Indian Railway Privatisation : क्या रेलवे के निजीकरण पर भारत सरकार ने यू-टर्न लेने का मन बना लिया है, या सच्चाई कुछ और है?

रेल मंत्री ने कहा कि रेलवे की सामाजिक जवाबदेही पर ध्यान दें तब स्पष्ट होगा कि हम 60 हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी दे रहे हैं। वैष्णव ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जीवन से रेल से जुड़ा रहा है, वह रेल को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। उन्होंने कहा कि आज रेलवे किस मोड़ पर है, यह जानने के लिए हमें पीछे जाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले जैसी नीतिगत पंगुता थी, उसका प्रभाव रेलवे पर भी था।

Update: 2022-03-19 07:26 GMT

Indian Railway Privatisation

Indian Railway Privatisation : बुधवार 16 मार्च को केन्द्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैश्नव ने संसद में साल 2022-23 के लिए रेल मंत्रालय के नियंत्रणाधीन अनुदानों की मांगों पर चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि रेलवे का निजीकरण नहीं हो सकता है क्योंकि पटरियां रेलवे की हैं, इंजन रेलवे के हैं, स्टेशन और बिजली के तार रेलवे के हैं। इसके अलावा डिब्बे और सिग्नल प्रणाली भी रेलवे की ही हैं। वैष्णव ने कहा कि उनके पूर्ववर्ती पीयूष गोयल भी पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि रेलवे का ढांचा जटिल है और इसका निजीकरण नहीं होगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मालगाड़ियों का भी निजीकरण नहीं किया जा रहा है।

केंद्र सरकार ने बुधवार को साफ कर दिया कि वो रेलवे का निजीकरण नहीं करने जा रही है। सरकार ने कहा है कि रेलवे के निजीकरण को लेकर हो रही सारी बातें काल्पनिक हैं। केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बुधवार को यह जानकारी दी। उन्होंने कहा कि सरकार की दृष्टि में रणनीतिक क्षेत्र के रूप में रेलवे की सामाजिक जवाबदेही है जिसे वाणिज्यिक व्यवहार्यता पर ध्यान देते हुए पूरा किया जा रहा है।

रेल मंत्री ने कहा कि रेलवे की सामाजिक जवाबदेही पर ध्यान दें तब स्पष्ट होगा कि हम 60 हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी दे रहे हैं। वैष्णव ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जीवन से रेल से जुड़ा रहा है, वह रेल को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। उन्होंने कहा कि आज रेलवे किस मोड़ पर है, यह जानने के लिए हमें पीछे जाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले जैसी नीतिगत पंगुता थी, उसका प्रभाव रेलवे पर भी था।

रेल मंत्री के इस बयान के बाद एक बार फिर यह चर्चा शुरू हो गयी है कि क्या वाकई में मोदी सरकार रेलवे का निजीकरण करने का मंशा नहीं रखनती है। या इस मामले में सरकार की ओर से फिलहाल यू—टर्न ले लिया गया। वी सिवरामन की न्यूजक्ल्कि पर आई एक रिपोर्ट में हमें इन सवालों के जवाब मिलते दिखते हैं।

बकौल सिवरामन, अडानी समूह, जिसे व्यापक रूप से नरेंद्र मोदी का कॉर्पोरेट 'ऑल्टर ईगो' माना जाता है, का एक बयान 31 जनवरी 2022 को द टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी थी - कि गौतम अडानी ने अडानी समूह के सभी छह रेलवे-संबंधित कार्यों को एकल बड़ी कंपनी फ्लोट करने हेतु विलय कर दिया है। ये थी अडानी ट्रैक्स मैनेजमेंट सर्विसेज जो सब्सिडियरी कंपनी के रूप में थी, और जिसकी 100% हिस्सेदारी अडानी पोर्ट्स और स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन्स लिमिटेड द्वारा नियंत्रित की जाती है।

अडानी ग्रुप के बयान में यह भी कहा गया था कि वह निजी ट्रेन चलाने के लिए वर्ष 2025 तक 2000 किलोमीटर ट्रैक की लंबाई को नियंत्रित करने वाले रेलवे के स्टेक्स को खरीद लेगी। इस खबर के छपने के बाद रेल कर्मचारियों और विपक्षी हलकों में केन्द्र सरकार के खिलाफ ​रेलवे के निजीकरण को लेकर भारी आक्रोश पैदा हुआ। सारकार पर आरोप लगाए गए कि सरकार भारतीय रेलवे की एकमुश्त बिक्री की योजना बना रही थी।

