Adiwasi Culture : आदिवासियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्ता, साम्प्रदायिकता और बाजारवाद, निशाने पर आदिवासी संस्कृति

Adiwasi Culture : आदिवासी आज निशाने पर है,आदिवासी के संसाधन निशाने पर हैं, आदिवासी के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए पूंजीवादी शक्तियां आदिवासी नौजवानों के दिमागों को काबू में कर रही हैं....

Update: 2022-01-28 09:43 GMT

 (आदिवासियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्ता, साम्प्रदायिकता और बाजारवाद)

वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का विश्लेषण

Adiwasi Culture : संस्कृति की धारा आती तो अतीत से है लेकिन संस्कृति (Culture) काम वर्तमान में करती है। इसलिए संस्कृति को आधुनिक होना ही पड़ेगा वरना वह दिखावे और कर्मकांड का रूप ले लेगी और हमारे जीवन से बाहर हो जायेगी।

ज़्यादातर संस्कृतियाँ इसी कारण जीवन से बाहर हुई हैं क्योंकि उन्हें लगा कि आधुनिक होने से वे मिट जायेंगी और वे अब सिर्फ पर्वों और शादी विवाहों तक सिमट गई हैं लेकिन संस्कृति इतनी सीमित चीज नहीं है जो संस्कृति सोच और व्यवहार पर कोई असर नहीं डालती वे किसी को प्रभावित नहीं कर पातीं।

आप याद कीजिये आपने कभी अफ्रीका या ब्राजील या किसी भी जगह के किसी आदिवासी सभ्यता (Adiwasi Civilization) का इसलिए गुणगान किया हो कि उनका नाचने का तरीका बहुत अच्छा है या उनके कपड़े बहुत अच्छे होते हैं। नहीं बल्कि आपने ऐसी कहानियाँ ज़रूर पढी होंगी कि अफ्रीकी कबीले में उबंतू संस्कृति अनुयायी समुदाय में जब कोई व्यक्ति बुरा काम या अपराध (Crime) करता है तो उस समुदाय के सभी लोग उस अपराधी व्यक्ति को अपने गांव के केंद्र में ले जाते हैं और उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं, वहां उसकी बुराइयों की बजाए उसकी सभी अच्छाइयों का दो दिनों तक गुणगान करते हुए उसे बताते हैं कि वह तो बहुत अच्छा इंसान है, उससे शायद भूलवश ऐसा गलत काम हो गया है।

इसी तरह से समाज किसी भी संस्कृति को मानने वाले लोगों के आज के व्यवहार और सोच के आधार पर उनका मूल्यांकन करते हैं। लेकिन ज़्यादातर संस्कृति की चर्चा उसके अतीत में महान होने की बहस में फंसी हुई है। एक तरफ ब्राह्मणवादी लोग अपनी संस्कृति के अतीत में विश्वगुरु होने महिलाओं को देवी मानने की डींगों के आधार पर खुद को महान साबित करने की जिद पर अड़े हुए हैं। भले ही आज वह नारी को कोख में मारने और दहेज़ के लिए या अपनी मर्जी से शादी करने पर हॉनर किलिंग में अपनी शान समझते हैं और पितृसत्ता के भयानक समर्थक हैं।

इसी की छाया भारत की सभी संस्कृतियों पर पड़ रही है। संस्कृति का मतलब पुराना होना या कर्मकाण्ड और धार्मिक परम्पराएँ मान लिया गया है।

जबकि संस्कृति के मूल तत्व यह हैं कि उस संस्कृति के लोग प्रकृति के विषय में, समुदाय के सदस्यों के आपसी सम्बन्धों के विषय में, महिला और पुरुष की बराबरी पर आधारित सम्बन्धों के विषय में कैसा सोचते और व्यवहार करते हैं। इन्हीं व्यवहारों के आधार पर ही किसी समुदाय की संस्कृति के महान, अच्छा या टिकाऊ होने की पहचान की जा सकती है। अन्यथा अलग-अलग संस्कृतियों के मानने वाले अपनी संस्कृति के अतीत उसके पुरानेपन उसके अतीत में बड़ा महान होने के दावे सदैव करते आये हैं वह कोई नई बात नहीं है।

आदिवासी आज निशाने पर है। आदिवासी के संसाधन निशाने पर हैं। आदिवासी के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए पूंजीवादी शक्तियां आदिवासी नौजवानों के दिमागों को काबू में कर रही हैं। आदिवासी नौजवानों के दिमागों को कब्ज़ा करने के लिए यह पूंजीवादी शक्तियां ब्राह्मणवादी संस्कृति की महानता और बाजारवाद की महानता को उनके दिमागों में घुसा रही है। इसमें यह बहुत हद तक सफल भी हो रहे हैं।

