18 साल सही गलत का फैसला और मताधिकार की सही उम्र तो नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाने के लिए और 7 साल का इंतजार क्यों
मताधिकार की उम्र सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की गई थी तब उस वक्त भी निर्वाचित होने के लिए उम्र सीमा 25 वर्ष ही रखी गई थी, जबकि उसी वक्त निर्वाचित होने के लिए कम से कम समानुपातिक ढ़ंग से न्यूनतम उम्र सीमा 25 वर्ष से घटाकर 22 वर्ष तो कर ही दी जानी चाहिए थी....
मताधिकार और नेतृत्वकर्ता की उम्र में फासले पर राजेश पाठक का विश्लेषण
एक तरफ सरकार यह मानती है कि जब कोई भी सामान्य नागरिक 18 वर्ष का हो जाता है तो उसे वयस्क मताधिकार प्राप्त हो जाता है। इस क्षमता से वह अपने नेतृत्वकर्ता को चुन सकता है। जब किसी व्यक्ति में सही-गलत में अंतर करने की क्षमता इस उम्र में प्राप्त हो गई मान ली जाती है तो उन्हें स्वयं नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाने के लिए अगले न्यूनतम 7 वर्षों तक और किस अनुभव के लिए इंतजार कराया जाता है?
मेरा मानना है कि जब किसी व्यक्ति में नेतृत्वकर्ता को चुनने की क्षमता विकसित है तो उसमें नेतृत्व करने की क्षमता से इंकार नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में जब किसी व्यक्ति को 'मत देने का संवैधनिक अधिकार' प्राप्त हो जाता है ठीक उसी समय उसे निर्वाचित होने का भी अधिकार प्राप्त हो जाना चाहिए।
तर्क यह है कि किसी को किसी उदे्श्य के लिए चुनना एक तार्किक एवं अनुभवजन्य विधा है जिसमें स्वयं ही अनुभव एवं आंतरिक/बाह्ज्ञान तथा साकारात्मक परिकल्पना की आवश्यकता होती है और जब हमारा संविधान यह स्वीकार करता है कि किसी खास उम्र यानी 18 वर्ष में लोगों में परिपक्वता एवं अनुभव क्षमता विकसित है तो उन्हें स्वयं भी उसी उम्र में चुने जाने का अधिकार क्यों नही ? इसलिए यह विषय महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब हम में अच्छे-बुरे, देशहित-स्वहित आदि में अंतर करने की क्षमता लेकर चयन करने की शक्ति है तो स्वयं ही उसी उम्र में चुने जाने के अधिकार से क्यों वंचित रहें ?
इतना ही नहीं अगर हम आपराधिक कृत्य की बात करें तो पता चलता है कि अब तो न्यायिक प्रक्रिया एवं व्यवस्था भी बाल अपराध की श्रेणी में मान्य उम्र को और भी घटा देने पर समुचित विचार कर रही है, उसे तो और भी लगने लगा है कि लोगों में परिपक्वता 18 वर्षों से बहुत पहले ही आ जाती है। दूसरे शब्दों में क्या गलत या फिर क्या सही है इसका निर्णय अब 18 वर्ष से कम उम्र के लोग आसानी से कर लेते है, फलतः बाल अपराधी तभी वे कहलाएंगे जब वे 16 वर्ष तक की उम्र के हैं ।
अतः यह मान लेने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि 18 वर्ष की उम्र प्राप्त होते ही हमें वयस्क मानते हुए मताधिकार प्रदत्त किया जाता है एवं हम देश/राज्य के भाग्यविधाता को चुनने में संवैधानिक तौर पर अधिकृत हो जाते हैं।
जो लोग यह तर्क देते हैं कि चुने जाने के लिए राजनीतिक, सामाजिक एवं अन्य परिपक्वता का होना बहुत जरूरी है जो कि सामान्यता 25 वर्ष की उम्र होते-होते लोगों को प्राप्त हो जाती है तो उसे चुने जाने हेतु एक अनुभवजन्य योग्यता से संबंधित आधार को उम्मीदवार होने की योग्यता में ही क्यों नहीं शामिल कर लिया जाता है कि वयस्क मताधिकार की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष प्राप्त करने के बाद कम से कम सात वर्षों तक उन्हें और भी ज्ञानार्जन करना चाहिए ताकि देश/राज्य को परिपक्व एवं अनुभवी नेतृत्वकर्ता मिल सके।
दूसरा तर्क यह है कि जब कोई व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र में चुने जाने की वास्तविक क्षमता या फिर योग्यता नहीं प्राप्त करता है अर्थात चुने जाने हेतु वह अपरिपक्व नागरिक है तो फिर उसे देश/राज्य के सही नेतृत्वकर्ता को चुनने में परिपक्व नागरिक कैसे माना जा सकता है?
मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि देश/राज्य के राजनीतिक या अन्य प्रशासनिक क्रियाविधि हेतु योग्यता के साथ-साथ अनुभव भी आवश्यक कारक है तो फिर क्या बिना कोई सक्रिय क्रियाकलापों के ही सिर्फ 25 वर्ष की उम्र प्राप्त हो जाने से उस नागरिक को राजनीति या अन्य मामलों में अनुभवी मान लिया जाना चाहिए जो कि सामान्यतया उसे चुने जाने के अधिकार को संपुष्ट कर देता हो क्योंकि विधानसभा या लोकसभा की सदस्यता प्राप्त करने हेतु तो किसी ढ़ंग के राजनीतिक या अन्य अनुभवों को तो अनिवार्य नहीं बनाया गया है।
यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि समाज या उसके अंतर्गत गठित किसी संस्था-समूह के अंतर्गत नेतृत्व कर चुके व्यक्ति को ही वृहत्तर नेतृत्व करने का विशेष अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। इससे देश/राज्य को एक अनुभवी नेतृत्वकर्ता प्राप्त हो सकेगा एवं उनके अनुभवों एवं गुणों का लाभ पूरे राज्य/देश को प्राप्त हो सकेगा। यह अपने देश की राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए हास्यास्पद ही प्रतीत होता है कि बिना किसी सांगठनिक नेतृत्व क्षमता एवं कोरा अनुभव के मात्र सहानुभूति या इससे जुड़े़ अन्य मापदण्ड अपने देश में नेतृत्वकर्ता के चयन में प्रभावी भूमिका निभाती है जो कि देश एवं राज्य के अपरिपक्व प्रजातंत्र होने के संपूर्ण कारण को परिलक्षित करता है।
उपर्युक्त तथ्यों को अगर हम गहराई से अध्ययन करें तो पता चलता है कि चुनने और चुने जाने के बीच जो सात वर्षों का गैप या अंतर है वह बेमानी है। यह गैप या अंतर यह प्रमाणित करने में सर्वदा विफल है कि उस अंतर से इतनी क्षमता एवं इतनी परिपक्वता आ जाती है जो कि देश/राज्य के नेतृत्व करने के लिए आवश्यक है और उसके ठीक विपरीत 18 वर्ष की उम्र में वही क्षमता एकदम नहीं विकसित होती है।
उपर्युक्त संदर्भ में सरकार के पास दो विकल्प रह जाते हैं जिसमें से आज की बदली हुई परिस्थितियों में एक का चयन किया जाना नितांत आवश्यक हो जाता है।
प्रथम तो यह है कि जिस उम्र में कोई नागरिक वयस्क होता है एवं लोकसभा/विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने का अधिकार प्राप्त करता है तो ठीक उसी वक्त से उसे चुने जाने का भी अधिकार प्राप्त हो जाना चाहिए। दूसरे, यदि चुने जाने में कोई विशेष योग्यता, अनुभव, तर्क या विलक्षणता की आवश्यकता देश एवं राज्य के प्रशासनिक हित में दृष्टिगोचर होता है तो उक्त प्राप्त अनुभव का साक्ष्य संग्रहण हो एवं वस्तुतः चुनाव लड़ने की आवश्यक अर्हताओं में इसे आवश्यक रूप से शामिल की जाय।
इस ढ़ंग के अनुभव एवं क्रियाशीलता के उदाहरण हो सकते हैं-छात्र संगठन या अन्य दबाव समूह के सक्रिय कार्यकर्ता या पदाधिकारी, किसी एन जी ओ का पदधारी जो समाज या राज्यहित साधने में अपनी उर्जा लगाते हैं या कोई अन्य राजनीतिक, सामाजिक सांगठनिक अनुभव जो नेतृत्व के गुणों का धारण करता हो। यहां यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि दबाव समूह के सदस्यों का राजनीतिक दलों के समान राजनीतिक हित साधने का मुख्य उद्देश्य नहीं होता है तथापि जब वे किसी राजनीतिक दल के आधर पर चुनाव लड़़ना चाहें तो उन्हें दबाव समूह के सदस्यों के रूप में सक्रियता समाप्त कर देनी चाहिए ताकि दबाव समूह के सार तत्व को अक्षुण्ण रखा जा सके।
