Nobel Prize 2021 : इथियोपिया के लेखक को 2021 का नोबेल साहित्य पुरस्कार, अपने उपन्यासों में दिखाया विस्थापितों का दर्द

Nobel Prize 2021 : अब्दुलरजाक गुरनाह को यह पुरस्कार उपनिवेशवाद की भयावहता दर्शाने और विस्थापितों और शरणार्थियों (Migrants & Refugees) के कठिन जीवन और संस्कृति दर्शाने के लिए दिया गया है....

Update: 2021-10-08 16:00 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। वर्ष 2021 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize for Literature) इथियोपियाई मूल के, पर अब यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) में बस चुके लेखक अब्दुलरजाक गुरनाह (Abdulrazak Gurnah) को दिए जाने की घोषणा की गयी है। अब्दुलरजाक गुरनाह को यह पुरस्कार उपनिवेशवाद की भयावहता (Effects Of Colonialism) दर्शाने और विस्थापितों और शरणार्थियों (Migrants & Refugees) के कठिन जीवन और संस्कृति दर्शाने के लिए दिया गया है। उन्होंने अब तक 10 उपन्यास और अनेक लघुकथाएं लिखे हैं और उनकी सभी रचनाएं विस्थापित जीवन (displacement) के इर्दगिर्द केन्द्रित रहती हैं।

वर्ष 1986 में नाइजीरिया के लेखक और नाटककार वोल सोयिंका (Wole Soyinka) के बाद अब्दुलरजाक गुरनाह दूसरे अफ्रीकी अश्वेत (Black African) लेखक हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है। अब्दुलरजाक गुरनाह से पहले साहित्य में अश्वेत लेखिका अमेरिका की कवि टोनी मोरिसन (Toni Morrison) को वर्ष 1993 में नोबेल पुरस्कार मिला था। अब तक साहित्य के क्षेत्र में कुल 118 नोबेल पुरस्कार दिये गए हैं, जिनमें से केवल 16 महिलायें हैं, और इनमें भी वर्ष 2000 के बाद 7 महिलाओं को पुरस्कार दिए गए हैं।

अब तक दिए गए पुरस्कारों में से 95 या 80 प्रतिशत से भी अधिक बार यह अमेरिकी या फिर यूरोप के लेखकों को मिला है, यदि दूसरे देशों से आकर इन देशों में बसने वाले पुरस्कार-प्राप्त लेखकों की संख्या भी जोड़ दी जाए तब अमेरिका और यूरोप के हिस्से 98 प्रतिशत पुरस्कार हैं। अब्दुलरजाक गुरनाह भी वर्ष 1960 से यूनाइटेड किंगडम में बसे हैं। वर्ष 2019 में पुरस्कारों की घोषण करने वाली स्वीडिश अकादमी (Swedish Academy) ने कहा था कि अब महिलाओं और अश्वेतों की पुरस्कारों में उपेक्षा नहीं की जायेगी, और अमेरिका/यूरोप के बाहर के लेखकों को भी प्राथमिकता दी जायेगी।

पिछले वर्ष का नोबेल साहित्य पुरस्कार 77 वर्षीया लोकप्रिय अमेरिकी कवियित्री लौइसे ग्लूक (Louise Gluck) को दिया गया था। पिछले तीन वर्षों से साहित्य के नोबेल पुरस्कारों पर लगातार विवाद चल रहा था, पर पिछले वर्ष यह विवादों से परे रहा। लौइसे ग्लूक को यह पुरस्कार उनकी कविता की ऐसी शैली के लिए दिया गया था जिसकी सीधी-सादी खूबसूरती किसी के अस्तित्व को सार्वभौमिक बना देने में सक्षम है। ग्लूक नोबेल साहित्य पुरस्कार जीतने वाली 16वीं महिला थीं, इससे पहले वर्ष 1993 में यह पुरस्कार टोनी मोर्रिसन को दिया गया था, और 27 वर्षों बाद किसी अमेरिकी लेखक को यह पुरस्कार मिला था। उनकी कविताओं में बचपन की यादें, पारिवारिक जीवन और ग्रीक तथा रोमन दंतकथाओं की बहुलता रहती है। लौइसे ग्लूक के 12 काव्य संग्रह अबतक प्रकाशित हो चुके हैं और वर्तमान में वे अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी में अंगरेजी की प्रोफ़ेसर हैं।

अब्दुलरजाक गुरनाह का जन्म वर्ष 1948 में जंजीबार (Zanzibar) के एक द्वीप पर हुआ था, और 1960 से जब वहां उपनिवेशवाद के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए और सामान्य जनजीवन अस्तव्यस्त होने लगा तब वे यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) आ गए और यहीं बस गए। इन्हें अफ्रीका के जीवित साहित्यकारों में शीर्ष पर माना जाता है, और विस्थापन का दर्द इनकी विशेषता है। उपनिवेशवाद के साथ ही अब्दुलरजाक गुरनाह विस्थापन का दर्द स्वयं झेल चुके हैं, और इसी अनुभव को वह उपन्यासों और लघु कथाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुचाते हैं।

अब्दुलरजाक गुरनाह दो बार अपने उपन्यासों के लिए ब्रूकर प्राइज के लिए शोर्टलिस्टेड किये गए, पर पुरस्कार नहीं मिला। अब्दुलरजाक गुरनाह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि विस्थापन के दर्द पर भी उनके उपन्यास रोचक होते हैं, और पूर्वी अफ्रीका के सांस्कृतिक विरासत (cultural heritage) को समेटे रहते हैं। इनका पहला उपन्यास, मेमोरी ऑफ़ डीपार्चर (Memory of Departure) वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ था और अंतिम उपन्यास, आफ्टरलाइफ (Afterlife), वर्ष 2020 में। पिछले वर्ष रिटायर होने के पहले तक अब्दुलरजाक गुरनाह यूनाइटेड किंगडम के यूनिवर्सिटी ऑफ़ केंट में इंग्लिश और पोस्ट-कोलोनियल लिटरेचर के प्रोफेसर (Retired Professor of English & Post-Colonial Literature) थे।

अब्दुलरजाक गुरनाह का साहित्य विस्थापन के इर्द-गिर्द घूमता है, और यह ऐसा विषय है जिसकी प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि कभी विस्थापन ख़त्म नहीं होगा। लगातार हरेक वर्ष विस्थापितों और शरणार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है और अब तो केवल एक देश से दूसरे में ही नहीं बल्कि देशों के भीतर भी विस्थापन एक गंभीर चुनौती बन रहा है। इस बार के साहित्य के नोबेल पुरस्कार के बाद शायद दुनिया का नजरिया विस्थापितों के प्रति थोड़ा उदार हो जाए।

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