बेगुनाहों को गुनहगार बता अपना एजेंडा लागू करती हैं सरकारें

देश की सम्प्रभुता लोगों में निहित होती है, लोगों को समझाने की ज़रुरत है कि उन पर देशद्रोह की भावनाओं चाबुक मारा जा रहा है, उनकी चिंता संदिग्ध के खिलाफ ग़लत कार्रवाई को भी नैतिक रूप से सही ठहरा देती है....

Update: 2020-10-01 08:09 GMT

अजाज़ अशरफ़ की विश्लेषण

अगर आपको इस बात की थाह लेनी है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारतीय राज्य का झुकाव अपने विरोधियों को देशद्रोही कहने और बॉलीवुड को 'नशे के अड्डे' के रूप में पेश करने का कैसे हो गया तो आपको जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 'बर्मीज़ डेज़' को पढ़ना होगा। कभी ब्रिटिश इंडिया साम्राज्य का हिस्सा रहे बर्मा के एक शहर क्योक्ताडा की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास में यू पो कीन नामक एक सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट हैं जो स्थानीय यूरोपीय क्लब की सदस्यता हासिल करने के लिए डॉक्टर वेरास्वामी का प्रतिद्वंदी है। क्लब पहली बार किसी स्थानीय वाशिंदे को सदस्यता देना चाह रहा है। कीन बहुत ज़्यादा अमीर है लेकिन उसे डॉक्टर वेरास्वामी जैसी प्रतिष्ठा नहीं हासिल है। ब्रिटिश शासकों से करीबी के चलते डॉक्टर वेरास्वामी की बहुत प्रतिष्ठा थी। ऐसे में कीन अपने विरोधी की छवि बिगाड़ने का फैसला लेता है।

कीन अपने साज़िश कर्ताओं से कहता है कि डॉक्टर वेरास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना बेकार है क्योंकि ब्रिटिश अधिकारी ये मान कर चलते हैं कि स्थानीय बन्दा घूस लेगा ही लेगा। अपने हरफ़नमौला नौकरों से कीन कहता है, 'अब यह स्पष्ट है कि बग़ावत- राष्ट्रवाद और देशद्रोह- को ही हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।' 'हमें इन यूरोपिओं को ये विश्वास दिला देना चाहिए कि डॉक्टर ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ विचार रखता है।' हरफ़नमौला नौकर यह कह कर इस विचार को ख़ारिज कर देते हैं कि ब्रिटिश हुक्मरानों के प्रति डॉक्टर वेरास्वामी की बेवफ़ाई को साबित करना मुश्किल होगा।

कीन जवाब देता है, 'बकवास, बकवास।' कोई भी यूरोपीय व्यक्ति सबूत की चिंता नहीं करता है। जब किसी व्यक्ति का चेहरा काला पद जाता है तो वही सबूत होता है। थोड़े से बेनाम ख़त चमत्कार कर डालेंगे। सवाल बस माहौल बनाये रखने का है। दोष लगाओ और दोष लगाओ, बस दोष लगाते जाओ.....' ब्रिटिश अधिकारियों को बेनाम खत लिखे जाते हैं यह बताते हुए कि क्योक्ताडा के करीब थोंग्वा गांव में विद्रोह पनप रहा है जिसमें डॉक्टर की भूमिका भी संदेह के घेरे में है।

ऑरवेल की बर्मीज़ डेज़ 1934 में प्रकाशित हुई थी लेकिन संदेह पैदा करने के प्रति संवेदनशील मनोविज्ञान को समझने के लिए यह उपन्यास आज भी महत्वपूर्ण है। निःसंदेह 1934 और 2020 की तुलना करने पर बहुत से अंतर नज़र आएंगे: मसलन एक व्यक्ति की जगह आज पूरी की पूरी सरकार है जिसने मिथ्या आरोप लगाने का अभियान चला रखा है; देश की सम्प्रभुता लोगों में निहित होती है, लोगों को समझाने की ज़रुरत है कि उन पर देशद्रोह की भावनाओं चाबुक मारा जा रहा है। उनकी चिंता संदिग्ध के खिलाफ ग़लत कार्रवाई को भी नैतिक रूप से सही ठहरा देती है।

'दोष लगाओ ......दोष लगाओ, बस दोष लगाते रहो', मोदी के नेतृत्व में सरकार यही कर रही है और यह सिलसिला लगातार चलता आ रहा है, नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों का मज़ाक उड़ाने से ले कर उन्हें हिंदुओं का विरोधी बताने, और देश को बदनाम करने की मंशा से दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़काने के आरोप लगाने तक। 2020 के भारत में मीडिया,खास कर टेलीविजन, संदेह पैदा करने की उसी भूमिका का निर्वाह कर रहा है जो बर्मीज़ डेज़ उपन्यास में बेनामी खतों ने किया था। जैसा कि कोरेगाँव हिंसा केस में कार्यकर्ताओं को बंदी बना कर किया गया था।