अडानी के बयान में रेलवे के जिन छह खंडों की चर्चा हुई थी वे हैं- 1) बीडीआरसीएल (63 किमी); 2) धामरा पोर्ट रेल (69 किमी); 3) सरगुजा रेल (70 किमी); 4) मुंद्रा रेल (74 किमी); 5) कृष्णापट्टनम रेल कंपनी (113 किलोमीटर रेल पटरियों को नियंत्रित करता है); और 6) कच्छ रेल (301 किमी)। बीडीआरसीएल 2006 में यूपीए सरकार के समय अडानीज़ द्वारा शुरू की गई थी, जिसने भारतीय रेलवे से 63 किलोमीटर की रेल पटरियों का अधिग्रहण किया था, ताकि दहेज क्षेत्र में अडानी पोर्ट्स सहित निजी बंदरगाहों से पेट्रोकेमिकल्स को गुजरात में रासायनिक और पेट्रोकेमिकल निवेश क्षेत्र (PCPIR) के प्रस्तावित पेट्रोकेमिकल कंपनियों तक सफलतापूर्वक पहुंचाया जा सके। धामरा पोर्ट रेल ओडिशा में अडानी के नियंत्रण वाले धामरा पोर्ट को खनिज समृद्ध तालचर और भद्रक क्षेत्रों से जोड़ती है, जिसमें टाटा और लार्सन एंड टर्बो के स्टेक्स भी हैं। सरगुजा रेल कॉरिडोर (निजी) लि.अडानी पोर्ट्स और विशेष आर्थिक क्षेत्र  को भी कनेक्टिविटी प्रदान करता है।  मुंद्रा पोर्ट रेल परियोजना अडानी के स्वामित्व वाले मुंद्रा पोर्ट को रेल कनेक्टिविटी प्रदान करती है। कृष्णापट्टनम रेल कंपनी (केआरसीएल) आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में अडानी के स्वामित्व वाले कृष्णापट्टनम बंदरगाह के लिए रेल संपर्क प्रदान करती है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में गेज परिवर्तन के लिए यूपीए शासन के अधीन कच्छ रेल कंपनी भी शुरू की गई थी और कच्छ क्षेत्र में दीनदयाल बंदरगाह और अडानी बंदरगाहों के लिए रेल परिवहन की पेशकश की गई थी।

रेलवेज़ में अडानी की इन छह कंपनियों के एक बड़े निजी एकाधिकार में विलय से अडानी की निजी रेलवे ट्रैक की लंबाई जनवरी 2022 में 690 किलोमीटर से 2025 तक 2000 किलोमीटर तक बढ़ने की उम्मीद थी। इसके अलावा, दूसरा लक्ष्य यह भी था कि अडानी भी भारतीय रेल की GPWIS (भारतीय रेलवे की सामान्य प्रयोजन वैगन निवेश योजना) में भारी निवेश कर सकेगी, जिससे वे भारतीय रेल के वैगनों और रेक के मालिक बनते, और देश में कोयला, लौह अयस्क और अन्य खनिजों का परिवहन करते। जो अब तक भारतीय रेलवे का एक फायदा देने वाला उद्यम रहा है। इस बयान को देखकर मीडिया में हलचल मच गई कि भारतीय रेलवे को मोदी के करीबी अडानी को बेचा जा रहा है। इसने स्वाभाविक रूप से व्यापक आक्रोश पैदा किया।

इस चौंकाने वाली खबर के खिलाफ लोगों के गुस्से को देखते हुए रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव को खुद 7 फरवरी 2022 को भी संसद में यह बताना पड़ा था कि भारतीय रेलवे अडानी को नहीं बेचा रहा है। हालांकि मोदी सरकार के विरोधी इस आश्वासन को सही नहीं मानते हैं।

