लॉकडाउन में बेरोज़गार मज़दूरों को भरोसा, मेहनत नहीं खून की बदौलत वापस लौटेंगे काम पर

बेदखली का खतरा टल जाने के बाद मार्च में लागू किये गए लॉकडाउन के चलते बहुत सरे मज़दूरों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा, इतवार को रक्तदान करने आये कुछ मज़दूर अभी भी अपने काम पर नहीं लौटे हैं जबकि जुलाई के अंत में बेंगलुरु में लॉकडाउन के नियमों में ढील दे दी गई थी....

Update: 2020-08-05 09:07 GMT

प्रज्वल भट की रिपोर्ट

जशमुद्दीन इस असमंजस में था कि वो थुंबराहल्ली में रक्तदान के लिए लगाए गए अस्थाई टेंट में प्रवेश करे या नहीं। थुंबराहल्ली बेंगलुरु के पास स्थित प्रवासियों का बसेरा है।

पश्चिम बंगाल से आए 38 वर्षीय इस शख्स ने अपनी ज़िंदगी में पहले कभी भी रक्तदान नहीं किया था। लेकिन इतवार के दिन यह सब बदल जाने वाला था। वो कहता है, 'मैं अंदर गया और मैंने कुछ फॉर्म्स भरे। फिर मुझसे पूछा गया कि क्या मैं रक्तदान करना चाहता हूँ तो मैंने कहा-क्यों नहीं? मैं ख़ुशी-ख़ुशी यह करूँगा। मुझे लगा था कि यह दर्दनाक होगा, लेकिन मुझे कुछ महसूस ही नहीं हुआ।'

जशमुद्दीन लक्ज़री अपार्टमेंट वाले ब्लॉक्स की गाड़ियां साफ़ करता है। ये वही ब्लॉक्स हैं जो टिन की छत वाली उन झुग्गी-झोपड़ियों पर हावी रहती हैं जहां जशमुद्दीन रहता है। जशमुद्दीन बताता है, 'हमें पता लगा कि रक्त बैंकों में खून की कमी है। हमने अपने समुदाय में बातचीत की और तय किया कि मदद की खातिर रक्तदान करेंगे।'

स्वराज अभियान द्वारा इतवार को थुंबराहल्ली में एक रक्तदान शिविर लगाया गया। इसमें लॉयंस ब्लड बैंक और बेंगलुरु स्थित एक सरकारी अस्पताल इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइल्ड हेल्थ ने मदद की। प्रवासियों की झुग्गी-झोपड़ियों से 75 बाशिंदे अपना खून दान देने आगे आये। इनमें ज़्यादातर बंगाली बोलने वाले थे। इनमें से बहुतों के लिए यह ऐसा करने का पहला मौक़ा था।

बेंगलुरु में खून की कमी

इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइल्ड हेल्थ में काउंसलर के पद पर कार्यरत लक्ष्मी नारायण ने 'द न्यूज़ मिनट' को बताया की अस्पताल में खून की कमी लॉकडाउन के समय से ही है। वो कहते हैं, 'हमने पिछले दो महीनों में रक्तदान कैम्प नहीं लगाए हैं। जब से लॉकडाउन हुआ है बहुत कम लोग ही खून देने आए हैं। इसलिए महामारी के दौरान जो लोग खून देने यहां आये हैं हम उनके आभारी हैं।'


खून निकालते वक़्त डॉक्टर्स ने सुरक्षात्मक उपायों को अपनाया और शारीरिक दूरी भी बनाये रखी। लक्ष्मी नारायण ने कहा, 'हमने दूरी बनाये रखने के कदम उठाये और ऐसे लोगों को मास्क भी दिए जिनके पास नहीं थे। हमने पीपीई किट पहना जिसमें चेहरे पर कवच और हाथ में दस्ताने पहनना शामिल है। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि जो खून देने आये हैं वो भीड़ ना करें।'

वो कहते हैं कि अस्पताल को प्रति दिन लगभग 15 यूनिट खून की ज़रुरत पड़ती है, खासकर थैलसेमिआ (एक तरह की खून की बीमारी) के मरीज़ों के लिए। इसी तरह लायंस ब्लड बैंक ने भी पिछले महीने रक्तदान अभियान नहीं चलाया था। इतवार को लायंस ब्लड बैंक ने 40 यूनिट से भी ज़्यादा खून और इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइल्ड हेल्थ ने 34 यूनिट खून जमा किया।