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यूरोपियन क्लब की सदस्यता हासिल करने की कीन की इच्छा ने उसे एक ऐसा विमर्श गढ़ने के लिए मजबूर किया जो संकेतों पर आधारित था। आगामी बिहार विधान सभा चुनावों को जीतने की भारतीय जनता पार्टी की चाहत के चलते सरकार-मीडिया-सत्ता में बैठी पार्टी के गठबंधन ने फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को पहले हत्या के केस में, फिर अपनी साथी रिया चक्रवर्ती द्वारा प्रताड़ित एक भली आत्मा और अंत में बॉलीवुड की नशा संस्कृति के शिकार हुए शख्स में बदल दिया। रिया उसके लिए गांजा,चरस, भांग लाती थी जिससे सुशांत का बाइपोलर डिप्रेशन ज़्यादा बढ़ गया। मीडिया ने घोषणा कर दी कि सुशांत की आत्महत्या के लिए रिया ज़िम्मेदार है। सरकार ने इस घोषणा से सहमति जताई।

किसी भी झूठ पर तब तक विश्वास नहीं किया जा सकता जबतक उसे सच्चाई की झालर से सजाया न जाए। बर्मीज़ डेज़ उपन्यास में कीन अपनी पत्नी से कहता है, 'मैंने वेरास्वामी पर सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का आरोप लगाया है। इसलिए मुझे दिखाना भी पड़ेगा कि विद्रोह हुआ है।' वह अपनी पत्नी को राज़ की बात बताते हुए कहता है कि उसने थोंग्वा गाँव में विद्रोह की एक योजना तैयार की है और उसके क्रियान्वयन के लिए धन का इंतजाम भी कर दिया है। इस बारे में आश्वस्त रहते हुए कि ब्रिटेन के प्रति स्वामिभक्ति का उसका प्रदर्शन उसकी हैसियत को बढ़ा देगा, वह घोषणा करता है, 'उस क्षण जब ये शुरू होने वाला होगा मैं बाग़ियों के मुखियाओं पर झपट पडूंगा और उन्हें जेल में डाल दूँगा।'

फिर वेरास्वामी का क्या होगा ? चूंकि बेनाम खत उसकी निष्ठां पर पहले ही सवाल उठा चुके थे, कीन घोषणा करता है, 'हां, हम ये कभी साबित नहीं करेंगे कि वो इसके लिए ज़िम्मेदार है; लेकिन इससे क्या फ़र्क पड़ता है ? यूरोप के लोग तो यही मान कर चलेंगे कि वो इसमें कहीं न कहीं शामिल है। लोगों का दिमाग़ इसी तरह काम करता है।'

और आज 2020 के भारत में भी समूह का दिमाग़ इसी तरह काम करता है। बस में भर कर उत्तर-पूर्वी दिल्ली में धमके उन लोगों की किसे याद है जिनके चेहरे रूमालों या हेलमेटों से ढंके हुए थे और जिनकी पीठ पर पत्थरों से भरे बैग लटक रहे थे ? या कि जब दंगाइयों की भीड़ लोगों को मार रही थी ऑर्डर पुलिस वाले मूक दर्शक बने खड़े थे ? बीते दिनों के मार्कसिस्ट पोस्टर बॉय उमर ख़ालिद से ले कर ख़ालिद सैफी तक, गुलफिशा फ़ातिमा और इशरत जहां से ले कर देवांगना कालिता और नताशा नरवाल तक दिल्ली दंगों की उनके ख़िलाफ़ चार्ज शीट कुछ इस तरह तैयार की गई है कि हम मान लें कि 'दिल्ली दंगों से इनका कुछ ना कुछ लेना तो है।'

'दोष लगाओ,दोष लगाओ, दोष लगाते रहो' के सिद्धांत की अगली कड़ी पिछले हफ्ते दाखिल की गई वो चार्जशीट है जिसमें आरोप लगाया गया है कि दिल्ली दंगे हिंसक तरीक़े से मोदी सरकार को 'उखाड़ फेंकने' के लिए गुप्त रूप से आयोजित किये गए थे। चार्ज शीट में पुलिस ने दावा किया कि दंगाइयों को उकसाने का काम प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद,कविता कृष्णन और सलमान खुर्शीद जैसे बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने किया। मुंबई में भी सरकार ने यह सुझाव पेश कर कि दीपिका पादुकोने जैसे कलाकार 'कहीं न कहीं नशा माफियाओं से जुड़े हैं, समूह की मानसिकता की कार्यशैली को प्रभावित करने की कोशिश की है।

उपन्यास में कीन अपनी पत्नी से कहता है, 'उसकी(डॉक्टर वेरास्वामी) ज़िंदगी तो अब बर्बाद हो जाएगी। और उसका पतन मेरी उन्नति है। मैं उसकी छवि जितना अधिक बिगाड़ूँगा, मैं उतना ही ज़्यादा महान नज़र आऊंगा।' 2020 के भारत में सरकार सोचती है कि ये निर्दोष लोगों को जितना ज़्यादा षड्यंत्रकारी बना कर पेश करेगी, उतना ही ज़्यादा मोदी मजबूत होते चले जायेंगे। तो फिर मासूम लोगों के बर्बाद हो जाने से फर्क ही क्या पड़ता है ! लेकिन, जैसा बर्मीज़ डेज़ में दिखाया गया है, अंत में ज़िंदगी एक ऐसी करवट लेती है जिस पर नियंत्रण कर पाना किसी के वश में नहीं होता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं। उनकी यह टिप्पणी साभार मिड डे से ली गई है।)

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