Bias in Judicial Decision: न्यायालयों के फैसले भी पूर्वाग्रह-युक्त और पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं?
Bias in Judicial Decision: न्यायालयों में माननीय न्यायाधीश संविधान की दुहाई देते जो फैसले देते हैं, वे फैसले न्यायाधीशों के पूर्वाग्रह, पक्षपाती सोच, राजनैतिक झुकाव और लैंगिक समानता पर उनकी विचारधारा से प्रभावित हो सकते हैं|
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Bias in Judicial Decision: न्यायालयों में माननीय न्यायाधीश संविधान की दुहाई देते जो फैसले देते हैं, वे फैसले न्यायाधीशों के पूर्वाग्रह, पक्षपाती सोच, राजनैतिक झुकाव और लैंगिक समानता पर उनकी विचारधारा से प्रभावित हो सकते हैं| यह निष्कर्ष यूनाइटेड किंगडम की यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर (University of Exter) के वैज्ञानिकों के अध्ययन का है, और इसे जर्नल ऑफ़ एप्लाइड कोग्निटीव साइकोलॉजी (Journal of Applied Cognitive Psychology) में प्रकाशित किया गया है| तथाकथित न्याय को यदि आप बारीकी से देखें तो अनेक बार यह सरासर अन्याय ही नजर आता है| हमारे देश में तो यह सब सामान्य है, और हरेक दिन न्याय-अन्याय का अंतर ख़त्म होता जा रहा है|
हमारे देश में न्यायाधीश तीन स्तरों पर अपनी राय रखते हैं, और तीनों स्तरों पर उनकी राय अलग रहती है| पहला स्तर लिखित फैसले का है और यह ऐसा ही होता है जैसा सत्ता चाहती है| दूसरा स्तर लिखित फैसला सुनाने से पहले बहस का होता है, जिसके दौरान न्यायाधीश सत्ता और सत्ता से जुड़े लोगों की मुखर आलोचना करते हैं, पर इस आलोचना में से कुछ भी लिखित फैसले का हिस्सा नहीं होता| फैसले के अगले दिन मीडिया में फैसले की चर्चा के बदले न्यायाधीशों की टिप्पणिओं की चर्चा रहती है| तीसरा स्तर न्यायालय से अलग किसी सम्मलेन और समारोह में न्यायाधीशों का भाषण है| इन भाषणों में देश का संविधान, अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक समानता की दुहाई देते हुए न्यायाधीश एक आदर्श भारत की कल्पना करते हैं| जाहिर है, इन तीनों स्तरों पर न्यायाधीशों के विचार बिलकुल अलग रहते हैं|
अमेरिका में गर्भपात पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद तो इस अध्ययन के निष्कर्ष को समझाना आसान हो गया है| गर्भपात के पक्ष में फैसला देते न्यायाधीश भी संविधान की दुहाई दे रहे थे, और विपक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीश भी यही दोहरा रहे थे| हमारे देश में तो हाल में ही किसी न्यायाधीश ने कहा है कि हम केवल संविधान के प्रति उत्तरदाई हैं, जनता के प्रति नहीं| खैर, जनता के प्रति तो दुनिया का कोई न्यायालय उत्तरदाई नहीं होता|
यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर के अध्ययन में कहा गया है कि अनेक बार न्यायाधीशों के फैसले पूर्वाग्रह पर आधारित होते हैं, और ये फैसले गलत या पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं| अधिकतर पूर्वाग्रह महिलाओं और बच्चों से सम्बंधित मामलों, जैसे यौन हिंसा और बाल यौन उत्पीडन, में नजर आता है| यह पूर्वाग्रह न्यायाधीश के लिंग और राजनैतिक झुकाव के कारण पनपता है| अध्ययन में बताया गया है कि पूर्वाग्रह व्यक्तिगत अनुभव, घरेलू माहौल, मित्रों या रिश्तेदारों के अनुभव और किसी घटना के मीडिया कवरेज की शैली से भी प्रभावित होता है| बाल यौन शोषण के बारे में महिलायें पुरुषों के मुकाबले अधिक सजग रहती हैं| अधिकतर पुरुष इसे समाज की व्यापक समस्या नहीं मानते, इसे सामान्य घटना समझते हैं और ना ही यह मानते हैं कि इससे बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है| जबकि महिलायें ऐसा मानती हैं| घरेलु हिंसा के मामले में भी पुरुषों और महिलाओं की सोच में ऐसा ही अतर है|
इस अध्ययन के लिए 539 लोगों का चयन किया गया था, जिसमें पुरुष और महिलायें दोनों शामिल थे| इन लोगों की उम्र 37 वर्ष से 61 वर्ष के बीच थी| पहले दौर में इनलोगों से समाज में अपराध के बारे में व्यापक विमर्श किया गया, और इस बारे में हरेक प्रतिभागी की राय ली गयी| फिर अगले चरण में इन्हें दो काल्पनिक स्थितियां दी गयी – पहला मामला बाल यौन शोषण से सम्बंधित था, और दूसरा मामला घरेलू हिंसा से सम्बंधित था| प्रतिभागियों के सामने दोनों मामले के काल्पनिक वादी और प्रतिवादी की विस्तृत बहस कराई गयी| बहस पूरी होने के बाद प्रत्येक प्रतिभागी को काल्पनिक मुकदमे का निर्णय करने को कहा गया| नतीजे चौकाने वाले थे – अधिकतर पुरुषों ने दोनों मुकदमों में तथाकथित अपराधी को बरी कर दिया जबकि अधिकतर महिलाओं ने अपराधी को अपराधी ठहराते हुए सख्त सजा का निर्णय दिया|
इस अध्ययन की मुख्य लेखिका डॉ रेबेका हेल्म (Dr Rebecca Helm) के अनुसार इस पूरे अध्ययन के निष्कर्ष और पिछले कुछ वर्षों के न्याय व्यवस्था से सम्बंधित वैश्विक परिवेश के हालात के बाद अब आवश्यक है कि पूरी दुनिया के न्यायालयों में न्यायाधीशों के बीच संख्या के सन्दर्भ में लैंगिक समानता हो, और हरेक राजनैतिक विचारधारा का बराबर प्रतिनिधित्व हो| पहले यह माना जाता था कि न्यायाधीशों के फैसलों पर व्यक्तिगत राजनैतिक विचारधारा हावी नहीं होती, पर अब ऐसा नजारा हरेक देश में सामान्य न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है| दरअसल पूरी दुनिया में जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रजातंत्र ख़त्म होता जा रहा है, निरंकुश व्यक्तिवादी सत्ता का दायरा बढ़ता जा रहा है, उसमें संविधान से अधिक प्रबल राजनैतिक विचारधारा वाले न्यायाधीशों का महत्वपूर्ण योगदान है| अफ़सोस यह है कि न्यायव्यवस्था जनता की पहुँच से दूर सत्ता की गलियारों में न्याय बाँट रही है|