इस आश्वासन को सही नहीं मानने के पीछे का तर्क यह था कि इससे पहले 23 अगस्त 2021 को वित्त मंत्री के राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना के रेलवे घटक के हवाले से बिजनेस स्टैंडर्ड समाचारपत्र में खुलासा किया गया था कि "सरकार ने 400 रेलवे स्टेशनों, 90 यात्री ट्रेनों, 1,400 किमी रेलवे ट्रैक के एक मार्ग, कोंकण रेलवे के 741 किमी, 15 रेलवे स्टेडियम और चुनिंदा रेलवे कॉलोनियां, 265 रेलवे के स्वामित्व वाले गुड-शेड, और भारतीय रेलवे के चार पहाड़ी रेलवे को सरकार के लिए 1.52 लाख करोड़ रुपये की राशि जुटाने के लिए बेचने की योजना बनाई गयी थी। " जब रेलमंत्री संसद में रेलवे के निजीकरण को खारिज करने की बात कह रहे थे तो उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड की इस रिपोर्ट पर एक भी शब्द नहीं कहा। ऐसे में सरकार के इस बयान पर कि रेलवे का वाकई निजीकरण नहीं हो रहा है, अभी भी संदेह के घेरे में ही है।

तो क्या वर्तमान में रेलवे को लेकर सरकार किसी दुविधा की स्थिति का सामना कर रही है। क्या भारत की महान रेलवे अभी कठिनाईयों से घिर गयी है। और उसकी बेहतरी की दिशा क्या हो यह सरकार भी नहीं तय कर पा रही है। रेलवे के ताजा हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि जो लोको इंजन भारतीय रेलवे के अपने चित्तरंजन संयंत्र में निर्मित किए जा सकते हैं, वे भी फ्रांस की बहुराष्ट्रीय कंपनी एल्सटॉम से खरीदे जा रहे हैं, जो पूरी तरह से मोदी सराकार की अपनी मेक-इन-इंडिया नीति के ही खिलाफ है।

15 अगस्त 2021 को स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में मोदी ने 2024 के चुनावों से पहले यानी 2023 के अंत तक 75 हाई-स्पीड वंदे भारत ट्रेनें चलाने का वादा किया था। लेकिन, वित्तीय बाधाओं के कारण, इस फैसले को अभी तक अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है। इस मसले पर प्रयागराज इलाहाबाद के एक रेल अधिकारी ने बताया, "रेलवे ने एल्सटॉम जैसी निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से आपूर्ति की जाने वाली 58 ऐसी ट्रेनों के लिए केवल टेंडर जारी किये हैं और 2022 जुलाई तक केवल एक ऐसी ट्रेन का ट्रायल रन होगा। ट्रैक आधुनिकीकरण की मौजूदा स्थिति में ऐसी 58 ट्रेनों को चलाना लगभग असंभव है। वे आगे यह भी बताते हैं कि नवीनतम रेल बजट में रेलवे अनुसंधान के लिए केवल 51 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं ! राष्ट्रीय उच्च गति रेल निगम जो 2023 तक 58 हाई-स्पीड ट्रेनों की इस परियोजना को निष्पादित करने वाला है को केवल 5000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। ऐसे में सरकार अपना लक्ष्य कैसे हासिल करेगी यह देखना दिलचस्प होगा।

रेलवे की अपनी निर्माण कंपनी IRCON के होते हुए भी एलएंडटी जैसी कंपनियों को निर्माण के अनुबंध दिए जा रहे हैं। टिकट बुकिंग, खानपान और पर्यटन सेवाएं आईआरसीटीसी को सौंप दी गई हैं। रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों के रख-रखाव, ट्रैक बिछाने और सफाई के काम सभी को समय-समय पर निजी कंपनियों को सौंपा जा रहा है।

