लेता है

पर खंडहर की पास की नज़र कमज़ोर है

वो अब सिर्फ़ अंदाज़ा लगाता है कि कौन आया है

फिर वो अहसान फ़रोश भी नहीं की नज़रअंदाज़ कर दे

दुआएँ देता है जो भी मिलने आये उससे

कुदरत अपने पूरे शबाब के साथ

खंडहर को घेर लेती है

सर से पाँव तक वो इसके आग़ोश में रहता है अब

और धँसता जाता है ज़मीन में

जैसे डूब जाती हैं मिट्टी की तह में

पुरानी क़ब्रें और ओझल हो जाते हैं

उन पर लिखे नाम और आयतें। 

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