तालिबान की तानाशाही की सीधी आलोचना क्या कर पाएगी मोदी सरकार?

हिंसा में भी तालिबान और हमारे देश में सरकार समर्थित भीड़ का रवैया एक जैसा है, तालिबान अपना वर्चस्व जमाने के लिए हिंसा करती है, जबकि हमारे देश की सरकारी समर्थित भीड़ बिना किसी कारण भी हत्या कर देती है और पुलिस और प्रशासन हत्यारों को बेदाग़ बचा लेते हैं...

Update: 2021-08-16 11:28 GMT

(photo : Al Zazeera and social media)

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। वर्ष 2014 के बाद से सरकार ने भारत को लगातार विश्वगुरु और न्यू इंडिया बताया और इसी दौरान भारत समेत पूरा भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण एशिया अस्थिर हो गया, अराजक हो गया। इस दौर में तो पाकिस्तान, हमारे नेता बात-बात में जान हमें भेजने की धमकी देते हैं, सबसे स्थिर नजर आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् के बारे में भी हमारे नेता लगातार कुछ इस तरह बताते रहे हैं, मानो उसका सदस्य बनते ही भारत पूरी दुनिया में शांति बहाल कर देगा।

इस समय भारत सुरक्षा परिषद् का अध्यक्ष है, और कोई आश्चर्य नहीं कि इसी दौर में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया। तालिबान को मालूम है कि इसके बारे में भारत कुछ नहीं कहेगा, जिस तरह से म्यांमार की सेना के बारे में कुछ नहीं कहता।

वर्ष 2014 के बाद से सबसे पहले नेपाल में अस्थिरता आई, जहां लागातार प्रधानमंत्री बदले जाते रहे। इसके बाद श्री लंका में वर्षों से चली आ रही लोकतांत्रिक सरकार ख़त्म हो गयी और राजपक्षे परिवार को ही सरकार घोषित कर दिया गया। अब राजपक्षे परिवार ही राष्ट्रपति है, प्रधानमंत्री है और मंत्री भी है।

श्री लंका के बाद म्यांमार में सेना ने चुनी लोकतांत्रिक सरकार को जेल में डालकर सेना को ही सरकार घोषित कर दिया। अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने कब्ज़ा कर लिया। इसे महज एक संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता कि 2014 के बाद से भारत समेत पूरा दक्षिण एशिया ही अस्थिर हो गया। इसके बाद ही दशकों में पहली बार चीन से हिंसक झड़प भी हो गयी और हमारे सैनिक मारे गए। बांगलादेश और पाकिस्तान में सरकारें स्थिर हैं, पर मानवाधिकार हनन भारत की तरह चरम पर है। जनता के आन्दोलनों को कुचलने, मानवाधिकार का मुद्दा उठाने कार्यकर्ताओं का दमन और निष्पक्ष पत्रकारों की हत्या या जेल के मामले में भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश – तीनों पड़ोसी देश एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को भी हमारी सरकार पाकिस्तान के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। अब लगातार कहा जा रहा है कि तालिबान लड़ाकों को पाकिस्तान संरक्षण दे रहा है। पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत के अध्यक्षता में पहली बैठक अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर ही हुई थी, जिसमें पाकिस्तान के प्रतिनिधि को बुलाया ही नहीं गया था। जरा सोचिये, जो देश सीधा पाकिस्तान से जुड़ा है, वह देश अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर होने वाली बैठक में मौजूद ही नहीं था।

वैसे भी तालिबान की जो नीतियाँ हैं, वह नीतियाँ हमारे सरकार से पूरी तरह से मेल खाती हैं। तालिबान से सबसे अधिक डर महिलाओं को है, जो उन्हें घर से बाहर नहीं निकालने देना चाहते हैं, उन्हें शिक्षित होते देखना नहीं चाहते हैं। हमारे देश में भी सरकार भले ही महिलाओं के विकास की बातें करती हो पर जिस भीड़ का समर्थन सरकार करती है, उसी भीड़ से बहुत लोग अलग-अलग समय महिलाओं को घर में ही कैद रहने की सलाह दे चुके हैं, धमकी दे चुके हैं।

पुलिस का भी यही रवैय्या है, तभी तो किसी भी बलात्कार या फिर यौन हिंसा के मामले को उठाकर देख लीजिये – किसी में भी पुलिस शिकायत और ऍफ़आईआर तुरंत दर्ज नहीं करती है। कई दिनों तक टालमटोल करती है, फिर यदि उच्च अधिकारियों ने दबाव बनाया तभी एफ़आईआर दर्ज की जाती है। यह एक पुलिसिया परंपरा बन गयी है, जाहिर है यही सरकारी नीति भी होगी तभी तो किसी पुलिस वाले पर कोई कार्यवाही नहीं होती और जब तक एक बलात्कार की शिकायत दर्ज होती है तब तक दर्जनों और बलात्कार हो चुके होते हैं।

तालिबान ने अपने लड़ाकों की मदद से संघीय राजधानियों पर कब्जा करते-करते काबुल पर कब्ज़ा जमा लिया। हमारे देश में जो सरकार है, उसने पहले दिल्ली पर कब्जा किया और फिर धीरे-धीरे राज्यों की राजधानियों पर कब्ज़ा किया। हो सकता है कुछ लोगों को लगता हो कि हमारे देश में लोकतंत्र है, ऐसी हालत में कब्ज़ा शब्द ठीक नहीं है, पर याद कीजिये मध्य प्रदेश को, कर्नाटक को, गोवा को, बिहार को और उत्तर-पूर्वी राज्यों को – जहां चुनाव हारने के बाद भी विधायकों को खरीद कर कब्ज़ा किया गया है। अलबत्ता, लोकतंत्र का इतना असर होता है कि कभी-कभी खरीद-फरोख्त, चुनाव आयोग और प्रशासन को मिलाने, और हिन्दू-मुस्लिम कार्ड के बाद भी कब्ज़ा करने में चूक हो जाती है। इसके भी फायदे हैं – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकतंत्र का दिखावा करने में आसानी रहती है।

हिंसा में भी तालिबान और हमारे देश में सरकार समर्थित भीड़ का रवैया एक जैसा है। तालिबान अपना वर्चस्व जमाने के लिए हिंसा करती है, जबकि हमारे देश की सरकारी समर्थित भीड़ बिना किसी कारण भी हत्या कर देती है और पुलिस और प्रशासन हत्यारों को बेदाग़ बचा लेते हैं। जाहिर है, तालिबान और भारत सरकार एक दूसरे के विरोध में सीधे कभी नहीं खड़े होंगें – दोनों को एक दूसरे से कब्जा करने की नीतियाँ जो सीखनी हैं।

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