बिहार चुनाव की पूर्वसंध्या : रोजी-रोटी-रोजगार के सवाल पर पड़ेंगे वोट या जाति ही बनेगी चुनावी राजनीति की दुल्हन

करीब पांच दशकों से बिहार की जाति-उपजाति समूह नारा बुलंद करते रहे हैं - हमारा कसाई तुम्हारे कसाई से बेहतर - और अपवाद स्वरूप वामपंथी दलों को छोड़ दें, तो लगभग हर राजनीतिक दल इन 'कसाईयों' को अपने-अपने पाले में शामिल करने के लिए हर किस्म का प्रबंधन करता रहा है....

Update: 2020-10-27 11:57 GMT

बिहार चुनाव पर रंजीत अभिज्ञान का विश्लेषण

जनज्वार। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के ठीक पहले भले ही खेमेबंद बुद्धिजीवी, पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार अपने-अपने नायकों के लिए जय और विजय गान में व्यस्त हों, मगर बिहार के सकारात्मक बदलाव के आकांक्षी लोगों के लिए यह सवाल अभी भी मुंह बाए खड़ा है कि क्या सचमुच बिहार में इस बार रोज-रोटी-रोजगार के सवालों पर जनमतसंग्रह होगा या नए रूप, तेवर और अंदाज में जातियां ही चुनावी राजनीति की दुल्हनियां बनी रहेंगी?

खैर, इन सवालों के जवाब तो 10 नवम्बर की मतगणना के बाद नए सिरे से बनने वाली सरकार के गठन के बीच ही मिलेंगे, मगर आईए फिलहाल हम बिहार के मौजूदा सूरते-हाल का जायजा लेते हुए राज्य की वर्तमान जनसांख्यिकी, राजनीतिक आर्थिकी, राज्य पर दशकों पुराने राजनीतिक इतिहास की काली छाया के असर और उन बेहद बुनियादी सवालों से टकराते हैं जो हमें बिहार की राजनीति के 'बहुआयामी सत्य' को समझने में मदद कर सकते हैं।

अभी बिहार की अनुमानित आबादी साढ़े बारह करोड़ से ज्यादा है। इनमें से सात करोड़ बीस लाख लोग मतदान करने के हकदार हैं। इनमें तीन करोड़ अस्सी लाख पुरुष और तीन करोड़ चालीस लाख महिलाएं हैं।

इन मतदाताओं में 20 से 30 साल के बीच के लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ है और इतनी ही संख्या उन लोगों की है जो 40 से 50 साल के बीच की उम्र के हैं। 30 से 40 साल के बीच के मतदाताओं की संख्या करीब दो करोड़ है। आईए, जरा इस आबादी/मतदाताओं की जातिबद्धता की बात करें।

यों तो कुछ अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी कहते हैं कि जाति व्यवस्था मरणासन्न है और इसका आर्थिक आधार टूट चुका है क्योंकि औद्योगिक वस्तुओं के बढ़ते प्रवाह और उनकी उपलब्धता ने कृषि-शिल्प'कारीगरी-सेवा-श्रम की परस्पर अंतर्निभरता को तोड़ दिया है और विकास की गति ने अपने आप में 'संतुष्ट' गांवों की संरचनाओं और सामाजिक संबंधों को अप्रसांगिक बना दिया है, मगर जमीनी स्तर की सच्चाईयां इन अकादमिक निष्कर्षों को झूठा साबित करती हैं।

जमीनी हकीकत यह है कि जाति व्यवस्था जिंदा थी और जिंदा है क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में उसका राजनीतिक आधार अभी भी जस का तस बना हुआ है। मेरे एक मित्र हैं जो कहते हैं कि दरअसल जाति को अप्रसांगिक बताना अथवा उसे विमर्श में अदृश्य कर देना एक शातिर राजनीतिक-वैचारिक साजिश है।

अगर ऐसा है तो ऊपर वर्णित बिहार के तमाम मतदाता तकरीबन 350 जाति-उपजाति समूहों में बंटे हुए हैं। करीब पचास प्रतिशत मतदाता यादव, कोयरी और कुर्मी समेत उन सूचीबद्ध 110 जातियों के हैं जिन्हें 'अन्य पिछड़ा वर्ग' अर्थात् 'ओबीसी' कहा जाता है। इस जाति-संजाल के अलावा करीब 130 जाति-उपजाति समूहों की एक अन्य 'सरकारी' छतरीनुमा जमात भी है जिसे 'अत्यंत पिछड़ा वर्ग' यानी 'ईबीसी' कहते हैं। इसमें 'अन्य पिछड़ा वर्ग' की बेहद पिछड़ी रह गई जातियां-उपजातियां शामिल हैं।

कहते हैं कि यह विशाल जमात 22 प्रतिशत के करीब है। बाकी बच्चे मतदाता अनुसूचित जाति (14-16 प्रतिशत), अल्पसंख्यक समुदाय (15-17 प्रतिशत के बीच) और सवर्ण समुदाय/ब्राह्मण-भूमिहार- राजपूत-कायस्थ (14-16 प्रतिशत) के जाति-आधारित मेडल अपने-अपने सीने पर टांके हुए हैं। करीब दो दर्जन से अधिक विधानसभाई क्षेत्र ऐसे हैं जहां अल्पसंख्यकों की आबादी तीस प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसा भी नहीं है कि राज्य की सभी जाति-उपजाति बिरादरियां सुगठित और एकताबद्ध हैं। हर किसी में वर्गीय विभेद की अनेक परते हैं और सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्जाबंदियां हैं।

