Inequality In India : मोदी सरकार में असमानता का स्तर हुआ 200 साल पहले जैसा, समाज में गैरबराबरी की खाई हुई सन 1820 जैसी

Inequality In India : हालिया 'विश्व असमानता रिपोर्ट' को देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि वैश्विक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच एवं भारत में 2021 में असमानता का स्तर पुनः 1820 के स्तर पर पहुँच गया है....

Update: 2021-12-25 06:19 GMT

(मोदी राज में भारत में बढ़ी असमानता)

डॉ. विद्यार्थी विकास का विश्लेषण

Inequality In India : समावेशी विकास भारतीय संविधान एवं पंचवर्षीय योजनाओं (Five Year Plan) का मूल उद्देश्य रहा है लेकिन आर्थिक संवृद्धि एवं विकास का लाभ समान रूप से सभी राज्यों, सभी, जिलों, सभी प्रखंडों, सभी पंचायतों, एवं सभी सामाजिक वर्गों तक समान रूप से नहीं पहुंचा है। अगर हालिया 'विश्व असमानता रिपोर्ट' (World Inequality Report) को देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि वैश्विक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच एवं भारत में 2021 में असमानता (Inequality) का स्तर पुनः 1820 के स्तर पर पहुँच गया है। भारत में केवल 10 प्रतिशत आबादी के पास 65 संपत्ति है और निम्न 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 6 प्रतिशत संपत्ति है।

1969 में पांचवे वित्त आयोग के समय 'राज्यों के विशेष दर्जे' की संकल्पना आई। तब से अब तक 11 राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड) को यह स्पेशल दर्जा हासिल हुआ। इसका उद्देश्य आखिर क्या था? जाहिर है कि इन राज्यों के विकास के सन्दर्भ में यह महसूस किया गया कि इन्हें 'विकास' की दौड़ में 'आत्मनिर्भर' नहीं छोड़ा जा सकता है। अतः इन राज्यों को विकास परिषद एवं योजना आयोग के सिफारिश पर 'विशेष' राज्य का दर्जा दिया गया।

समावेशी विकास भारतीय संविधान (Indian Constitution) एवं पंचवर्षीय योजनाओं का मूल उद्देश्य रहा है लेकिन आर्थिक संवृद्धि एवं विकास का लाभ समान रूप से सभी राज्यों, सभी, जिलों, सभी प्रखंडों, सभी पंचायतों, एवं सभी सामाजिक वर्गों तक समान रूप से नहीं पहुंचा है। अगर हालिया 'विश्व असमानता रिपोर्ट' को देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि वैश्विक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच एवं भारत में 2021 में असमानता का स्तर पुनः 1820 के स्तर पर पहुँच गया है। भारत में केवल 10 प्रतिशत आबादी के पास 65 संपत्ति है और निम्न 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 6 प्रतिशत संपत्ति है।

1969 में पांचवे वित्त आयोग के समय 'राज्यों के विशेष दर्जे' की संकल्पना आई। तब से अब तक 11 राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड) को यह स्पेशल दर्जा हासिल हुआ। इसका उद्देश्य आखिर क्या था ? जाहिर है कि इन राज्यों के विकास के सन्दर्भ में यह महसूस किया गया कि इन्हें 'विकास' की दौड़ में 'आत्मनिर्भर' नहीं छोड़ा जा सकता है। अतः इन राज्यों को विकास परिषद एवं योजना आयोग के सिफारिश पर 'विशेष' राज्य का दर्जा दिया गया।

अब सवाल उठता है कि क्या इन राज्यों को अभी भी विशेष राज्य का दर्जा बहाल रखने की जरुरत है ? उत्तर शायद 'नहीं' होगा। क्योंकि ये सभी राज्य बिहार राज्य की अपेक्षा अधिक विकसित हो चुके हैं। हालिया नीति आयोग की रिपोर्ट देखी जाय तो स्पष्ट होता है कि 'बहुआयामी गरीबी सूचकांक- MPI Index' में 'बिहार' 36 वे पायदान पर अर्थात नीचे है और निम्नतम विकसित है। अब एक प्रश्न और उठता है कि क्या 'नीति आयोग' का 'कद' योजना आयोग की तरह नहीं है जो समावेशी विकास हेतु 'बिहार राज्य' के विशेष दर्जे की वकालत कर सकता है।

प्रावधान के अनुसार विशेष राज्य के दर्जा मिलने पर बिहार राज्य का अनुदान बढ़कर 90 प्रतिशत हो जाएगा। इसके अलावा केंद्र सरकार को 'लुक ईस्ट पॉलिसी' की समीक्षा करनी चाहिए कि- आखिर कब तक ? क्या कुछ समय के लिए इन राज्यों का 'विशेष राज्य' का दर्जा रोककर बिहार एवं अन्य ऐसे राज्यों को नहीं देनी चाहिए जो 'योजना एवं नीति आयोग' के काल में पिछड़ गए हैं ? क्या बिहार के 40 सांसदों का यह कर्तव्य नहीं बनता है कि केंद्र सरकार से मिल बैठकर रास्ता निकालना चाहिए। क्योंकि यह सवाल केवल 'राष्ट्रीय नीति' एवं 'आर्थिक विकास के नीति' का नहीं रह गया है, यह भी प्रतीत होता है कि यह सवाल केवल 'नीति' का नहीं बल्कि राजनीति का है ? हाल में ही पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आयोजित एक सेमिनार (दिसंबर 17, 2021) में 'नीति आयोग' के सदस्य 'प्रोफ़ेसर रमेश चंद' ने कहा कि 'बिहार के विशेष' राज्य के दर्जे हेतु 'राजनीतिक स्तर' पर प्रयास करना अधिक प्रासांगिक होगा।

इस परिदृश्य में, प्रसिद्ध कहावत है कि अगर 'माला' की कोई श्रृंखला कमजोर है तो वह कभी भी टूट सकता है। अतः उपरोक्त सन्दर्भ में 'बिहार' को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त हो इस हेतु केंद्र सरकार, नीति आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद्, एवं वित्त आयोग को गहन समीक्षा एवं मनन करनी चाहिए और बिहार राज्य के सम्मानित 40 सांसदों को केंद्र सरकार पर दबाब बनानी चाहिए।

(लेखक पटना के अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान में अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक हैं।)

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