उपर्युक्त दो विकल्पों में किसी भी एक विकल्प का अनुसरण नहीं किया जाना सरकार की अन्य/इतर मनसा को दर्शाता है जिसे आज का आधुनिक समाज सहजता से स्वीकार करने में असहज महसूस कर रहा है।
जनप्रतिनिधियों को चुनने एवं स्वयं जनप्रतिनिधि चुने जाने के बीच के काल को हम अर्धनागरिकता (Half Citizenship) या 'नागरिकता गैप' (Citizenship Gap) की संज्ञा दे सकते हैं क्योंकि उन्हें जनप्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार तो संवैधानिक तौर पर प्राप्त होता है परंतु वे स्वयं जनप्रतिनिधि बनने के दावेदार नहीं हो सकते।
जनप्रतिनिधियों की औपचारिक योग्यता को लेकर देश में हमेशा बहस छिड़़ती रही है एवं सामान्य तथा विशिष्ट तौर पर इस तर्क को सर्वदा झुठलाते रहा गया है कि उन्हें औपचारिक योग्यता वाला होना चाहिए परंतु यदि उन्हें औपचारिक शिक्षा प्राप्त न भी हो तो इतना तो आवश्यक है ही कि उन्हें समाज में नेतृत्व क्षमता जैसे गुणों से युक्त होना चाहिए, जिसकी आवश्यकता स्वीकारी जाती रही है।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में अगर आवश्यकता हो तो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धराओं में आवश्यक संशोधनोपरांत लोकसभा/विधानसभा के सदस्य हेतु चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों की आवश्यक अर्हताओं में भले ही औपचारिक शैक्षणिक योग्यता, किसी खास सीमा तक, को समावेशित नहीं किया जाय तथापि राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्वकर्ता के रूप में प्राप्त औपचारिक अनुभवों को उनकी अर्हता में आवश्यक रूप से समावेशित किया जाना चाहिए। ऐसा समावेश भले ही प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक जे.एस.मिल द्वारा जनप्रतिनिधियों के लिए निर्धारित औपचारिक योग्यता का हूबहू अनुसरण नहीं करता हो तथापि अनुभवजन्य योग्यता का निर्धारण किए जाने से बहुत हद तक उनकी आत्मा के करीब हम अपने को पहुंचा सकते है जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि जनप्रतिनिधियों को चुने जाने के लिए निर्धारित अर्हताओं में उतना तो होना ही चाहिए कि उन्हें सामान्य ज्ञान एवं अंकगणित जैसे व्यावहारिक विषयों का ज्ञान हो ।
उपर्युक्त सुझाए गए उपायों को अगर हम नकार भी देते हैं तो इस संवैधानिक सच से कैसे इंकार किया जा सकता है कि भारतीय संविधान में 61वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जब वयस्क मताधिकार की उम्र सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की गई थी तब उस वक्त भी निर्वाचित होने के लिए उम्र सीमा 25 वर्ष ही रखी गई थी जबकि हम तटस्थ भाव से अध्ययन करें तो उसी वक्त निर्वाचित होने के लिए कम से कम समानुपातिक ढ़ंग से न्यूनतम उम्र सीमा 25 वर्ष से घटाकर 22 वर्ष तो कर ही दी जानी चाहिए थी जो कि आज तक नहीं हुआ। वास्तव में देखा जाए तो यह विषय अत्यंत ही संवैधानिक महत्व एवं जनहित का है। अब इसे प्रजातांत्रिक दुविधा (Democratic Dilemma) का शिकार होने से बचाने के लिए स्पष्ट जनमत निर्माण की आवश्यकता है।