BJP क्या नीतीश की पार्टी को भी मायावती की तरह मिला देगी मिट्टी में, नहीं रह जायेगा कोई नामलेवा!

बीजेपी किसी भी राज्य में पहले एक सहयोगी ढूंढ़ती है, उसकी राजनीतिक ज़मीन पर अपने पांव जमाती है और फिर उस राजनीतिक ज़मीन को पूरी तरह हड़प जाती है...

Update: 2020-11-20 06:21 GMT

वरिष्ठ पत्रकार सलमान अरशद का विश्लेषण

जनज्वार। बिहार में एक बार फिर NDA की जीत और उसमें बीजेपी की सीटों में बढ़ोत्तरी बिहार और देश की सियासत पर नये सिरे से सोचने को विवश करती है। इस जीत पर बात करते हुए कुछ खास बिन्दुओं पर जरूर चर्चा की जानी चाहिए—

• क्या बीजेपी बिहार में उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र की तर्ज़ पर अपने सहयोगियों की सियासी ज़मीन हड़पने की राह पर है?

• जिस तरह सभी मुख्य जातियों के नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह दी गयी, क्या भारतीय जनता पार्टी जातीय समूहों के बीच भेद को किनारे कर सभी को "हिन्दू" के तौर पर इकट्ठा करने की कोशिश कर रही है?

•क्या देश अभी भी जाति और मज़हब को शिक्षा, सेहत और रोज़गार से ज़्यादा अहमियत देता है?

• क्या वामपंथी पार्टियों में जनता का विश्वास बढ़ रहा है?

•क्या कांग्रेस सियासी मौत की और अग्रसर है?

इन सभी बिन्दुओं पर चर्चा थोड़े विस्तार से करते हैं। बीजेपी किसी भी राज्य में पहले एक सहयोगी ढूंढ़ती है, उसकी राजनीतिक ज़मीन पर अपने पांव जमाती है और फिर उस राजनीतिक ज़मीन को पूरी तरह हड़प जाती है। इसे हम सामान रूप से महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तर प्रदेश में देख चुके हैं और बिहार में जिस तरह JDU को कमज़ोर किया गया है, इसमें वही पैटर्न दिखाई देता है।

हालाँकि शिवसेना ने अपने दम पर सँभलने का प्रयास शुरू कर दिया है, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है। बिहार की सियासत में भी ऐसा नहीं होगा, कहा नहीं जा सकता।

उत्तर प्रदेश में बसपा के सहयोग से बीजेपी ने राजनीतिक ताकत हासिल की और आज बसपा की क्या हैसियत है हम सब देख रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती की गतिविधियों को गौर से देखिये तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वो इन्सान नहीं बल्कि एक रोबोट हों और उन्हें कोई रिमोट कंट्रोल से चला रहा हो। अगर उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भारतीय जनता पार्टी को सफलता मिलती है तो JDU भी बसपा की ही तरह ख़त्म हो सकता है।

बीजेपी सवर्ण हिन्दुओं की सत्ता के लिए सियासत में हैं, बिहार की धरती पर लम्बे समय तक सवर्ण हिन्दू दलितों का शोषण करते रहे हैं और आज भी इस स्थिति में कोई बड़ा सुधार नहीं हो सका है। लालू यादव को खासतौर पर इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आवाज़ दी।

अगर बिहार मंत्रिमंडल को ध्यान से देखा जाये तो हम पाएंगे कि सभी छोटी-बड़ी जातियों के नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह देने की कोशिश की गयी है। बिहार एक ऐसा राज्य है जो प्रशासन के मामले में बेहद कमज़ोर है, सरंचनात्मक ढांचा बुरी तरह चरमराया हुआ है। ऐसे में जनता तक विकास कितना पहुंचेगा, कहना मुश्किल है। उदाहरण के लिए बिहार के उत्तरी सीमावर्ती इलाके में हर साल बाढ़ आती है, इस विभीषिका से निबटने के लिए भारी मात्रा में सरकारी धन आवंटित होता है, लेकिन इस धन का कहाँ और कैसा उपयोग होता है, ये अपने आप में जांच का विषय है। साल दर साल बाढ़ की मार में कोई कमी नहीं आती और सत्ता किसी की भी हो जनता की परेशानी बढती ही जाती है।

ये तो एक पहलू है, लेकिन ये भी सच्चाई है कि दलितों का बड़ा समूह पिछले कुछ सालों में बीजेपी के वोटर और सपोर्टर में तब्दील हुआ है। दलित भी अब मुसलमानों को "दूसरा" की श्रेणी में रख चुका है। इसे देखने के लिए पिछले कुछ सालों में साम्प्रदायिक झड़पों को देखना चाहिए जिसमें दलित नवजवानों की सहभागिता बढ़ी है। दिल्ली दंगों में भी जो दिल्ली के आसपास के नौजवान शामिल हुए वो भी दलित और पिछड़े समुदायों से सम्बंधित बताये जा रहे हैं।