लायंस ब्लड बैंक में कार्यरत टेक्निकल सुपरवाइज़र प्रशांत कहते हैं, 'प्रवासी मज़दूरों द्वारा रक्तदान की बात अन्य लोगों को भी आगे आ रक्त दान करने के लिए आश्वस्त करेगी।' वो आगे कहते हैं, 'इतवार को जमा किये गए खून की हमने पहले जांच की और फिर उसके वितरण के लिए हरी झंडी दिखाई गयी। हमें उम्मीद है कि अब यह डर ख़त्म हो जाएगा कि प्रवासी बसाहट के निवासियों से खून लेने से दिक़्क़तें पैदा हो सकती हैं। यह डर इस अनुमान के चलते पैदा होता है कि बहुत सारे मज़दूर बीमारियों को दूर रखने वाले टीके नहीं लगाते हैं।'

थुंबराहल्ली के बाशिंदों का कहना है कि बेंगलुरु में खून की कमी के बारे में उन्हें पता है। जुलाई महीने में झुग्गी-झोपड़ी में गर्भवती महिला को बच्चा जनने का समय निकट आने पर अस्पताल ढूंढने में बड़ी मशक्कत करनी पडी। महिला के परिवार ने कहा कि सरकारी अस्पतालों में तो कोविड-19 का इलाज चल रहा है और निजी अस्पताल में इलाज करने की हमारी औकात नहीं है।

शहर का जय नगर जनरल हॉस्पिटल उन कुछ सरकारी अस्पतालों में से एक है जहां गर्भवती महिलाओं को भर्ती किया जा रहा था। घर बैठे ऑन लाइन सेवाएं उपलब्ध करने वाली एक कंपनी के मुलाज़िम अब्दुल जब्बार मंडल कहते हैं, 'हम इलाज के लिए अक्सर सरकारी अस्पताल जाते हैं और हमने देखा कि सरकारी अस्पतालों में भी खून की कमी है।'

'हम भी बदले में समुदाय को कुछ देना चाहते थे'

थुंबराहल्ली की प्रवासी बसाहट में रह रहे मर्द अपनी झुग्गियों के आस-पास की ऊंची इमारतों वाले अपार्टमेंट्स और आई टी सेक्टर के कार्यालयों में कूड़ा बटोरने वाले, साफ-सफाई करने वाले, सुरक्षा गार्ड और ड्राइवर के रूप में काम करते हैं जबकि औरतें खाना पकाने और झाड़ू-पोछे का काम करती हैं लेकिन लॉकडाउन लागू होने की वजह से थुंबराहल्ली के बाशिंदों के कामकाज छूट गए हैं।

जब्बार कहते हैं, 'लॉकडाउन के दौरान तकरीबन 100 बाशिंदे घर छोड़ कर पश्चिम बंगाल लौट गए क्योंकि उनके किये राशन और खाने का प्रबंध करने में हमें मुश्किल हो रही थी। हमारी बस्ती में एनजीओ राशन बांटने दो बार आए।' जब्बार अपने खाली समय में एक कार्यकर्ता की हैसियत से थुंबराहल्ली के लोगों को संगठित करने का काम भी करता है।

जब्बार कहता है, 'समुदाय से मिली सहायता के एवज में हम समुदाय को कुछ देना चाहते हैं। चूंकि बहुत से लोग अभी काम पर लौटे नहीं हैं इसलिए हमारे पास देने के लिए पैसा नहीं है। तो हमने रक्तदान करने का फैसला लिया।'

स्वराज अभियान से जुड़े एक कार्यकर्ता कलीमुल्लाह बोले, 'रक्तदान करते वक़्त डॉक्टर जाति या मज़हब के आधार पर भेदभाव नहीं करते हैं, यह भी नहीं देखा जाता कि खून देने वाला अमीर है या ग़रीब। सबके समान होने का यह एक बहुत बड़ा उदाहरण है। रक्तदान करने वाले ज़्यादातर मज़दूर पिछले कुछ महीनों से बेरोज़गार हैं, फिर भी रक्तदान के लिए कहे जाने पर वे आ गए।'

