पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर मारे जाते हैं और आवाज उठाने वाले ठूंसे जाते हैं जेल में

पूंजीवाद तो लाशों के ढेर पर बैठकर भी अपने मुनाफे पर ध्यान रखता है, जब तक ऐसी परियोजनाओं से जुड़े सरकारी अधिकारियों को कठोर सजा नहीं दी जाती ऋषिगंगा जैसी आपदा लगातार होती रहेगी और मजदूर मरते रहेंगे...

Update: 2021-02-18 16:07 GMT

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। पिछले कुछ दिनों में किसान आन्दोलन से सम्बंधित महापंचायतों के दौर के बीच दो और खबरें भी चर्चा में हैं। पहली खबर उत्तराखंड के चमौली जिले में ऋषिगंगा नदी में अचानक आई बाढ़ से तबाही की है तो दूसरी खबर विश्वविख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग द्वारा किसान आन्दोलन के समर्थन से जुड़ी घटनाएँ हैं। दोनों ही खबरें सतही तौर पर जलवायु परिवर्तन से तो जुड़ी ही हैं, पर गंभीरता से देखिये तो पूंजीवाद का असली चेहरा उभरता है, जिसके सामने भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारें कठपुतली की तरह नाचती हैं।

पूंजीवादी व्यस्था के सामने कुछ सौ मजदूरों की मौत कोई मायने नहीं रखती है, और पूंजीवाद डरता है तो केवल तार्किक विरोध से। इसीलिए मजदूरों की मौत और विरोध के स्वर कुचलने का एक नया नाटक जो देश में चल रहा है, वह पूंजीवादी व्यवस्था की सामान्य घटना है।

पूंजीवाद प्रकृति और पर्यावरण की अवहेलना करता है क्योंकि उसे केवल अपना तात्कालिक लाभ दीखता है। हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में पन-बिजली परियोजना का विरोध करते करते अनेक वैज्ञानिक और संत शहीद हो गए। पहले भी हिमालय पर ऐसी आपदा आ चुकी है, सर्वोच्च न्यायालय अधूरे मन से इनका विरोध करता रहा, सरकार भी बार-बार दिखावा करती रही, पर हिमालय क्षेत्र में पन-बिजली योजनायें एक जाल की तरह नदियों को रोकती रहीं।

ऐसी किसी भी घटना पर पता नहीं क्यों पर्यावरण और वन मंत्रालय पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती। पर्यावरण और वन मंत्रालय की पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति की कमेटी के सदस्य या तो अपने पद के योग्य नहीं हैं, या फिर मोटी कमाई कर ऐसी परियोजनाओं को स्वीकृति देते हैं। पूंजीवाद तो लाशों के ढेर पर बैठकर भी अपने मुनाफे पर ध्यान रखता है। जब तक ऐसी परियोजनाओं से जुड़े सरकारी अधिकारीयों को कठोर सजा नहीं दी जाती ऋषिगंगा जैसी आपदा लगातार होती रहेगी और मजदूर मरते रहेंगे।

जनवरी में जो कुछ लाल किले पर किया गया, उसे लेकर पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी ऐसे समय की जा रही है, जब चमौली हादसा हो गया। जाहिर है, सरकार और पूंजीपतियों को यह अंदेशा रहा होगा की कहीं किसान आन्दोलन के साथ ही देश में जल्यायु परिवर्तन को रोकने में असफल सरकार और पूंजीवाद के विरोध एक नया आन्दोलन न खड़ा हो जाए। इसीलिए अब टूलकिट के नाम पर केवल पर्यावरण कार्यकर्ताओं की खोज हो रही है।

अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज के संस्थापक एंडर्स रासमुस्सेन के अनुसार पूरी दुनिया के लोकतंत्र के लिए यह दौर लिटमस टेस्ट की तरह है। पूरी दुनिया में लोकतंत्र अभी तक लोगों के मस्तिष्क में शामिल है, पर सरकारें लगातार जनता और लोकतंत्र से दूर होती जा रहीं हैं। अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज हरेक वर्ष डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स प्रकाशित करता है। इसमें किसी देश में कितने लोग लोकतंत्र का समर्थन करते हैं और कितने लोग समझते है की उनके देश में लोकतंत्र है – इन दोनों का आकलन किया जाता है।

