क्या खेती और मानवाधिकार देश का अंदरूनी मामला है?

क्या कृषि और मानवाधिकार किसी देश का अंदरूनी मामला हो सकता है? भारत ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार से सम्बंधित चार्टर पर हस्ताक्षर किया है। फिर उसका पालन करना भी सरकार की जिम्मेदारी है। चार्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने को बाध्य रहता है।

Update: 2020-12-15 08:57 GMT

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण 

हमारा देश अजीब से हाथों में है - प्रधानमंत्री अमेरिका में बैठकर अबकी बार ट्रंप सरकार, का नारा लगाते हैं, तब यह अमेरिका का अंदरूनी मामला नहीं होता है। जब लगातार देश के मंत्री लोगों को पाकिस्तान भेजते हैं तब यह पाकिस्तान का अंदरूनी मामला नहीं होता, जब मीडिया चीन पर लगातार भद्दे प्रवचन सुनाता है। तब यह चीन का अंदरूनी मामला नहीं होता है, पर जैसे ही कनाडा के प्रधानमंत्री अपने देश के आंदोलनकारी किसानों पर होने वाली पुलिस बर्बरता की बात करते हैं, तब यह भारत का अंदरूनी मामला हो जाता है।

कुछ दिनों पहले ही गुरु नानक के 551वें प्रकाश पर्व ही जब हमारे प्रधानमंत्री वाराणसी में देव दीपावली के दिए जला रहे थे और लेसर शो पर कैमरे के सामने थिरक रहे थे, तब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो वहां के सिख समुदाय को संबोधित करते हुए भारत में आंदोलनकारी किसानों पर सरकार के इशारे पर होने वाले पुलिसिया जुर्म पर संवेदना प्रकट कर रहे थे और इसे मानवाधिकार हनन का मुद्दा बता रहे थे। जाहिर है, इस सरकार को विरोध के सुर एकदम पसंद नहीं हैं और सरकार ने कनाडा के राजदूत को बुलाकर एक चेतावनी दी और इसे भारत का अंदरूनी मामला बताया।

इस वाकया से एक प्रश्न तो जरूर उठता है। क्या कृषि और मानवाधिकार किसी देश का अंदरूनी मामला हो सकता है? भारत ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार से सम्बंधित चार्टर पर हस्ताक्षर किया है। फिर उसका पालन करना भी सरकार की जिम्मेदारी है। चार्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने को बाध्य रहता है। इसमें अभिव्यक्ति की आजादी और सरकार की नीतियों के विरुद्ध आंदोलन का अधिकार है। यह अधिकार तो हमारा संविधान भी देता है। वैसे भी, हाल के अंादोलनों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का तो देश के मंत्री ही बना देते हैं। जब वे इसमें पाकिस्तान और चीन का हाथ बता देते हैं, खालिस्तान का हाथ बताते हैं जाहिर है, सरकार के मंत्री ही इसे देश का अंदरूनी मामल नहीं रहने देते।

खेती और किसानों से संबंधित लगभग हरेक मसला वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन द्वारा संचालित जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ से संचालित होता है। यह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं। मनमोहन सिंह सरकार ने इसके किसानों से संबंधित कृषि संबंधित बिन्दुओं को मानने से साफ़ इनकार कर दिया था और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन को छोड़ने की धमकी भी दी थी, पर मोदी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है। मोदी सरकार के इस सोच के पीछे ट्रम्प का हाथ था, जो स्वयं अमेरिका में किसानों को भारी भरकम सब्सिडी के तो हिमायती थे, पर भारत समेत दूसरे देशों में बंद कराना चाहते थे। भारत में अमेरिका जैसे किसानों को सीधा सब्सिडी नहीं मिलाती है, यहाँ किसानों की सुविधा के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस का प्रावधान है और यही मोदी सरकार के निशाने पर है। किसानों की हालत ऐसी है कि उन्हें मिनिमम सपोर्ट प्राइस भी नहीं मिलाती, फिर इससे अधिक की कल्पना तो की ही नहीं जा सकती। मोदी सरकार किसानों को यही सब्जबाग दिखा रहे हैं और बता रहे हैं कि उनकी फसलें तो मिनिमम सपोर्ट प्राइस से भी अधिक कीमत पर बिकने लगेंगी और जल्दी ही उनकी आय दुगुनी हो जायेगी। किसानों को पता है कि इन सारे कानूनों के बाद आय आधी भी रह जाए तो गनीमत है और संभव है अपनी जमीन से भी हाथ धोना पड़े।

अब जब किसान, खेती और उपज सबकुछ जनरल अग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ का हिस्सा है तो जाहिर है कि यह किसी देश का अंदरूनी मसला नहीं हो सकता, जब किसी उपज का आयात-निर्यात करने लगते हैं तब भी यह देश का अंदरूनी मसला नहीं रह जाता। खेती और मानवाधिकार को अंदरूनी मसला बताना और कनाडा को धमकी देना, दरअसल एक खीज का प्रदर्शन है जो कश्मीर के अनुच्छेद 370, नागरिकता क़ानून और अब किसानों के आंदोलन से उपजी है और अधिकतर लोकतांत्रिक देश सरकार के रवैय्ये पर उंगलियाँ उठा रहे हैं। अमेरिका में ट्रंप से मोदी जी की बढ़ती नजदीकियां पहले अधिकतर लोकतांत्रिक देशों को ऐसे मसाले पर खामोश रखती थीं, पर अब ट्रंप के जाने के बाद शायद ऐसा नहीं होगा।

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