लेकिन सबसे खतरनाक निजीकरण का कदम भारतीय रेलवे वित्त निगम लिमिटेड (IRFCL), जो एक तरह की वित्तीय होल्डिंग कंपनी है और जिसके पास रेलवे की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा है में सरकार की हिस्सेदारी को कम करना है । मार्च 2021 तक भारतीय रेलवे वित्त निगम लिमिटेड (IRFCL) में सरकार की हिस्सेदारी घटकर 86.36% रह गई है। IRFCL को वित्तीय संस्थानों के साथ-साथ निजी वित्तीय बाजारों से व्यावसायिक रूप से धन उधार लेकर भारतीय रेलवे के वित्तपोषण का काम सौंपा गया है। एक जटिल व्यवस्था के माध्यम से यह निजी खिलाड़ियों से रोलिंग स्टॉक भी खरीदता है और उन्हें भारतीय रेलवे को 30 साल के आधार पर इतनी जटिल शर्तों पर पट्टे (lease) पर देता है कि कोई भी परिचालन नुकसान पूरी तरह से भारतीय रेलवे की किताबों (रिकार्डों) में प्रतिबिंबित नहीं होगा। यदि IRFCL में 49% हिस्सेदारी निजी कॉरपोरेट के हाथों में चली जाती है, तो रेलवे की नीतियों और फैसलों पर रेलवे नौकरशाही की अपनी पकड़ कमजोर हो जाएगी और कॉरपोरेट्स अपनी शर्तों को थोपना शुरू कर देंगे। यह तय है।

मुकेश अंबानी ने पहले ही भारतीय रेलवे को डीजल बेचना शुरू कर दिया और अडानी ने 50 मेगावाट बिजली 3.60 रुपये प्रति यूनिट की उच्च कीमत पर बेचकर शुरुआत की है, जबकि सौर्य ऊर्जा भारतीय बाजार में लगभग आधी दर पर उपलब्ध है! हम आपको यह भी बताते चलें कि सरकार इस बात से भी सबक नहीं ले रही कि इससे पूर्व रेलवे के निजीकरण की एक कोशिश असफल साबित हो चुकी है। एक बड़ी टिकट निजीकरण परियोजना के लिए 100 लाभदायक रेल मार्गों को निजी बोलीदाताओं को 30,000 करोड़ रुपये में सौंपना था। पर जुलाई 2021 तक केवल दो बोलीदाता आगे आए। इनमें एक भारतीय रेलवे नियंत्रित कंपनी थी- आईआरसीटीसी (IRCTC), जिसके शेयरों को सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी बनाने के लिए विनिवेश किया गया था। दूसरा हैदराबाद स्थित मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड थी। दिवंगत जयपाल रेड्डी ने बाद में प्रेस में इसे एक "क्रोनी कैपिटलिस्ट" संगठन होने का आरोप लगाया था, जिसे तेलंगाना के सीएम केसीआर द्वारा 60,000 करोड़ रुपये बांध निर्माण के अनुबंध हेतु दिए गए थे। हालांकि निजी कंपनियों से खराब रिस्पांस मिलने के कारण, रेलवे ने 100 निजी ट्रेनों के लिए मूल बोली को रद्द कर दिया। अहमदाबाद और दिल्ली तथा दिल्ली और लखनऊ के बीच चलने वाली दो तेजस एक्सप्रेस ट्रेनों को भी कोरोना महामारी के दौरान रद्द कर दिया गया था। हालांकि इन ट्रेनों को जुलाई 2021 में आईआरसीटीसी की ओर से शोपीस के रूप में फिर चलाया गया लेकिन टिकट की कीमत हवाई किराए के बराबर होने के कारण उसमें सफर करने में यात्री को खास उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। ट्रेन की आधी सीटें खाली रह रही हैं। इस प्रकार निजी ट्रेनों के संचालन के लिए निजी कंपनियों को 100 से अधिक आकर्षक मार्ग सौंपना एक बड़ा फ्लॉप शो बन गया है। फिर भी सरकार कई अन्य माध्यमों से भारतीय रेलवे के निजीकरण को तेजी से आगे बढ़ा रही है।

रेलवे के निजीकरण की ओर कदम बढ़ाता एक तरीका है विनिवेश का। लेकिन रेलवे के विनिवेश को सफल बनाने के लिए यह एक चालाकी से किया गया प्रयास है। विनिवेश अब तक दो पूर्ण स्वामित्व वाली भारतीय रेलवे कंपनियों कॉनकॉर और आईआरसीटीसी का निगमीकरण करके किया गया है। केंद्र ने एलआईसी (LIC)और पीएसयूज़ (PSUs) को कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (कॉनकॉर) और इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन (IRCTC) के शेयर खरीदने के लिए जबरदस्ती की ताकि उनकी विनिवेश की कहानियों को एक बड़ी सफलता की तरह पेश किया जा सके। मध्यम वर्ग के निवेशकों को ठगा गया। शेयर बाजारों में लंबे समय तक सट्टेबाज़ी की उछाल (speculative surge) के बाद, जब उन्होंने 2022 में उथल-पुथल भरे दौर में प्रवेश किया, तो दोनों कृत्रिम रूप से बनाए रखे गए स्टॉक गिर रहे थे।