हालाँकि ये गहरे छानबीन का विषय है, लेकिन मीडिया के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए ऐसे किसी छानबीन की उम्मीद कम ही है; मंत्रिमंडल के स्वरूप को देखते हुए ये बात तो साफ़ नज़र आती है कि आने वाले दिनों में जातीय समूहों के बीच का भेद भले बरक़रार रहे, एक "हिन्दू समूह" के रूप में इनकी एक सियासी गोलबंदी जरूर होगी। यहाँ ये भी ध्यान रखना होगा कि बीजेपी के साथ आये जातीय नेताओं की ताकत चाहे जितनी बढ़ी हो उनकी वजह से उस समाज को कोई लाभ नहीं हुआ है, जिनका प्रतिनिधि आमतौर पर उन्हें माना जाता है।

मिसाल के तौर पर श्री रामविलास पासवान, मायावती या ऐसे ही दूसरें नेताओं को देखा जा सकता है। इस तरह सभी जातियों का एक "हिन्दू समूह" के रूप में एकत्रित होना बीजेपी के लिए चाहे जितना लाभकारी हो, इन जातीय समूहों का इसमें कोई लाभ नहीं होने वाला।

महागठबंधन की ओर से रोज़गार को मुद्दा बनाना एक कामयाब सियासी कदम के रूप में देखा गया और बड़े पैमाने पर नवजवानों ने महागठबंधन को वोट भी किया। हार जीत के बीच इतने मामूली अंतर के मामले में निश्चित रूप से रोज़गार के मुद्दे का अहम् रोल रहा है।

यहाँ EVM और अफसरों के ज़रीय बेईमानी की भी बात आई है, थोड़ी देर के लिए मान लिया जाये की ऐसी कोई बेईमानी हुई है तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हार जीत का अंतर कम ही था, इसलिए "हेराफेरी" संभव हो पाया। अगर यही अंतर 10 हज़ार या इससे ज़्यादा होता तो ये हेराफेरी संभव न होती। यानी कि कोरोना, GST, नोट्बंदी, दो करोड़ रोज़गार आदि जैसे मामलों में पूरी तरह फेल NDA की सरकार का जनता ने पूरी तरह तिरस्कार नहीं किया।

नीतीश सरकार ने सड़क और बिजली के क्षेत्र में काम को जनता ने भुलाया नहीं है। इसके साथ ही पूरी तरह से मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित क्षेत्रों में भी काम किया है, जिसके कारण बीजेपी के साथ होने के बावजूद भी बड़ी संख्या में मुसलमान नीतीश कुमार के साथ आज भी हैं।

इस सबके बावजूद एक बात बिलकुल साफ़ है कि सियासत में जीवन से जुड़े मुद्दे लगातार गौण होते जा रहे हैं। शिक्षा, सेहत और रोज़गार किसी भी सरकार के लिए न्यूनतम जिम्मेदारी के क्षेत्र हैं, बावजूद इसके इन मुद्दों पर लम्बे समय से चुनाव नहीं लड़े जा रहे हैं। पिछले कई चुनावों में ये मुद्दे लगभग अनुपस्थित रहे। महागठबंधन द्वारा रोज़गार को चुनावी मुद्दा बनाया गया तो NDA ने पहले तो इसका उपहास किया, लेकिन जनदबाव में उसे भी अपने वादों में रोज़गार को शामिल करना पड़ा। पूरे चुनावी अभियान में रोज़गार का मुद्दा मुख्य मुद्दा बना रहा है, लेकिन यहीं ये बहुत बड़ा सवाल है कि फिर भी बड़े पैमाने पर जनता ने महागठबंधन को समर्थन क्यूँ नहीं दिया?

इस पहलू को दो तरह से देखा जा सकता है, वही गिलास आधा भरा है या आधा खाली है। हालांकि बीजेपी का सीटों में इज़ाफा हुआ है लेकिन साथ ही साथ महागठबंधन भी मज़बूत हुआ है। जनसरोकार के मुद्दों पर अगर चुनाव हो और सेक्युलर ताकतें मिलकर लड़ें तो बीजेपी उतनी भी ताकतवर नहीं है जितनी दिखाई देती है।

