क्या मोदी की भाजपा ने जनादेश के बगैर ही चुनाव जीतने का नुस्खा ईजाद कर लिया है?

चुनाव आयोग पर देश में चुनाव करवाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है लेकिन मोदी राज में हुए चुनावों में आदर्श आचार संहिता के इतने उल्लंघन हुए कि सवाल पूछे जाते रहे हैं कि आखिर आयोग कहां है और क्या उसका हाल किसी ऐसी अप्रभावी संस्था या बिना दांत के शेर जैसा तो नहीं है जिसकी किसी को परवाह नहीं?

Update: 2020-11-11 14:01 GMT

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार की टिप्पणी 

बिहार विधानसभा के चुनाव और कुछ राज्यों के उप चुनावों में भाजपा की 'शानदार' विजय ने यह सवाल पैदा कर दिया है कि क्या जमीन पर मोदी सरकार के जुल्मों के खिलाफ आम लोगों के बीच साफ नजर आ रहे आक्रोश की अभिव्यक्ति चुनावी नतीजे के रूप में सामने नहीं आ रही है? क्या मोदी की भाजपा ने जनादेश के बगैर ही चुनाव जीतने का कोई नुस्खा ईजाद कर लिया है? दुनिया में कुछ देश ऐसे हैं जहां के तानाशाहों ने चुनाव प्रक्रिया को ही प्रहसन बना कर ऐसा इंतजाम कर रखा है कि वोट किसी को भी दिया जाए, विजय तानाशाह की ही होती है। क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी एक ऐसे ही भविष्य की तरफ कदम बढ़ा रहा है जब वोट किसी को भी देने पर कमल ही खिलकर सामने आता रहेगा?

बिहार चुनाव से पहले जमीनी स्तर पर सत्ता के खिलाफ जो नाराजगी थी वह साफ दिखाई दे रही थी। तेजस्वी यादव के समर्थन में पूरे राज्य में भीड़ को उमड़ते हुए देखा गया था। कोरोना के बहाने आम लोगों को मोदी सरकार ने जिस तरह तड़पाया था और लॉकडाउन का चाबुक चलाकर लाखों मजदूरों को पैदल ही शहरों से गांव लौटने के लिए मजबूर किया था, उसके खिलाफ भी सुलगते हुए गुस्से को महसूस किया जा सकता था।

यानी जमीन पर सत्ता के खिलाफ जो लहर थी वह नतीजे में अचानक सत्ता के समर्थन में तब्दील हो गई। भले ही इस नतीजे को लेकर चुनाव आयोग की भूमिका संदिग्ध साबित हुई, जिस पर अंतिम समय में हार को जीत और जीत को हार में बदलने के आरोप लग रहे हैं। अपने पिछले रिकार्ड के हिसाब से चुनाव आयोग अब निष्पक्ष संवैधानिक संस्था नहीं है। उसके रवैये से स्वामीभक्ति की बू आने लगी है।

चुनाव आयोग पर देश में चुनाव करवाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है लेकिन मोदी राज में हुए चुनावों में आदर्श आचार संहिता के इतने उल्लंघन हुए कि सवाल पूछे जाते रहे हैं कि आखिर आयोग कहां है और क्या उसका हाल किसी ऐसी अप्रभावी संस्था या बिना दांत के शेर जैसा तो नहीं है जिसकी किसी को परवाह नहीं?

2019 के आम चुनाव के समय वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर पूछा था- 'चुनाव आयोग (नरेंद्र) मोदी पर (कथित) प्रोपोगैंडा मूवी की इजाज़त देता है, उन्हें दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर एंटी सैटेलाइट मिसाइल पर चुनावी भाषण देने की इजाज़त देता है, उन्हें रेलवे के दुरुपयोग की इजाज़त देता है लेकिन रफ़ाल पर किताब पर पाबंदी लगा दी जाती है और उसकी कॉपीज़ को अपने कब्ज़े में ले लिया जाता है।'

31 मार्च 2019 को भाजपा की ओर से 'प्रोपोगैंडा टीवी चैनल' नमो टीवी लांच किया गया लेकिन चैनल की कानूनी स्थिति, इसके लाइसेंस पर गंभीर सवाल पूछे गए। केबल ऑपरेटर टाटा स्काई ने कहा आप इस चैनल को अपने चुने हुए चैनलों के ग्रुप से डिलीट भी नहीं कर सकते।

राजस्थान के चुरू में नरेंद्र मोदी की रैली में उनके पीछे पुलवामा में मारे गए लोगों की तस्वीरें थीं जिससे मृत सैनिकों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल पर विवाद शुरू हो गया। पाकिस्तान में पकड़े गए भारतीय जवान अभिनंदन की तस्वीरों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया गया।

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक भाषण में 'मोदी जी की सेना' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। उदाहरण कई हैं लेकिन चुनाव आयोग ने क्या किया- नोटिस जारी किए, चिट्ठियां लिखीं। यानी सिर्फ दिखावा किया और अपनी भूमिका का पालन न करते हुए मोदी सरकार की सहायता की।

पिछले साल 6 अक्टूबर को भाजपा नेता राम माधव ने कहा कि हमारा मैनजमेंट इतना मजबूत है कि बिना लड़े सरकार बना लेते है। उन्होंने कहा कि आलोचक कहते है कि अमित शाह ने भाजपा को केवल इलेक्शन विनिंग मशीन बना दिया है। तो हम क्या राजनीति में चैरिटी करने के लिए आए है? हम तो यहां चुनाव जीतने के लिए है।

राम माधव के इस कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह भाजपा चुनाव प्रक्रिया को ही अप्रासंगिक बनाने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। मोदी राज में ऐसे कई उदाहरण हैं कि चुनाव में पराजित होने के बाद भी विधायकों को खरीद कर भाजपा आसानी से सरकार बनाती रही है।

अब बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था व निम्र स्तर तक पहुंच चुकी अर्थव्यवस्था कोई मुद्दा ही नहीं है। फर्जी राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे मोदी सरकार इस देश में लोकतंत्र की जगह एकतंत्र स्थापित करने की मुहिम चला रही है। जिस देश को लंबे संघर्ष और त्याग के बाद आज़ाद किया गया और संविधान के जरिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को लागू किया गया, उस देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं को मोदी सरकार ने अपने छह साल के राज में विकलांग बना दिया है।

जिस न्यायपालिका से संविधान के अनुरूप लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा की उम्मीद की जाती है, अब वह भाजपा सरकार की कठपुतली की भूमिका निभा रही है। चुनाव आयोग की रीढ़ की हड्डी खत्म हो चुकी है। डरा सहमा विपक्ष मोदी राज के जुल्मों के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष करने में विफल साबित हो रहा है। वैसे भी सीबीआई, एनआईए और ईडी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल मोदी सरकार विरोधियों का दमन करने के लिए खूंखार भेड़िये के तौर पर कर रही है।

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