धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म पर टिकी है सरकार, संविधान के सामने शीश झुकाने की नौटंकी करते हैं मोदी जी ?

हमारे देश में धर्म को बीजेपी एक हथियार के तौर पर, विशेष तौर पर चुनावों के समय, इस्तेमाल करती है। एक धर्म निरपेक्ष देश की सरकार अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि भव्य राम मंदिर को बताती है.....

Update: 2021-04-06 10:15 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जिस संविधान के सामने मोदी जी अनेकों बार शीश झुकाने की नौटंकी वाला प्रदर्शन कर चुके हैं, वही संविधान हमें धर्मनिरपेक्ष बनाता है। पर, 2014 के बाद से बीजेपी सरकार का पूरा अस्तित्व ही धर्म और जय श्री राम के जयकारों पर टिका है। अब तो संसद में, चुनावों में और दूसरे भाषणों में भी प्रधानमंत्री समेत सभी सत्ता लोभी नेता इसी जयकारे को दुहराते हैं और इसे ही देश के विकास का पैमाना बताते हैं। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है जब धर्म व्यक्तिगत आस्था के विषय से बाहर निकलकर सत्ता के गलियारों में भटक रहा है। इसी धर्म के सरकारी संस्करण के कारण देश दो हिस्सों में बंट गया है। एक तरफ धर्म के ठेकेदार सत्तालोभी नेता, उनके चाटुकार और समर्थक हैं, जो धर्म को अपनी जागीर मानते हैं।

दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके मुंह से धर्म के बारे में कोई शब्द निकलते ही वे धर्मं को नीचा दिखाने के और धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोपी करार दिए जाते हैं। हालात तो यहाँ तक पहुँच गए हैं कि अब तो हिंसा के बाद भी और यहाँ तक की ह्त्या के बाद भी हिन्दू कट्टरवादी पुलिस और मीडिया के सामने जय श्री राम का जयकारा सुनाते हैं। यह जयकारा एक ऐसा उद्घोष बन गया है, जिसके लगाते ही आप द्वारा किये गए बलात्कार, आप द्वारा की गयी हिंसा यह फिर हत्या एक राश्रभक्ति में तब्दील हो जाती है। पुलिस, न्यायालय और प्रशासन नारे लगाने वालों को, जयकारा लगाने वालों को सुरक्षित करती हैं और हिंसा के शिकार लोगों, गवाहों और उनके परिवारों को साजिश रचने, देशद्रोह जैसे मुकदमें में फंसा देती है। धर्म ने तो सर्वोच्च न्यायालय के एक मुख्य न्यायाधीश को राज्य सभा तक पहुंचा दिया है।

दिक्कत यह है कि हम किसी लोकतंत्र में या सभ्य समाज में हैं, ऐसा महसूस ही नहीं होता। इन दिनों देश की हालत एक कबीले से भी बदतर है। कबीले के भी कुछ क़ानून होते हैं, पर यहाँ का क़ानून वही है जो सरकार और उसके समर्थक करते हैं या करते हैं। जब सरकारें धर्म की ठेकेदार बनाती हैं तब या तो हमारे देश की तरह बड़ी संख्या में लोग कट्टर धार्मिकता अपनाने लगते हैं या फिर धर्म से दूर होने लगते हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के समय भी सरकार ने धार्मिकता को खूब बढ़ावा दिया था, पर इसका उल्टा असर हो रहा है। बड़ी संख्या में अमेरिकी युवाओं को ट्रम्प के समय समझ में आया कि धर्म भी राजनीति का हिस्सा है, इस कारण बड़ी संख्या में वहां युवा आबादी धर्म से दूर हो गई और चर्च में जाना भी छोड़ दिया।

गैलप सर्वे के अनुसार अमेरिका में महज 47 प्रतिशत आबादी चर्च या दूसरे धार्मिक स्थलों पर जाती है, जबकि दो दशक पहले तक यह आंकड़ा 70 प्रतिशत से अधिक था। ऐसे हालात तब हैं जबकि अमेरिका की राजनीति में धर्म की घुसपैठ बहुत गहरी है। डेमोक्रेट्स अधिकतर मामलों में धर्म से राजनीति को दूर रखते है, जबकि रिपब्लिकन्स धर्म के दिखावे पर बहुत जोर देते हैं और इसे अपने राष्ट्रवादी नजरिये से जोड़ते हैं।

हमारे देश में धर्म को बीजेपी एक हथियार के तौर पर, विशेष तौर पर चुनावों के समय, इस्तेमाल करती है। एक धर्म निरपेक्ष देश की सरकार अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि भव्य राम मंदिर को बताती है। इस हथियार का बीजेपी ने इतना व्यापक इस्तेमाल किया है कि अब तो दूसरे दलों के नेता भी कभी हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, कभी दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है तो कभी मंदिरों में मत्था टेकने का कार्यक्रम होता है। यही हाल अमेरिका का भी है। वर्ष 2020 के अमेरिकी चुनावों के शुरू में की ट्रम्प ने जो बाईडेन पर आरोप मढा था की वे चर्च नहीं जाते और भगवान् में भरोसा नहीं करते। इसके बाद जो बाईडेन ने कई दिनों तक लगातार प्रचार किया की वे चर्च जाते हैं और उन्हें ईश्वर में विश्वास भी है। ऐसी ओछी और तर्कविहीन राजनीति के सन्दर्भ में अमेरिका और भारत में हरेक बिंदु पर समानता दिखाई देती है।

