पूंजीपतियों के हाथों में खेती जाने से देहातों में अपराधीकरण की नई सुनामी आएगी
नए कृषि कानूनों से कॉर्पोरेट कृषि को बढावा मिलने और गांव के किसानों-मजदूरों का खेती पर नियंत्रण कम होता जाएगा और बेरोजगारों का एक ऐसा झुंड तैयार होगा जिससे अपराधीकरण को बढावा मिलेगा। पढिए पूर्व आइपीएस वीएन राय का उदारीकरण के दौर से तुलना करता हुआ कृषि कानून पर यह अनुभव आधारित विशेष आलेख...
पूर्व आईपीएस वीएन राय की टिप्पणी
मोदी सरकार के कृषि कानूनों की वापसी पर सहमति न बन पाने से दिल्ली की किसान घेरेबंदी कसती जा रही है। इस आंदोलन में देश भर के किसानों का प्रतिनिधित्व बेशक है लेकिन अगली पंक्ति में पंजाब के सिख किसान जत्थे ही दिखते हैं। सरकार ने फिलहाल धैर्य दिखाया है लेकिन मोदी समर्थक मीडिया में उन्हें खालिस्तानी तक कहा गया। याद कीजिये, 28 वर्ष पूर्व नवंबर 1982 में तत्कालीन केंद्र सरकार से वार्ता टूटने के बाद, लोंगोवाल अकाली दल का धर्म युद्ध मोर्चा एशियाड गेम्स में बाधा डालने का एजेंडा लेकर दिल्ली प्रवेश में असफल रहा था। उन्हें हरियाणा में बलपूर्वक अपमानित कर रोक दिया गया था जो पंजाब में एक दशक के खूनी दौर का शुरुआती अध्याय सिद्ध हुआ। समय बताएगा, इस इतिहास से सबक लिया गया या नहीं।
लगता है, धोखाधड़ी से लाये तीन कृषि कानूनों के पुरजोर विरोध की गहमागहमी में तीन महत्वपूर्ण पहलू बहस से छूट गए हैं। 1. कॉर्पोरेट कृषि से जुड़े तमाम आयामों का वित्त पोषण कहाँ से होने जा रहा है? जाहिर है, प्रारंभिक वर्षों में निवेश की जाने वाली राशि बहुत बड़ी होगी और सरकार के पास भी कॉर्पोरेट के लिए अथाह पैसा नहीं होगा। 2. हरित कृषि बाजार से कॉर्पोरेट कृषि बाजार के अनुरूप ढलने के क्रम में संभावित सामाजिक परिवर्तन क्या होंगे? विशेषकर आंतरिक विस्थापन और पारिवारिक संरचना को लेकर। 3. क्या कॉर्पोरेट कृषि परिदृश्य की असुरक्षा में देहात के युवाओं के बीच अपराधीकरण की एक नयी सुनामी नहीं आएगी?
