हमारे देश में हरेक आंदोनलकारी सत्ता और पुलिस की नजर में देशद्रोही, चाहे वह देश का नाम ही क्यों न कर रहा हो रोशन

फ्रांस में 17 वर्ष के बच्चे की मृत्यु पुलिस वालों की गोली से हो जाती है तो पूरा फ्रांस सड़क पर उतर जाता है। दूसरी तरफ हमारे देश में किसी को पुलिस वाले मार डालते हैं, तब सत्ता-समर्थक जश्न मनाते हैं, मीडिया उसे आतंकवादी और देशद्रोही करार देती है, सोशल मीडिया पर पूरी एक धर्म के बारे में हिंसा भड़काई जाती है ....

Update: 2023-07-10 08:40 GMT

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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Strategic use of non-violent disruptive tactics makes a social movement successful. ऐसे अहिंसक आन्दोलन जो सामान्य जनता की रोजमर्रा की जिन्दगी को प्रभावित करते हैं – जैसे सड़कों को अवरुद्ध करना, सरकारी कार्यालयों में प्रवेश को रोकना, सांस्कृतिक या खेल समारोहों में बाधा पहुँचना, बाजारों का मार्ग अवरुद्ध करना – जनता, सत्ता और मीडिया की नजर में भले ही बेकार के हों, पर आन्दोलन विशेषज्ञों की नजर में ऐसे तरीके ही आन्दोलनों को सफल बनाते हैं।

अधिकतर विशेषज्ञों के अनुसार किसी आन्दोलन को सफल बनाने का यही सबसे प्रभावी तरीका है। आन्दोलन विशेषज्ञों का यह सर्वेक्षण यूनाइटेड किंगडम स्थित आन्दोलनों पर अध्ययन करने वाली संस्था सोशल चेंज लैब ने करवाया है। सोशल चेंज लैब के लिए इस सर्वेक्षण को शिक्षाविदों के बीच सर्वेक्षण करने वाली सस्था, अपोलो सर्वेज, ने किया है। इसने यूरोप के 120 आन्दोलन विशेषज्ञों से सर्वेक्षण में सवाल पूछा था, कि किसी आन्दोलन को सफल बनाने का सबसे प्रभावी तरीका क्या है?

हमारे देश के लोगों को आन्दोलनों के बारे में समझना कठिन है, क्योंकि यहाँ सामाजिक या आर्थिक विषयों पर आन्दोलन ही नहीं होते। हमारे देश में पिछले 50 वर्षों के दौरान तीन बड़े और राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन हुए हैं – जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन, अन्ना हजारे का आन्दोलन और किसानों का आन्दोलन। इसमें से पहले दो आन्दोलन कांग्रेस के सत्ता पर एकाधिकार, निरंकुश सत्ता और भ्रष्टाचार के विरुद्ध थे। दोनों ही आन्दोलनों के साथ देश की जनता जुड़ी और इन आन्दोलनों की शुरुआत भी एक स्पष्ट उद्देश्य को लेकर हुई। फिर ये आन्दोलन सत्ता पर काबिज होने के लिए चलाये गए।

जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद हिन्दू राष्ट्र और सामाजिक ध्रुवीकरण वाली बीजेपी सत्ता का एक हिस्सा बनी और अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद तो पूरी तरह सत्ता पर काबिज ही हो गयी। इन दोनों आन्दोलनों के जो उद्देश्य थे, और जनता जिन समस्याओं से छुटकारा पाना चाहती थी – वही समस्याएं अब पहले से व्यापक बनकर जनता के सामने खड़ी हैं। कुल मिलाकर आन्दोलनों का नाटक करने वाले और सड़कों पर संघर्ष का दिखावा करने वाले सभी सत्ता का सुख भोग रहे हैं और एक जीवंत प्रजातंत्र को निरंकुश सत्ता में बदल दिया। जाहिर है, ऐसी सत्ता के काबिज होने के बाद आन्दोलनों को कुचला गया, झूठे आश्वासन देकर उन्हें ख़त्म कराया गया और अब तो जनता आन्दोलन करना ही भूल गयी है।

फ्रांस में 17 वर्ष के बच्चे की मृत्यु पुलिस वालों की गोली से हो जाती है तो पूरा फ्रांस सड़क पर उतर जाता है। दूसरी तरफ हमारे देश में किसी को पुलिस वाले मार डालते हैं, तब सत्ता-समर्थक जश्न मनाते हैं, मीडिया उसे आतंकवादी और देशद्रोही करार देती है, सोशल मीडिया पर पूरी एक धर्म के बारे में हिंसा भड़काई जाती है और सत्ता पुलिसवालों को अगली हत्या के लिए बढ़ावा देते हैं और इन सबके बीच देश की बेरोजगार और भूखी जनता अगले शाम पेट भरने के इंतजाम में व्यस्त रहती है। हमारे देश में हरेक आन्दोलनकारी, भले ही वह देश का नाम बढ़ा रहा हो, सत्ता और पुलिस की नजर में देशद्रोही ही है।

यूनाइटेड किंगडम में पिछले कुछ वर्षों से लगातार जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकार की नाकामी को लेकर जनता के रोजमर्रा की जिन्दगी को बाधित करने वाले शांतिपूर्ण आन्दोलन किये जा रहे हैं। इनमें से अनेक आन्दोलनकारी संगठनों ने स्पष्ट तौर पर बताया कि उनकी प्रेरणा महात्मा गांधी का असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन है। आन्दोलानकारियों द्वारा सड़कों और पुलों के अवरुद्ध करने, सरकारे कार्यालयों में प्रवेश करने में बाधा पहुंचाने, बड़े खेल समारोहों में बाधा पहुंचाने से जनता प्रभावित हो रही है और आन्दोलनकारियों को पुलिस, मीडिया और सत्ता के साथ मिलकर कोस भी रही है। फरवरी में यूनाइटेड किंगडम में कराये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 78 प्रतिशत जनता मानती है कि जनता को परेशान करने वाली गतिविधियों से आन्दोलन को जनता का सहयोग नहीं मिलता और आन्दोलन का उद्देश्य पूरा नहीं होता।

सोशल चेज लैब के निदेशक जेम्स ओज्दें ने कहा है कि इस अध्ययन के नतीजे चौकाने वाले हैं, क्योंकि ये नतीजे जनता और मीडिया के विचारों के बिलकुल विपरीत हैं। पर, 70 प्रतिशत से अधिक आन्दोलन विशेषज्ञों ने इसी तरीके को किसी आन्दोलन की सफलता का सबसे बड़ा करण बताया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलनों के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है और इसका विश्लेषण कभी व्यापक तरीके से नहीं किया जाता।

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