स्त्रियों के नाम के आगे वैवाहिक स्थिति को सूचित करने वाले श्रीमती-कुमारी जैसे शब्द सीधे सीधे सांस्कृतिक हिंसा
केवल मानव समाज में ही रिझाने का काम स्त्रियों के जिम्मे छोड़ दिया गया है, क्योंकि स्त्री पराधीन है और सांस्कृतिक हिंसा की शिकार और उससे त्रस्त है....
बीएचयू में समाजशास्त्र की सहायक प्रोफेसर डॉ. प्रतिमा गोंड की टिप्पणी
पितृसत्ता स्त्री की यौन.गतिविधि को नियंत्रित करने के क्रम में उसकी परवरिश इस तरह से करती है कि भय उसके अवचेतन का हिस्सा बना रहे। घर लौटने में जरा सी देर हो जाने पर स्त्री डर जाती है और यह डर सोशल कंडीशनिंग की वजह से होता है। लोकोपवाद को लेकर अतिशय सजगता भी सहज-स्वाभाविक नहीं वरन पितृसत्ता द्वारा सायास निर्मित की गई होती है। बुद्धिसंगत स्टैंड लेने वाली स्त्रियाँ भी बहुत हद तक अपने अवचेतन से परिचालित होती हैं, जिसका निर्माण पुरुष वर्चस्व वाली वैचारिकी के द्वारा किया गया होता है।
स्त्री की सोशल कंडीशनिंग परिवार और समाज दोनों के ही द्वारा की जाती है। मनुष्य.विरोधी, तर्क.विरोधी प्रतिगामी विचारों के अनुसार स्त्री को चलने के लिए बाध्य करने हेतु पितृसत्ता सांस्कृतियों उपायों का सहारा लेती है। भारतीय संविधान उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है, लेकिन समाज उसके अनुसार चलने की बजाय मध्ययुगीन प्रतिगामी मूल्यों से संचालित होता है। लोकतांत्रिक तरीके से समाज को स्त्री गरिमा के प्रति सजग-सचेत बनाने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता है, जहाँ पर स्त्री को अपने जेंडर के कारण अलग से सचेत होने की आवश्यकता नहीं रहे।
आत्म-धर्माभिमानिता यानी कि सेल्फ राइटिअसनेस का कारण और परिणाम दोनों ही भय है। मसलन, मुस्लिमों को लेकर व्यापक समाज में भय का वातावरण बनाया गया है, जिस कारण से लोग उनसे नफरत करते हैं। जहाँ भय होता है, वहाँ तर्क-विवेक पंगु हो जाता है। स्त्रियों के आत्म-धर्माभिमानी होने यानि कभी भी अपनी गलती नहीं मानने की प्रवृत्ति के संदर्भ में भी उन्होंने यही बात कही। स्त्री को चूँकि अपने बच्चों का लालन-पालन करना होता है और वे प्रायः अपने पति की संपत्ति और उसके रुपये-पैसों पर निर्भर होती हैं, इसलिए उनमें अपने पति को लेकर गज़ब का पजेस्सिवनेस होता है।
पति का ध्यान किसी दूसरी स्त्री की तरफ जाने से आर्थिक असुरक्षाबोध भी जुड़ा होता है, इसलिए भी स्त्रियाँ प्रायः घेरेबंदी करती हैं। इससे निजता का हनन होता है, जो कि बर्बरता की निशानी है। मनुष्य अपने दिमाग में चल रही हलचलों को कई बार अपने तक सीमित रखना चाहता है। अपने प्रेम, अपनी नफरत और अपनी फैंटेसी को चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहता, लेकिन पजेस्सिवनेस की भावना व्यक्ति की निजता का हनन करती है और मनुष्य को लोकतांत्रिक नहीं रहने देती। पजेस्सिवनेस की भावना का मूल स्रोत तो दुर्लभता है, साथ रहने के अवसर अगर विरल होंगे.कम होंगे तो असुरक्षाबोध रहेगा।
रोजी-रोटी, आवास-चिकित्सा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत प्रश्नों के इर्दगिर्द प्रश्न खड़ा करने और तुलनात्मक रूप से कम महत्व के प्रश्नों पर सापेक्षिक रूप से अधिक बल देने के प्रच्छन्न सवाल पर उन्होंने कहा कि समाज व्यवस्था में अपनी अवस्थिति के हिसाब से भी कई बार सक्रियता दिखाई जाती है। परंपरागत रूप से शोषित-उत्पीड़त समाज का एक हिस्सा ऐसा भी है, जिनकी भौतिक जरूरतें पूरी होने लगी हैं तो वे अब अपनी मानवीय गरिमा और उच्चतर नैतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के लिए क्यों न लड़ें?