हर जाति-जमात में संसाधनों और अवसरों को हड़पने वाले और अपने से कमजोर पर अतिचार-अत्याचार करने वाले दबंग और दलाल हैं, वहीं ऐसे संघर्षरत गरीब और मेहनतकश भी हैं जो न केवल दूसरे जाति समूहों, बल्कि अपनी-अपनी जाति के भी दमनकारी व वर्चस्वशाली तत्वों का प्रतिरोध आए दिनों करते हैं। बिहार की राजनीति की एक दिलचस्प विडंबना यह है कि हर जाति-उपजाति के वर्चस्वशाली व दमनकारी तत्व हर राजनीतिक दल में पैठ बनाए हुए हैं।

करीब पांच दशकों से बिहार की जाति-उपजाति समूह नारा बुलंद करते रहे हैं - हमारा कसाई तुम्हारे कसाई से बेहतर - और अपवाद स्वरूप वामपंथी दलों को छोड़ दें, तो लगभग हर राजनीतिक दल इन 'कसाईयों' को अपने-अपने पाले में शामिल करने के लिए हर किस्म का प्रबंधन करता रहा है। अकादमिक शब्दावली में विद्वान लोग इसे ही जातिवाद, अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और संप्रदायवाद की 'प्रतिस्पर्धी राजनीति' कहते हैं। इस विधानसभा चुनाव में भी यह 'प्रतिस्पर्धी राजनीति' परवान पर है।

आईए, अब बिहार की उस आर्थिकी और सामाजिक विकास की हालत पर नजर डालें जो जातीय जकड़बंदियों में फंसे आम लोगों के जीवनाधिकारों को गहरे प्रभावित कर रही है। आजादी के समय बिहार देश के कुल खाद्यान उत्पादन में आठ प्रतिशत का योगदान देता था और औद्योगिक उत्पादन के मामले में देश में चौथे स्थान पर था। उस समय भी बिहार समंदर के किनारे नहीं होकर 'लैंड-लाॅक्ड' ही था। मगर इन सबके बावजूद प्रति व्यक्ति आय के मामले में सबसे नीचे था। 2020 में भी बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में सबसे नीचे है।

कई अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी बिहार को केंद्र का 'आंतरिक उपनिवेश' बताते आए हैं। आमतौर पर यह बात सही है, मगर यह अर्ध-सत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि बिहार न केवल देश के आर्थिक-कारोबारी-राजनीतिक निजाम का 'आंतरिक उपनिवेश' है, बल्कि यह दशकों से अपने यहां मौजूद सामंती और कुलक ताकतों की जागीर भी बना हुआ है। यह ताकतें न सिर्फ 'आजाद' हिंदुस्तान के दिल्ली सल्तनत से लड़ने में परहेज करती हैं, बल्कि अपने प्रदेश के भीतर की उत्पादक शक्तियों को भी कमजोर रखना चाहती हैं।

पिछले करीब पांच दशकों से यही ताकतें बिहार को अवरूद्ध विकास की चपेट में लिए हुए हैं और क्या राजद-कांग्रेस या क्या जद (यू)-भाजपा-कमावेश सारे के सारे ये राजनीतिक दल इन्हीं के रहमोकरम पर जिंदा हैं। चंद शब्दों में कहें तो यही वह सामंती-कुलक-माफिया-अपराधी-भ्रष्ट-अवसरवादी गठजोड़ है जो बिहार के पिछड़ेपन और बदहाली की राजनीतिक आर्थिकी रचता है।

बिहार की हर जाति-बिरादरी की तथा पंथ-मजहब के बच्चे-बच्चियों, छात्र-नौजवानों, मेहनतकशों और महिलाओं को यह राजनीतिक आर्थिकी सौगात-दर-सौगात देती रही है। 1990 के पहले भी सौगात मिलते रहे, 1990 से 2005 तक भी मिले और 2005 से अब तक मिल रहे हैं। सौगातों के इस विशेष पैकेज में है - गरीबी-रोजगार विहीनता-बेरोजगारी, लूट-जोर-जुल्म-दमन-अनाचार-अत्याचार-बलात्कार और न्याय का प्रहसन।

आज की तारीख में जब प्राथमिक तौर पर इस राजनीतिक आर्थिकी और आकस्मिक तौर पर कोरोना प्रकोप के कारण बिहार में बेरोजगारी दर अप्रैल, 2020 के बाद 31.2 प्रतिशत की छलांग लगाकर 46.6 प्रतिशत तक पहुंच गई है, कृषि क्षेत्र में लगे करीब 75 प्रतिशत लोगों की क्रय-शक्ति कम हो गई है, लाखों-लाख सीमांत किसान तबाह हो गए हैं और करीब दो करोड़ भूमिहीन खेतिहर मजदूरों पर आफत आ गया है।

सवाल यह नहीं है कि कौन सा राजनीतिक गठबंधन वादों की रेवड़ियां बांटकर चुनावी जीत हासिल करेगा, असली सवाल यह है कि क्या सचमुच इस चुनाव में बेरोजगार नौजवान, बदहवास मजदूर, बदहाल किसान और मजबूर महिलाएं जातीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उन ताकतों की कब्र खोदेंगे जो बिहार को न्याय, शांति, प्रगति और परिवर्तन के रास्ते पर आगे बढ़ने नहीं देतीं?

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