Congress Leadership Crisis : कमजोर कांग्रेस एक राजनीतिक सच्चाई है, ठीकरा नेतृत्व के सिर पर

Congress Leadership Crisis : सवाल है, क्या काग्रेस कमजोर ही होती जायेगी? हाल में उदयपुर में राज्य सरकार के आतिथ्य में आयोजित उनका चिंतन शिविर राजनीतिक पिकनिक का आभास ज्यादा देता है न कि किसी राजनीतिक संघर्ष की तैयारी का.....

Update: 2022-05-20 05:30 GMT

Congress Leadership Crisis : कमजोर कांग्रेस एक राजनीतिक सच्चाई है, ठीकरा नेतृत्व के सिर पर

पूर्व आईपीएस वी.एन.राय की टिप्पणी

Congress Leadership Crisis : 2014 के लोकसभा चुनाव से कांग्रेस (Congress) की चुनावी हार का रोलर-कोस्टर सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता दिख रहा। पारिवारिक नेतृत्व की पंजीरी बांटने की क्षमता कमतर होते जाने से पार्टी पर भी उनकी पकड़ ढीली पड़नी स्वाभाविक था। इस दौरान भाजपा (BJP) का अपनी उत्तरोत्तर वृद्धि को लेकर प्रायोजित शोर जो भी रहा हो, वह भी सर्वांगीण मजबूत पार्टी नहीं हो सकी है। देश का राजनीतिक नक्शा जो मुख्यतः कांग्रेस की कीमत पर बदलता गया है, उसका मोटा-मोटा स्टेटस कुछ इस तरह से बन पड़ा है-

1. जहां भी भाजपा की प्रमुख टक्कर में कांग्रेस रही, भाजपा येन-केन-प्रकारेण जीती/मजबूत हुयी। कांग्रेस कहीं-कहीं जीती भी तो डांवाडोल रही। इसमें छत्तीसगढ़ एक अपवाद रहा; वहां दो-पार्टी संघर्ष में रमण सिंह की भाजपा सरकार अपनी बेहद भ्रष्ट इन्कमबैंसी का आसान चुनावी शिकार बनी।

2. जहां भाजपा का मुकाबला संगठित क्षेत्रीय दलों से हुआ, भाजपा हारी/टिक नहीं सकी। बिहार में गठबंधन उसे संभाल गया जबकि महाराष्ट्र में गच्चा दे गया। इसमें भी उत्तर प्रदेश एक अपवाद रहा जहां अखिलेश यादव के पूर्ववर्ती माफिया राज का हौव्वा योगी सरकार की वापसी में अपना योगदान दे गया।

3. जबकि बंगाल, ओडिसा, तमिलनाडु, केरल, आंध्र, तेलंगाना, दिल्ली, पंजाब में, जहां संगठित क्षेत्रीय दलों का बोलबाला था, भाजपा के पैर नहीं टिकने पाये।

क्या चुनाव-दर-चुनाव बनते इस राजनीतिक नक़्शे को सूत्रवत समझा जा सकता है? हां, यह संभव है। दरअसल, तीन आयाम चिह्नित किये जा सकते हैं जो किसी राजनीतिक दल को चुनावी संघर्ष में विजय के मुहाने पर खड़ा रखते हैं। ये हैं - पार्टी का एक दम-ख़म भरे वोटर वर्ग को आकर्षित करने वाला राजनीतिक प्रोफाइल, पार्टी का जमीनी पैंठ रखने वाला मजबूत संगठन और पार्टी की सरकार का जन-स्वीकार्य गवर्नेंस प्रोफाइल। चुनावी जीत के लिए इनमें से कम से कम किन्हीं दो का अच्छा होना जरूरी हो जाता है, तीसरा भी कामचलाऊ तो होना ही चाहिए। इस त्रि-आयामी समीकरण के पैमाने पर कसने से राजनीतिक दलों की वर्तमान चुनावी तस्वीर कुछ इस तरह से निकलती दिखेगी-

1. भाजपा का राजनीतिक प्रोफाइल और संगठन दमदार रहे हैं। हालांकि, मोदी ढोल के शोर के बावजूद गवर्नेंस में अच्छा प्रदर्शन कर पाना उनके लिए अधिकांशतः सहज नहीं हो सका।

2. कांग्रेस का राजनीतिक प्रोफाइल, उनकी ऐतिहासिक विरासत के चलते, अब भी मजबूत ही माना जाएगा। लेकिन उनका संगठन या तो बस व्यक्ति आधारित बचा है या एकदम नदारद है। पार्टी का एक बहुत बड़ा हैंडीकैप रहा कि जिन राज्यों में उनकी सरकार रही हैं, वे गवर्नेंस में भाजपा के भ्रष्ट कार्पोरेट शासन से इतर कुछ भी ख़ास नहीं दिखा सके हैं।

3. राज्य सरकार बना पाने में सफल रहे हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल का राजनीतिक प्रोफाइल और पार्टी संगठन बेहद संगठित मिलेंगे। गवर्नेंस में भी सिंगिल इंजिन की ये सरकारें वोटर के प्रति अधिक तत्पर और संवेदनशील सिद्ध हुयीं।

4. 'आप' (Aam Aadmi Party) का राजनीतिक प्रोफाइल ढुलमुल है लेकिन उन्होंने इसकी कसर अपनी पार्टी संगठन को जमीन पर दृढ़ता से टिका कर पूरी की है। चुनावी विजय समीकरण का तीसरा आयाम यानी दिल्ली में गुड गवर्नेंस, पंजाब चुनाव में उनकी यूएसपी सिद्ध हो चुका है। यदि वे पंजाब में गुड गवर्नेंस के झंडे गाड़ सकें, जो दिल्ली के मुकाबले कई गुणा कठिन कार्यभार होगा, तो और बड़ी चुनावी सफलताएं उनकी राह देख रही हैं।

सवाल है, क्या काग्रेस कमजोर ही होती जायेगी? हाल में उदयपुर में राज्य सरकार के आतिथ्य में आयोजित उनका चिंतन शिविर राजनीतिक पिकनिक का आभास ज्यादा देता है न कि किसी राजनीतिक संघर्ष की तैयारी का। उनके पास विकल्प और समय दोनों सीमित हैं। वे नेतृत्व (Congress Leadership Crisis) में फेरबदल नहीं कर सकते, न संगठन को मजबूत कर सकते हैं। ले दे कर उनके पास 'आप' (AAP) की तरह गुड गवर्नेंस के नाम पर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कुछ बेहद जन-स्वीकार्य कर गुजरने का रास्ता ही बचता है। क्या वे रोजगार, मंहगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, पानी, बिजली जैसे क्षेत्रों में ऐसी कोई जन-पहल कर सकते हैं? उनका भ्रष्ट और आरामतलब ट्रैक रिकॉर्ड खास उम्मीद नहीं जगाता।

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