श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने में फलीभूत हुई हरित क्रांति में उन्नत बीज, रासायनिक खाद, भूमिगत जल दोहन और यंत्रीकरण के समानांतर उस दौर के बैंक राष्ट्रीयकरण की भी महती भूमिका रही। इसने पहली बार किसानी में पूंजी निवेश के रास्ते खोल दिए थे और साथ ही किसान के एक वर्ग को संपन्न बनाने और देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होने के भी। आज, कॉर्पोरेट कृषि के तमाम समर्थक श्रीमान नरेंद्र मोदी के कृषि कानूनों को दूसरी कृषि क्रान्ति का जनक बता रहे हैं। यह आकस्मिक नहीं कि इन कृषि कानूनों को लागू करने के समानांतर ही, कृषि मुनाफा हड़पने की इस अभूतपूर्व कवायद में, वांछित पूंजी निवेश के लिए कॉर्पोरेट को निजी बैंक खोलने की सुविधा भी प्रस्तावित है।
यह भी आकस्मिक नहीं कि कॉर्पोरेट कृषि का सड़कों पर मुखर विरोध कर पाने में हरित क्रांति से मजबूत हुआ किसान वर्ग आगे है। लेकिन मोदी सरकार अगर उनसे वार्तालाप करने को विवश हो रही है तो वह इसलिए कि देश भर में कोई भी किसान तबका, यहाँ तक कि आरएसएस का किसान संगठन भी, उसके कृषि कानूनों के समर्थन में आगे नहीं आया। यानी, राष्ट्रीय राजनीति फिलहाल इस अंधी गति से कॉर्पोरेट कृषि नीति से कदमताल को तैयार नहीं दिखती।
क्या समाज तैयार है? हरित क्रांति से बल पायी बाजार व्यवस्था ने देहात में युवाओं के शहरी विस्थापन और संयुक्त परिवार विखंडन की जमीन तैयार की, कॉर्पोरेट कृषि का कॉन्ट्रैक्ट चरित्र और बंधक बाजार इसे अगले चरण में ले जायेगा। शायद मानव तस्करी को क़ानूनी मान्यता दिलाने और परिवार विहीनता को स्थापित कराने की हद तक! दुनिया भर में इस व्यवस्था का अनुभव बताता है कि यह राम राज्य की दिशा में तो नहीं ही जायेगी।
बाजार के चरित्र का अपराधीकरण से क्या संबंध है। इस पर कम बात होती है। क्योंकि, अपराध को नैतिक या क़ानूनी उल्लंघन के रूप में देखने की आम रवायत है न कि समाज के वित्तीय ताने-बाने में बदलाव के संदर्भ में। इस नजरिये से कॉर्पोरेट कृषि व्यवस्था के संभावित प्रभाव को आंकने के लिए पारंपरिक खेती से हरित खेती में बदलने के दौर के आपराधिक परिदृश्य की यह एक झलक देखिये।
1986 में मैं रोहतक का एसपी होता था, अभी देहाती समाज का पारंपरिक मिजाज सलामत था। कई बार ऐसा हुआ कि शाम के समय सरकारी बस में लड़कियों से हुड़दंग करते शोहदों को ड्राइवर.कंडक्टर अपनी बस में ही घेर कर एसपी निवास पर ले आते कि पुलिस उनका इलाज करे और दूसरों को भी सबक हो। 2005 में मैं रोहतक रेंज का आईजी लगा। तब तक जमीनी तस्वीर इतनी बदल चुकी थी कि गाँव की लड़की का देह व्यापार में लिप्त मिलना और उसी गाँव से ग्राहक का भी होना कोई बड़ा रहस्य नहीं रह गए थे।
नब्बे के दशक में आये उदारीकरण के दौर ने हरियाणा के ऐसे तमाम गांवों में बुग्गी ब्रिगेड के रूप में खेती से विमुख बेरोजगारों के आवारा झुण्ड पैदा कर दिए थे। पंजाब के गांवों में भी इस दौरान उत्तरोत्तर नशे का चलन बढ़ता गया है, लेकिन मंडी और एमएसपी व्यवस्था ने कृषि और किसानी के जुड़ाव को जिंदा रखा हुआ था। कॉर्पोरेट कृषि व्यवस्था इसे जड़ों से अस्थिर करने वाली प्रणाली है।
मोदी सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद नए कृषि कानून एमएसपी हटाने की दिशा में ही निर्णायक कदम हैं। कॉर्पोरेट अर्थशास्त्री गुरचरण दास ने, मोदी के इरादों को शब्द देते हुए किसानों को इनसे मिलने जा रही तीन स्वतंत्रता गिनायी हैं: मंडी से इतर भी फसल बेचने की स्वतंत्रता, भंडारण की असीमित छूट मिलने के चलते सीधे कोल्ड स्टोरेज से मोल-भाव की स्वतंत्रता, फसल के खतरों को फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट के जरिये कॉर्पोरेट को स्थानांतरित करने की स्वतंत्रता। दरअसल, किसान जानते हैं, ये तीनों क्रमशः प्राइस सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और भूमि सुरक्षा में लगने वाली सेंध हैं।