आदिवासी इलाकों में साम्प्रदायिक पार्टियां चुनाव जीत रही हैं, मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है। यह बाजारवादी ताकतें आदिवासियों को बरगलाने के लिए उनके असली सांस्कृतिक मूल्यों को भुलाने और दिखावे को ही संस्कृति बताने का षड्यंत्र भी कर रही हैं। दुःख की बात यह है कि हमारे बहुत से आदिवासी युवा इन साम्प्रदायिक पूंजीवादी ताकतों के चंगुल में फंस चुके हैं और वे अब अपनी संस्कृति के मूल तत्त्वों की पहचान और उन्हें संजोने और बढाने की बजाय सिर्फ कुछ कर्मकांडों को संस्कृति मानने की भूल कर रहे हैं।

इससे हो यह रहा है कि एक तरफ तो उन्हें लग रहा है कि आरएसएस (RSS) से जुड़ो क्योंकि यह संस्कृति बचाने की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ वे मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ हिंसा करने में भी इस्तेमाल कर लिए जा रहे हैं जो कि आदिवासी सोच से बिलकुल मेल नहीं खाती।

इन बाजारवादी साम्प्रदायिक ताकतों (Communal Forces) ने साम्प्रदायिकता के साथ साथ पितृसत्ता को भी मजबूत किया है। ताकि महिला को एक उपभोक्ता के रूप में बदल दिया जाय ताकि महिला उत्पादों को आदिवासी इलाकों में घुसाया जा सके। संसाधनों पर कब्ज़ा करने में महिलाओं के विरोध और जल जंगल ज़मीन पर महिला के अधिकार को ही मिटाया जा सके। और पुरुष जिस के दिमाग पर पर पहले ही कब्ज़ा किया जा चूका है उसके सहयोग से संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया जाय।

आज आदिवासियत के सामने सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्ता साम्प्रदायिकता और बाजारवाद है। चिंता की बात यह है कि इन्हें चुनौती मानने की बजाय इन्हें चुनौती देने वाले लोगों पर ही निशाना साधा जा रहा है और वह भी आदिवासी संस्कृति को बचाने का दावा करते हुए। यह आरएसएस (RSS) की बहुत बड़ी जीत है। उसने संस्कृति के मूल तत्त्वों को मिटा कर नफरत हिंसा और मर्दवाद दिमागों में घुसा दिया है तथा समानता, मिलजुल कर रहना और सादगी को महत्वहीन बना दिया है। आरएसएस ने यही काम दलितों और ओबीसी जातियों के साथ भी किया है और उन्हें अपने चुनाव जीतने की सीढ़ी बना लिया है । यही काम आरएसएस ने आदिवासियों के बीच भी कर लिया है तथा आगे जारी रखे हुए है।

रोज़मेरी एक आदिवासी महिला है । वह नागालैंड में महिलाओं को राजनीति में स्थान दिलाने के लिए अनेकों वर्षों से काम करती हैं। मैं उनसे मिला हूँ और उनके कामों से प्रभावित हूँ। उनका काम दुनिया भर के लोगों को प्रभावित करता है। उन्होंने जब देखा कि छठवीं अनुसूची लागू होने के बाद आदिवासियों के इलाके में आदिवासियों की स्थानीय परिषद् को वहाँ के विषय में निर्णय लेने का अधिकार मिला। लेकिन उस परिषद में सिर्फ पुरुषों ने अपने को रखा और उन्होंने कहा कि हमारा पारम्परिक रिवाज़ यही है कि समाज के निर्णय पुरुष बैठ कर लेते आये हैं। रोज़मेरी ने इसके विरोध में अभियान चलाया। उनका विरोध किया गया। लेकिन अंत में वह जीतीं, उनकी बात सबकी समझ में आई। क्या रोज़मेरी को हम आदिवासी समुदाय का दुश्मन मानेंगे या दोस्त?

हमारा कोई भी सदस्य हमारी संस्कृति को बेहतर और आज की दुनिया के हिसाब से बनाने का सुझाव देता है तो वह हमारी संस्कृति का दुश्मन नहीं है और अगर हम उसे दुश्मन घोषित करते हैं और उस पर हमला करते हैं तो होगा यह कि संसार हमें हंसी का पात्र बना देगा और हम असल में पिछड़े हुए बन जायेंगे। यह हम सबके सामने चुनौती है कि अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को बचाते हुए हम आधुनिक संसार में खुद को बचाए कैसे रखें? इस पूरे आलेख को आप चाहें तो रजनी मुर्मू प्रकरण (Rajni Murmu Case) से जोड़ कर भी पढ़ सकते हैं।

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