भगवान के सम्बन्ध में भी ट्रम्प और मोदी की विचारधारा एक जैसी थी। दोनों भगवान् पर केवल अपना अधिकार समझते हैं। बीते 5 अगस्त 2020 को कोविड 19 के प्रकोप के बीच राम मंदिर के शिलान्यास के अवसर पर राम पर मोदी और बीजेपी का अधिकार इतना प्रभावी हो गया था कि उन्ही की पार्टी के लोगों को कहना पड़ा था कि राम केवल मोदी या बीजेपी के धरोहर नहीं हैं बल्कि सबके हैं। ट्रम्प और मोदी, दोनों नेताओं को लगता है कि भगवान् पर भरोसा अकेले वही करते हैं और विपक्ष तो भगवान् को मानता ही नहीं, उनका अपमान करता है। राहुल गांधी अगर किसी मंदिर चले जाएँ तो मोदी जी और उनके समर्थकों को उन्हें नास्तिक साबित करने का एक मौका मिलता है।

इसी तरह 6 अगस्त 2020 को ट्रम्प ने अचानक राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेट उम्मीदवार और वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडेन को नास्तिक करार दिया था। ट्रम्प ने उनके बारे में कहा था कि वे ईश्वर के विरुद्ध हैं, वे बंदूकों के विरुद्ध हैं, वे ऊर्जा के विरुद्ध हैं। दूसरी तरफ जो बाईडेन कट्टर कैथोलिक हैं। वर्ष 2015 में जब बाईडेन उप-राष्ट्रपति थे तब पोप फ्रांसिस के अमेरिका दौरे पर बाईडेन शुरू से अंत तक उनके साथ ही थे। उन्होंने अनेक भाषणों में विस्तार से बताया है कि किस तरह ईश्वर ने उनकी पहली पत्नी की, बेटी की और बेटे की मृत्यु के बाद उन्हें संभाला। उनकी जेब में हमेशा जाप करने वाली रोजरी बीड्स रहती है और भाषणों के बीच में भी वे उसे हथेली पर रख लेते हैं। जो बाईडेन अमेरिका के इतिहास में पहले कैथोलिक उप-राष्ट्रपति थे और जॉन ऍफ़ कैनेडी के बाद दूसरे कैथोलिक राष्ट्रपति हैं। ट्रम्प द्वारा जो बाईडेन पर नास्तिक वाले बयान पर टिप्पणी करते हुए कैथोलिक न्यूज़ वेबसाइट के सम्पादक रोक्को पल्मो ने कहा था, "ट्रम्प ने बंदूकों को धार्मिक आस्था से क्यों जोड़ा, यह समझ से परे है। कैथोलिक पादरी हमेशा से ही मानते रहे हैं कि बंदूकों को निजी हाथों में कम से कम दिया जाए।" ट्रम्प जैसा ही आस्था और हथियार के समागम की वकालत मोदी जी भी करते रहे हैं और यही आरएसएस की मूल भावना भी है।

हमारे देश के बीजेपी शासित राज्यों में जिस तरह से धर्म को आधार बनाकर लव-जिहाद जैसे क़ानून बनाए जाते हैं, ठीक उसी तरह अमेरिका में भी किया जा रहा है। रिपब्लिकन्स के अधिकार वाले राज्यों – लुसिआना, फ्लोरिडा और अर्कांसस – में गर्भपात, बच्चों को गोद लेने और समलैंगिकता के खिलाफ अनेक दकियानूसी क़ानून बनाए जा रहे हैं क्योंकि क्रिश्चियनिटी में इसकी इजाजत नहीं है। अर्कांसस के रिपब्लिकन गवर्नर ने हाल में ही एक क़ानून लागु किया है, जिसके तहत स्वास्थ्य कर्मी अगर चाहें तो धार्मिक आधार पर समलैंगिकों के इलाज से इन्कार कर सकते हैं। रिपब्लिकन बहुलता वाले अनेक राज्यों में धर्म को स्कूली शिक्षा में शामिल करने की वकालत की जा रही है।

अमेरिका में बुजुर्गों में से 66 प्रतिशत लोग चर्च जाते हैं, जबकि महज 36 प्रतिशत युवा ही चर्च जाना पसंद करते हैं। पिछले दो दशकों में लगभग 25 प्रतिशत डेमोक्रेट्स ने चर्च या फिर धार्मिक स्थलों पर जाना छोड़ा है, जबकि 12 प्रतिशत रिपब्लिकन्स, जो धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ते हैं, भी ऐसा करने लगे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेनसिलवेनिया में राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर मिचेल मारगोलिस के अनुसार अमेरिका में तेजी से लोग धर्म के चंगुल से बाहर निकर रहे हैं। पिछले एक दशक के भीतर लगभग 20 प्रतिशत अमेरिकन नास्तिक हो गए हैं, धर्म के बंधन से आजाद हो गए हैं, और इसमें से एक-तिहाई से अधिक आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है।

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