Kanhaiya Kumar और दल-बदल : निजी नायकत्व को विचारधारा पर तरजीह देने की वकालत करने वालों को सबक
Kanhaiya Kumar: कांग्रेस में शामिल होते वक्त जो बातें उन्होंने कही, वह भी केवल अपने रास्ता बदलने को जायज ठहराने के लिए गढ़ा गया शब्दजाल है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस बचेगी तभी देश बचेगा.....
इन्द्रेश मैखुरी का विश्लेषण
Kanhaiya Kumar जनज्वार। कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) के कांग्रेस (Congress) में शामिल होने से पहले दो बातों की बहुत चर्चा रही। उनके हवाले से कई दिनों से यह बात घूम रही थी कि वे अपनी पार्टी यानि भाकपा (CPI) में घुटन महसूस कर रहे थे। दूसरी बात उनके कांग्रेस में शामिल होने के ऐन पहले चर्चा में रही कि वे पार्टी दफ्तर में अपना लगाया एसी भी उखाड़ कर ले गए। ये दो बातें उनके राजनीतिक व्यक्तित्व को काफी हद तक परिभाषित कर देती हैं। कम्युनिस्ट पार्टी में जिसे निजी एसी चाहिए हो, उसे कम्युनिस्ट पार्टी में घुटन महसूस होना लाजिमी है।
इस मसले के चर्चा में आते ही मुझे बरबस ही बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान जेएनयू के साथियों से सुने हुए किस्से याद आ गए। एक साथी ने उन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कन्हैया तो भाकपा (CPI) का मोदी (Narendra Modi) है। यह चौंकाने और धक्का पहुंचाने वाले टिप्पणी थी। पर इसके बाद उन्होंने जो कहा, उससे मामला स्पष्ट हो गया। उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने नोएडा (Noida) में कन्हैया को फ्लैट गिफ्ट किया है पर इसके बावजूद वे अपनी मां को राजनीतिक ब्रांडिंग के लिए बेगुसराय के टूटे-फूटे घर में रखे हुए हैं। व्यवहार का यह दोहरापन और आदमी कम्युनिस्ट पार्टी में ! घुटन तो होनी ही थी !
जब कन्हैया की व्यक्तिगत खामियों-कमजोरियों पर यहां प्रश्न उठाया जाया रहा है तो यह नहीं कहा जा रहा है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में बाकी लोग एकदम किसी भी खामी-कमजोरी से रहित होते हैं। ऐसा कतई नहीं है बल्कि जब कम्युनिस्ट पार्टी में लोगआते हैं तो समाज में व्याप्त अच्छाइयों और बुराइयों के साथ आते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी उनके नकारात्मक गुणों को एक प्रक्रिया में दुरुस्त करने की कोशिश करती है। कुछ लोग बदल जाते हैं और कुछ रास्ता ही बदल लेते हैं। कन्हैया ने दूसरा यानि रास्ता बदलने का विकल्प चुना।
कन्हैया कुमार के भीतर के अवसरवाद और जटिल मुद्दों पर स्टैंड लेने की हिचक को भी यदा-कदा चिह्नित किया जाता रहा है। जैसे उमर खालिद की गिरफ्तारी के खिलाफ दिल्ली (Delhi) में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की गयी, जिसमें वक्ताओं में कन्हैया का नाम भी शामिल था। लेकिन वे उसमें नहीं पहुंचे। उमर की गिरफ्तारी के मामले में उन्होंने मौन साधे रखना ही श्रेयस्कर समझा।
कांग्रेस में शामिल होते वक्त जो बातें उन्होंने कही, वह भी केवल अपने रास्ता बदलने को जायज ठहराने के लिए गढ़ा गया शब्दजाल है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस बचेगी तभी देश बचेगा! यह हास्यास्पद अतिशयोक्ति है। जैसे भाजपा (BJP) वालों ने देश और मोदी व भाजपा को पर्यायवाची बनाए जाने का अभियान चलाया हुआ है, मोदी की आलोचना देशद्रोह के समक्ष रखा जा रहा है, यह भी उसी तरह की बचकानी कोशिश है। देश किसी भी राजनीतिक पार्टी (Political Parties) से बहुत बड़ा है और देश तब भी था जब ये पार्टियां नहीं थी, देश तब भी रहेगा, जब ये पार्टियां नहीं रहेंगी।
भगत सिंह (Bhagat Singh) की जयंती के दिन कांग्रेस में शामिल होते हुए कन्हैया ने देश को भगत सिंह के साहस की आवश्यकता बताई। परंतु भगत सिंह सिर्फ साहस का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे वैचारिक स्पष्टता का भी प्रतीक हैं। भगत सिंह वो हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई को भी धार्मिक प्रतीकों के उपयोग से बाहर निकाला और इस मसले पर कांग्रेस की अस्पष्टता के इतर समाजवाद को आजादी का लक्ष्य घोषित किया। गांधी के साथ अपने तीखे मतविरोधों को भगत सिंह और उनके साथियों ने स्पष्ट रूप से प्रकट किया।
गांधी द्वारा यंग इंडिया में लिखे लेख 'बम की पूजा' के जवाब में भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा लिखा गया लेख 'बम का दर्शन' पढ़कर उस वैचारिक संघर्ष की तपिश का अंदाजा कोई भी लगा सकता है। लेकिन अपने दल-बदल को जायज ठहराने के लिए गांधी, भगत सिंह और डॉ.अंबेडकर की पंचमेल खिचड़ी बनाने से कन्हैया नहीं चूके। यहां तक कि भगत सिंह के कथन को भी तोड़ने - मरोड़ने में उन्होंने गुरेज नहीं किया। जैसे भगत सिंह के कथन 'बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते' को आधा बोलकर कन्हैया ने कह दिया कि उस साहस की जरूरत है हमको ! भगत सिंह का पूरा कथन है- 'बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते, इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।' विचारों से किनाराकशी करते हुए स्वाभाविक है कि कन्हैया की जुबान यह कहने को तैयार न हुई होगी।
मीडिया जिनको रातों-रात स्टार बनाता है, उनके सामने सबसे बड़ा संकट उस नायकत्व को बचाना ही बन जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी (Comunist Party) चाहे बड़ी हो, छोटी हो, ताकतवर हो या कमजोर, उसमें निजी नायकत्व यानि Individual Heroism के लिए बहुत जगह न होती है, न हो सकती है। लगता है कन्हैया और उनकी पूर्व पार्टी में यह अंतरविरोध, गतिरोध के स्तर तक पहुंच गया और उसमें कन्हैया ने अपने निजी नायकत्व को कायम रखने का दूसरा ठौर चुन लिया।
यह उन तमाम लोगों के लिए भी सबक है, जो निजी नायकत्व को विचारधारा पर तरजीह देने की वकालत करते रहते हैं। नायक खड़े करना नहीं, जनता को उसकी राजनीतिक भूमिका में खड़ा करना ही कम्युनिस्ट आंदोलन का कार्यभार, चुनौती और उसकी सफलता की कुंजी है।
(लेखक सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)