अंधविश्वासी होते समाज में निर्वासन झेलती वैज्ञानिक विचारधारा की पुनर्रचना हैं आलोक धन्वा की कविताएं

'जनता का आदमी' 'भागी हुई लड़कियां', 'ब्रूनो की बेटियां', 'पतंग' से 'सफेद रात' तक यही आलोक की कविता का मर्म और दर्द है, जिस तरह उनकी कविताओं में निर्वासित और नष्ट होती स्थितियों की पुनर्रचना होती है वह खुद के साथ भी घटित होता है

Update: 2021-07-02 07:57 GMT

चर्चित कवि आलोक धन्वा के साथ वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत

हिंदी कविता में अपने अलहदा लहजे को लेकर पहचाने जाने वाले आलोक धन्वा दो जुलाई को 74 के हो गये। उन्हें याद कर रहे वरिष्ठ कवि कुमार मुकुल

'आम का पेड़' आलोक धन्वा की एक छोटी सी कविता है। पटना में आलोक जहां रहते थे, वर्षों से, वहां घर के ठीक सामने आम के कई पेड़ थे, जो नहीं रहे। एक अपार्टमेंट खड़ा हो गया वहां। दरअसल जब आम के पेड़ का वहां होना संभव नहीं रहा, तो वह आलोक की कविता में आ खड़ा हुआ। आलोक ना जाने कितनी बार कितने लोगों से उन पेड़ों के नहीं रहने का दुख व्यक्त कर चुके हैं। पेड़ों के रहते वे दिल्ली जाने की सोच भी नहीं पा रहे थे। पर उनके कटने के साथ जैसे उनकी जड़ें कट गईं।

यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि जब-जब किसी समाज, व्यक्ति, प्रकृति या स्थान का उसकी पूरी गरिमा के साथ हमारे समय में होना असंभव हुआ है, आलोक की कविताओं में उनका होना संभव हुआ है।

'जनता का आदमी' 'भागी हुई लड़कियां', 'ब्रूनो की बेटियां', 'पतंग' से 'सफेद रात' तक यही आलोक की कविता का मर्म और दर्द है। जिस तरह उनकी कविताओं में निर्वासित और नष्ट होती स्थितियों की पुनर्रचना होती है वह खुद के साथ भी घटित होता है। कविता की दुनिया में अपनी सहज लोकप्रियता के बाद भी कवि एक निर्वासन झेलता है।

पर वह हारता नहीं, रचना के स्तर पर उसका संघर्ष जारी रहता है। कवि की सहज लोकप्रियता को दशकों तक अनदेखा करने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल को भी अपनी तब-तक की नासमझी को मंच से सार्वजनिक करते हुए आलोक के लिए नई परिभाषा गढ़नी पड़ी थी। पटना की एक गोष्ठी में नवल जी को इजहार करना पड़ा था कि आलोक की कविता आलोचना से आगे है।

वस्तुतः आलोक की कविता, कविता के साथ समय की आलोचना भी है। जो प्रकारांतर से एक विचारधारा को सामने लाती है, जिसके तार उनकी सारी कविताओं से जुड़े हैं।

'अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है भाषा और लय के बिना केवल अर्थ में '।

यह जो 'भाषा और लय के बिना' बुलावा है वह वही व्याकुल पुकार है जो #मुक्तिबोध के यहां कहीं खो गई है -

मुझे पुकारती हुई

पुकार खो गई कहीं।

'जनता का आदमी' से 'आम का पेड़' और 'सफेद रात' तक कहीं भी विचारधारा से विचलित नहीं हुए हैं आलोक धन्वा। आत्मनिर्वासन झेलते हुए एक निर्वासित पीढ़ी का दर्द रचा है कवि ने। यह जो अकेलापन है और भटकाव है और दर्द भरा जीवन है स्त्रियों का, यही आलोक की कविताओं का वैभव है। 'चौक' कविता में आलोक लिखते हैं -

उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा

जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया।

स्त्रियों के उस वैभव को 'सफेद रात' में याद करते आलोक लिखते हैं -

अब उसे याद करोगे

तो वह याद आएगी

अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है

तुम्हारी याद ही उसकी गली है उसकी उम्र है

उसका फिरोजी रूमाल है

आलोक धन्वा की कविता एक बड़ी हद तक अंधविश्वासी होते समाज में निर्वासन झेलती एक वैज्ञानिक विचारधारा की पुनर्रचना है। 'जनता का आदमी' से 'सफेद रात' तक यही तो किया है कवि ने। फाँसी के तख्ते की ओर बढ़ते हुए #भगत_सिंह के सबसे मुश्किल सरोकार पहचाने; युद्ध सरदारों का न्याय नहीं स्वीकारा। मुश्किल सरोकारों की यह पहचान आलोक की विचारधारा की भी पहचान है। 'सफेद रात' में वे लिखते हैं -

जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े

तो अहिंसा ही थी

उनका सबसे मुश्किल सरोकार

अगर उन्हें कबूल होता

युद्ध सरदारों का न्याय

तो वे भी जीवित रह लेते

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