पितृसत्ता द्वारा की जाने वाली सोशल कंडीशनिंग से पुरुष भी उतना ही त्रस्त है। स्त्री-पुरुष के बीच पार्थक्य सामंती-पितृसत्तात्मक समाज की निशानी है। कोई पुरुष जैसे ही मित्रता बोध के साथ किसी स्त्री के करीब नजर आती है, तुरंत उसके चरित्र को लेकर सवाल उठने लगते हैं।
सभ्यता के विकास के दौरान जब संसाधनों के असमान बँटवारे की स्थिति उत्पन्न हुई और जिनके हिस्से में अधिक संसाधन आए उन्होंने उसे अपनी संतान को हंस्तातरित करना चाहा तो स्त्री को गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई।
संतानोत्पत्ति के समय स्त्री कमजोर होती है, उसे सुरक्षा की अधिक आवश्यकता होता है, संभवतः इस और दूसरे अनेक कारकों का लाभ उठाकर पुरुष ने उसे परवश बना दिया। सिर्फ बर्बर-निरंकुश ताकत के दम पर किसी को अपने अधीन रखना मुश्किल होता है इसलिए सांस्कृतिक उपायों के जरिए अपनी वैचारिकी का वर्चस्व कायम किया जाता है। पुरुष सत्ता ठीक यही काम करती आई है और स्त्रियों को भय के जरिए नानाविध रूपों से अनुकूलित करने का काम आज भी जारी है।
जब सारी गतिविधियों का केंद्र मनुष्य को माना जाने लगा और तर्क.विवेक के साथ ही मानववाद की प्रस्थापना हुई तो स्त्री की भी पुरुषों के समान ही मानवीय गरिमा होती है, होनी चाहिए, यह प्रश्न भी प्रस्तुत हुआ।
सजना-सँवरना स्त्री का हक है, लेकिन सुंदर दिखने का परिवार-समाज द्वारा डाला जाने वाला दबाव सांस्कृतिक हिंसा है। गौरतलब है कि प्लेखानोव बता.समझा गए हैं कि प्रकृति में रिझाने का काम नर करता है। जैसे मोर अपने पंख फैलाकर नाचता है और मोरनी को रिझाता है। केवल मानव समाज में ही रिझाने का काम स्त्रियों के जिम्मे छोड़ दिया गया है, क्योंकि स्त्री पराधीन है और सांस्कृतिक हिंसा की शिकार और उससे त्रस्त है।
इन शब्दों की लेखिका प्रतिमा गोंड की सक्रियता को लेकर दिल्ली के अखबारों का रुख हँसी उड़ाने वाला रहा है कि देखो प्रसिद्धि पाने की चाहत के कारण कैसे तो सक्रिय हैं। इस प्रसंग में बस याद दिलाते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया में सवर्ण मानसिकता की पुरुषवादी सोच हावी है और उसे यह सहन ही नहीं होता कि आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाली कोई स्वतंत्र.चेता स्त्री कायदे की बात उठाए।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट महिलाओं द्वारा अपने नाम से पहले कुमारी, श्रीमती के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने संबंधी याचिका को खारिज करते हुए कह चुका है कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए याचिका दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के इस हिस्से को अखबारों ने प्रमुखता से जगह दी है। इस संदर्भ में ब्राह्मणवाद-विरोधी धारा के विद्वानों को उद्धृत करना जरूरी हो जाता है कि जातिवादी जहर समाज की नस-नस में भरा हुआ है, किसी को भी कॉर्नर करके देखो, उसके अंदर का सवर्ण छलक-छलक जाएगा।
इसी तरह की याचिका अगर स्थापित मध्यवर्ग की किसी सवर्ण लपक-झपक द्वारा दायर की गई होती तो हमारा यही मीडिया उसे हाथोंहाथ लेता और ऐसे प्रचारित करता कि देखो कितना तो आमूलगामी कदम उठाया गया है, जबकि यहाँ तो सांस्कृतिक हिंसा के पूरे संदर्भ को स्पष्ट करते हुए लोकतांत्रिक तरीके से चेतना के स्तरोन्नयन का काम किया जा रहा है। लेकिन हैसियत पूजने वाली और माल अंधभक्ति से ग्रस्त हमारी मीडिया मुद्दे को सही परिप्रेक्ष्य में उठाने से बचते हुए स्त्रीद्वेषी रुख अपनाए हुए है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश और लैंगिक समानता के पैरोकारों के साथ बातचीत के आलोक में हम संसद में बैठे अपने सक्षम जन प्रतिनिधियों, संस्थाओं को लोगों को पत्र लिखकर उनसे संपर्क इत्यादि करके इस विषय पर चर्चा करने और पहलकदमी करने का आह्वान करेंगे। साथ ही इस मूल केस में उच्चतम न्यायालय में रिव्यू पेटिशन दायर करने के लिए भी विचार बनाया जा रहा है।
(प्रतिमा गोंड का यह आलेख सामाजिक कार्यकर्ता कामता प्रसाद से बातचीत पर आधारित)