इन दोनों आकलनों में अंतर को डेमोक्रेटिक डीफ़िसिएन्सी कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर भारत एक लोकतांत्रिक देश है, और इसमें सर्वेक्षण में यदि 100 लोग लोकतंत्र का समर्थन करते है और इनमें से केवल 82 प्रतिशत ही यह मानते हों तो फिर भारत में डेमोक्रेटिक डीफ़िसिएन्सी 18 प्रतिशत है।

हमारे देश का यह उदाहरण वर्ष 2019 के डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स के वास्तविक आंकड़े हैं। अमेरिका, फ्रांस, इटली, बेल्जियम और वेनेज़ुएला जैसे देशों में आधी आबादी भी यह नहीं मानती कि उनके देश में लोकतंत्र है। पोलैंड के 48 प्रतिशत, हंगरी के 42, उक्रेन के 39 और थाईलैंड के 35 प्रतिशत लोग ही मानते हैं कि उनके देश में लोकतंत्र है।

पिछले कुछ वर्षों से लोकतंत्र की गरिमा लगातार गिरती जा रही है, सरकारों और जनता के बीच का संवाद ख़तम हो चुका है। इसका सबसे बड़ा कारण है, पिछले आर्थिक मंदी के बाद से पूरी दुनिया में पूंजीवाद का बढ़ता वर्चस्व। इसी कारण आज लगभग पूरी दुनिया की आबादी की समस्याएं भी एक जैसी हो गयीं हैं।

साम्यवाद के बारे में गैर-साम्यवादी देश कहते हैं, यह व्यवस्था हत्यारी है। उदाहरण के तौर पर पोल-पोट, माओ और स्टालिन के समय की चर्चा की जाती है, जब राजनैतिक हत्याएं सामान्य थी। नक्सलियों और माओवादिओं के बारे में भी यही प्रचारित किया जाता है। पूंजीवाद को मानव विकास की धुरी और सबकी उन्नति के तौर पर खूब प्रचारित किया जाता रहा है और साम्यवाद की आलोचना कर वह अपनी हत्यारी शक्तियों को उजागर नहीं होने देता।

सच तो यह है कि पूंजीवाद हरेक समय और हरेक दिन लोगों को मारता है। यही प्रचार करते करते पूंजीवाद लगभग पूरी दुनिया तक पहुँच गया। पूंजीवाद के समर्थक कितना गलत प्रचार करते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – 1950 के आस-पास भारत (समाजवादी पूंजीवाद) और चीन (साम्यवाद) में आबादी की औसत उम्र 40 वर्ष थी। वर्ष 1979 तक भारत में औसत उम्र 54 वर्ष और चीन में 69 वर्ष तक पहुँच गयी।

पूंजीवाद का आरम्भ ही गुलामी से होता है। सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की औद्योगिक क्रांति (जो पूंजीवाद का आधार बना) के मूल में करोड़ों गुलाम थे जिन्हें अफ्रीका और एशिया के देशों से जलपोतों में भरकर मैनचेस्टर जैसे इलाकों में अमानवीय तरीके से रखा गया और उद्योगों में मुफ्त में या बहुत कम तनखाह पर काम कराया गया। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उस समय मशीनें कम थीं, इस कारण सारा काम मजदूरों से ही कराया जाता था। इस पूरी प्रक्रिया में लाखों मजदूरों की मृत्यु हुई। पूरे पूंजीवाद का आधार ही इन्हीं मजदूरों का खून-पसीना है।

पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि अर्थव्यवस्था के साथ ही धीरे-धीरे सारे प्राकृतिक संसाधन सिमट कर कुछ लोगों के हाथ में चला जाता है, जमीन इनके हाथ में चली जाते है। पहाड़, नदियाँ सबकुछ इनका हो जाता है, जो आबादी इनका विरोध करती है उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी का तमगा दे दिया जाता है।

दुनियाभर में यही हो रहा है और अपने अधिकारों के लिए या अपने जल, जमीन और जंगल की लड़ाई लड़नेवाले बड़ी तादात में सरकार के समर्थन से पूंजीपतियों की फ़ौज से मारे जा रहे हैं। अब तो कोविड 19 ने पूंजीपतियों को नए सिरे से एकजुट कर दिया है, दुनिया में बेरोजगारी, भूख, गरीबी और बढ़ेगी, बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर भी इनका कब्ज़ा होगा और लोग मर रहे होंगें और साथ में लोकतंत्र भी विलुप्त हो चुका होगा।

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