अक्टूबर 2021 में दो दिनों तक 30% के 'फ्री फॉल' का अनुभव करने के बाद IRCTC के शेयरों में 6 फरवरी 2022 को 8% की इंट्रा डे गिरावट देखी गई। हालांकि कम अस्थिर, कॉनकॉर के शेयर भी लगातार गिर रहे हैं, तथा आगे विनिवेश की और अधिक किश्तों के जरिये चलाया जा रहा है। ज़ाहिर है, भारतीय रेलवे में विनिवेश की सफलता की कहानी दिखाने के लिए सरकार द्वारा बाजार में हेरफेर करने की अपनी सीमाएं हैं। भारतीय रेलवे के फायनैंसेज़ पर वित्तीय तनाव के कारण मोदी ने अहमदाबाद और मुंबई के बीच एक सुपर हाई-स्पीड ट्रेन के लिए अपनी विवादास्पद बुलेट ट्रेन परियोजना को रद्द नहीं किया है। परियोजना की मूल आधिकारिक लागत 1,08,000 करोड़ रुपये बताई गई थी। लेकिन केंद्रीय बजट 2022-23 के व्यय प्रोफ़ाइल दस्तावेज़ से पता चलता है कि जापानी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एजेंसी, जिससे भारतीय रेलवे को बुलेट ट्रेन के लिए पैसे उधार लेने की उम्मीद है, केवल 239,547 मिलियन येन का ऋण दो चरणों में देगी, जो कि 15,947.99 करोड़ रुपये के बराबर है।

भारतीय रेलवे एक लाख करोड़ से अधिक की शेष राशि का भुगतान कैसे करेगा? जमीनी हकीकत से अनभिज्ञ, राजनीतिक नेतृत्व ने रेलवे अधिकारियों को 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, 2023 तक इसे पूरा करने के लिए दबाव बनाया है, ताकि उसे एक शोपीस के रूप में पेश किया जा सके। लेकिन 5 सितंबर 2021 तक सिर्फ 14,153 करोड़ रु. खर्च किए जा सके और महाराष्ट्र में आवश्यक भूमि का केवल 44% ही अधिग्रहित किया जा सका। मोदी को यह व्यक्तिगत आघात है, जिस वजह से 2026 तक परियोजना को आधिकारिक तौर पर स्थगित कर दिया गया। महाराष्ट्र में परियोजना की आलोचना करने वाली विपक्षी सरकार के होते हुए भूमि अधिग्रहण में और प्रगति असंभव लगती है। उस समय तक लागत वृद्धि कम से कम 20,000 करोड़ रु. होने का अनुमान है ।

भूमि अधिग्रहण की बाधाओं और व्यापक विरोध के कारण, इस परियोजना पर रेलवे खर्च अटका हुआ है। एल एंड टी को दी जाने वाली 25,000 करोड़ रु.की निर्माण बोली को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है। यह परियोजना मृत प्राय है । गुजरात-केंद्रित इस परियोजना के विरोध को बेअसर करने के लिए, मोदी सरकार ने सितंबर 2021 में 10,000 करोड़ रुपये में 10 और बुलेट ट्रेन परियोजनाओं की घोषणा की है। और यह जुमलेबाज़ी का एक प्रमुख उदाहरण बन गया है क्योंकि 2022-23 के रेल बजट में इन 10 बुलेट ट्रेनों को एक रुपया भी आवंटित नहीं किया गया था!

ऐसे में रेलवे के निजीकरण को लेकर संसद में रेल मंत्री का दिया गया बयान रेलवे की जो वर्तमान स्थिति में उसे देखते हुए सरकार का रेल निजीकरण को नकारना फिलहाल नीतिगत फैसले की जगह यूटर्न ही लगता है। हालांकि रेलवे के अंदरखाने क्या चल रहा है यह तो सरकार के अगले कदमों से जगजा​हिर हो जाएगी। तब तक रेल मंत्री के संसद में रेल निजीकरण पर दिए गए बयान को हम सही मान सकते हैं। 

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