बांग्लादेशी प्रवासी का ठप्पा लगना और बेदखली का खतरा

जब्बार द्वारा किये गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी कि थुंबराहल्ली बस्ती में तकरीबन 6,700 बांग्ला भाषी मज़दूर रहते हैं और इनमें से ज़्यादातर मुसलमान हैं। इस महीने की शुरआत में यहां के बाशिंदों को बेदखली का खतरा झेलना पड़ा था क्योंकि बेंगलुरु के पुलिस अधिकारी गैर-क़ानूनी तरीके से बेंगलुरु में रह रहे बांग्लादेशी प्रवासियों की तलाश कर रही थी।

थुंबराहल्ली के बाशिंदों पर बांग्लादेशी प्रवासी का ठप्पा लगा दिया गया जबकि इलाके के बाशिंदों द्वारा इस दावे को यह कहकर ठुकराया जाता रहा कि उन्होंने वर्तुर में स्थानीय पुलिस स्टेशन में ज़रूरी दस्तावेज़ दिखा दिए हैं। मुन्नेकोलाला, करियाम्मना अग्रहारा, देवराबिसानहल्ली और थुंबराहल्ली व्हाइटफील्ड के आसपास वे चार इलाके हैं जहां पुलिस ने जनवरी माह में गैर-क़ानूनी ढंग से रह रहे बांग्लादेशी प्रवासियों की खोज-खबर ली थी।

सभी फोटो द न्यूज मिनट से साभार

करियाम्मना अग्रहारा की एक बस्ती का एक हिस्सा बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका द्वारा गिरा दिया गया जबकि यहां के वाशिंदे भारतीय थे और उनके पास 'नागरिकता ' प्रमाण पत्र भी थे। बाद में यह बात सामने आई कि बृहत बेंगलुरु महानगर पालिके द्वारा बस्ती के मकानों को गिराने का कदम गैर कानूनी था। कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अभय श्रीनिवास ओका ने महानगर पालिका और शहर पुलिस से सवाल किया, 'क्या आप चेहरा देख कर बांग्लादेशी को पहचान सकते हैं?'

बेदखली का खतरा टल जाने के बाद मार्च में लागू किये गए लॉकडाउन के चलते बहुत सरे मज़दूरों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा। इतवार को खून देने आये कुछ मज़दूर अभी भी अपने काम पर नहीं लौटे हैं, जबकि जुलाई के अंत में बेंगलुरु में लॉकडाउन के नियमों में ढील दे दी गई थी। उनका कहना है कि अपने परिवार के लिए भोजन और राशन जुटाने की जद्दोजहद अभी भी जारी है।

जब्बार समझाते हुए कहता है, 'भवन निर्माण से जुड़े मज़दूर खाली बैठे हैं क्योंकि इस क्षेत्र से जुडी गतिविधियां ठप्प पडी हैं। अपार्टमेंट्स में खाना बनाने और झाड़ू-पोछा करने वाली कुछ औरतों ने भी दोबारा काम करना शुरू नहीं किया है।' उसे उम्मीद है कि रक्तदान अभियान बस्ती के पास के अपार्टमेंट्स में रहने वालों को इस बात के लिए उत्साहित करेगा कि वे मज़दूरों को रोज़मर्रा के काम में लौटने दें।

रक्त दान अभियान को आयोजित करने में मदद करने वाले कार्यकर्ता विनय कुमार का कहना है, 'इस महामारी के दौरान हमने देखा है कि कुछ अपार्टमेंट्स ने भेदभाव बरतने वाले आदेश जारी किये थे जिसके तहत खाना बनाने वालों और सफाई करने वालों द्वारा लिफ्ट के इस्तेमाल करने और काम के लिए भवन में आने तक की मनाही थी। मुझे उम्मीद है कि मज़दूरों की इस पहल के चलते अपार्टमेंट निवासियों को ज़रूर महसूस होगा कि उनके घरेलू नौकर का खून लोगों की ज़िंदगी बचा रहा है और हो सकता है किसी दिन उनकी ज़िंदगी भी बचा ले।'

(प्रज्वल भट की यह रिपोर्ट पहले द न्यूज़ मिनट में प्रकाशित।)  

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