जिस तरह रोज़गार के मुद्दे को चुनावी मुद्दों में केन्द्रीय जगह मिली है उससे एक बात बिलकुल साफ़ है कि अगर सही विकल्प मिले तो जनता जाति और धर्म की सियासत से बाहर आना चाहती है। इसके साथ ही ये भी एक सच्चाई है कि बीजेपी या यूँ कहें कि दक्षिणपंथी सियासत अभी भी कहीं से भी कमज़ोर नहीं हुई है। अगर जनसरोकार की सियासत अपनी ताकत नहीं बढ़ाती तो ये सियासत भस्मासुर बन देश को लील जाएगी।

वामपंथी सियासत में जनता का विश्वास बढ़ता हुआ नज़र आ रहा है। हालांकि आलोचक इसे राजद और कांग्रेस के वोटर्स के सपोर्ट का परिणाम मान रहे हैं, लेकिन अगर इसे सही मान भी लिया जाये तो भी ये एक सच्चाई है कि वामपंथी पार्टियों के वोटर्स का सपोर्ट भी गठबंधन को मिला है।

दरअसल ये आलोचना ही बेमानी है क्यूंकि मुद्दा आधारित राजनीति में पार्टियों के साथ ही मुद्दे भी बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं, लेकिन वामपथी पार्टियों के लिए ये एक शानदार मौका है कि वो जनता के मुद्दों के साथ संघर्षों में कोई कमी न आने दें, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हार्ड और सॉफ्ट हिंदुत्व की सियासत में उलझी सभी मध्यमार्गी पार्टियाँ जनता का विश्वास खोती जाएँगी ऐसे में वामपंथी पार्टियाँ भविष्य में दक्षिणपंथी सियासत का एक मज़बूत विकल्प होंगी।

आज की तारीख में कांग्रेस एक भ्रमित पार्टी के रूप में नज़र आती है। हालांकि देशभर में उनका बुनियादी स्ट्रक्चर आज भी मौजूद है, महज़ कुछ सालों के संघर्ष से ये पार्टी दुबारा एक ताकतवर देशव्यापी पार्टी के रूप में उभर सकती है, लेकिन 2014 से अब तक के सभी चुनावों में कांग्रेस पार्टी की लड़ाई से ऐसी कोई उम्मीद बंधती नज़र नहीं आती।

संघ ने देश और हिंदुत्व को एक दूसरे का पर्याय बनाने की कोशिश की और इसमें किसी हद तक उन्हें सफलता भी मिली। इसे तोड़ने की ज़रूरत है, लेकिन कांग्रेस संघ की ही ज़मीन पर सियासत करते हुए उससे मुकाबला करने की कोशिश कर रही है. इससे उसे बाज़ आना होगा। बिहार के इस चुनाव ने सकारात्मक सियासत के लिए उम्मीद जगाई है, अगर जनसरोकार के मुद्दों पर सियासत होगी तो जनता का समर्थन मिलेगा, इस सबक से सबसे ज़्यादा फायदा उठाने में कांग्रेस ही सक्षम है, अब ये भविष्य बतायेगा कि कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की सियासत को छोड़ने का मोह और रिस्क ले पायेगी या हिंदुत्व की सियासत में डूब कर मर जाएगी।

एक अंतिम बात, भारत का मुसलमान आज तक जातीय और धार्मिक गोलबंदी से बाहर रहकर सेक्युलर तरीके से अपने वोट का प्रयोग करता रहा है। सबसे लम्बे समय तक उसने कांग्रेस पर भरोसा किया और जब कांग्रेस कमज़ोर हुई तो उसने क्षेत्रीय पार्टियों की और रुख किया, लेकिन साम्प्रदायिक आधार अपर वोट देने के आरोप से आज तक मुसलमान बचा रहा है।

ओवैसी की पार्टी AIMIM के आने बाद इस स्थिति में बदलाव होता हुआ नज़र आ रहा है। AIMIM सिर्फ़ 5 सीट जीत पायी है और किसी भी राज्य की स्थिति ऐसी नहीं है कि वो अपने बूते पर कहीं भी सरकार बना सके, लेकिन मजलिस के झंडे के नीचे इकट्ठा होता हुआ मुसलमान बीजेपी की ताकत बनेगा, जो लोग मजलिस की वकालत कर रहे हैं उन्हें ये भी सोचना बड़ेगा कि अगर मुसलमानों को की एकता सिर्फ़ मुसलमान होने के नाते महत्वपूर्ण है तो हिन्दुओं की एकता सिर्फ़ हिन्दू होने के नाते कैसे महत्वपूर्ण नहीं है!

ये दोनों तरह की एकता हो जाये तो बीजेपी देश में अजेय हो जाएगी, लेकिन फिर वही सवाल कि बीजेपी को रोकने का जिम्मा क्या सिर्फ़ मुसलमानों का है, इसका ज़वाब उन सभी पार्टियों को देना है जो खुद को सेक्युलर सियासत का आलमबरदार कहती है।

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