कृषि संकट की सबसे ज्यादा मार झेल रहे भूमिहीन, लेकिन किसान आंदोलन से क्यों गायब है उनका मुद्दा?

भूमिहीन या खेतिहर मजदूर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा हैं। ये भूमिहीन या खेतिहर मजदूर ही वास्तविक अन्नदाता हैं। ये पूर्ण रूप से कृषि पर निर्भर हैं तथा मौजूदा कृषि संकट की सबसे ज्यादा और भीषण मार यही तबका झेल रहा है.....

Update: 2021-01-20 12:41 GMT

[ प्रतीकात्मक तस्वीर ]

राजेश कापड़ो का विश्लेषण

राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है। किसान 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर अपनी ऐतिहासिक टैक्टर परेड का मंचन करने का आह्वान कर चुके हैं। किसान आंदोलन के ध्वज के बीच मजदूर-किसान एकता जिंदाबाद का नारा लिखा हुआ है। इस मजदूर-किसान एकता का क्या अर्थ है? इस किसान आंदोलन में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के नजरिए से विचार करने से ही सच्ची मजदूर-किसान एकता की आधारशिला रखी जा सकती है। स्वामीनाथन की चर्चा हो रही है। यह स्वामीनाथन ही इस एकता का सुत्रधार बन सकता है। किसान अपने हिस्से के स्वामीनाथन को अच्छे से समझ व अभिव्यक्त कर रहा है, आज भूमिहीनों के नजरिए से स्वामीनाथन को समझने की सबसे ज्यादा जरूरत है।

हम सब जानते हैं कि स्वामीनाथन आयोग का गठन यूपीए सरकार ने गंभीर कृषि संकट का समुचित समाधान पेश करने के लिए किया था। भारत के कृषि संकट का गहन अध्ययन करने के पश्चात स्वामीनाथन आयोग ने तत्कालीन सरकार को कुल पांच रिर्पोटें सौंपी थी। आयोग ने अपनी चार रिर्पोटें क्रमशः दिसम्बर 2004, अगस्त 2005, दिसम्बर 2005 तथा अप्रेल 2005 में सरकार के सामने पेश की। पांचवी और अन्तिम रिपोर्ट 4 अक्तुबर 2006 को पेश की गई। इन रिर्पोटों में बहुत ही मूल्यवान अध्ययन सामग्री के अलावा 'तेज एवं ज्यादा समावेशी विकास' जैसा कि 11वीं पंचवर्षिय योजना में तय किया गया था, के बारे में ठोस सुझाव दिए गए हैं। आयोग की रिपोर्ट का अध्ययन करने से पता चलता है कि आयोग किसान-आत्महत्याओं पर रोक लगाने को प्रतिबद्ध दिखता है तथा भारत की कृषि में कम विकास दर को समाप्त करना चाहता है।

मौजूदा किसान आंदोलन में स्वामीनाथन के केवल एक पक्ष पर चर्चा हो रही है। किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी को बचाने के लिये स्वामीनाथन के हवाले से मोदी सरकार के तीन काले कानूनों को निरस्त करवाने के लिए आवाज उठा रहे हैं। मोदी सरकार इन तीन कानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र यानि संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को सौंपने को अमादा है।

मौजूदा किसान आंदोलन के मद्देनजर एक अन्य पहलू पर भी चर्चा करनी होगी। भूमिहीन कृषकों को इस किसान आंदोलन में सबसे आगे होना चाहिए था लेकिन यह भूमिहीन जनता इस आंदोलन से सिरे से गायब है। किसान आंदोलन के मंचों पर मजदूर-किसान एकता जिंदाबाद का नारा जरूर नजर आता है। यह सकारात्मक बात है। लेकिन यह केवल नारा ही है। यदि मजदूर और किसान इस लड़ाई को मंजिल तक ले जाना चाहते हैं तो यह एकता वास्तविक होनी चाहिए, खोखली एवं भावनात्मक नारेबाजी पर आधारित नहीं।

पंजाब से भूमिहीनों की मांग उठाने वाली कुछ यूनियनें जरूर आंदोलन में भाग ले रही हैं। लेकिन भूमिहीनों की अपनी स्वतंत्र मांगे आंदोलन में नहीं दिखाई दे रहीं। ये मजदूर यूनियनें केवल किसान आंदोलन का समर्थन करने आयी हैं। इसी प्रकार वामपंथ की तरफ झुकाव वाले मजदूर संगठन भी किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। यह उन संगठनों की राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण है।

लेकिन भूमिहीन तबका खुद व उसकी मांगे इस किसान आंदोलन के मंचों पर नहीं हैं। किसान आंदोलन का नेतृत्व अपने वर्ग चरित्र के कारण भूमिहीनों की मांग को नहीं उठा रहा। क्योंकि किसान आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः धनी किसान वर्ग से आता है। इसका मतलब यह है कि ये किसान संगठन मुख्यतः धनी किसानों की मांग ही उठा रहे हैं। ये इनकी वर्गीय सीमा है। वे इसको लांघ नहीं सकते। इसलिए धनी किसानों का यह वर्ग केवल अपने लिये सरकारी मंडी व्यवस्था व न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये लड़ रहा है।

धनी किसान बाजार के लिये पैदावार करता है तथा खुले वैश्विक बाजार में विदेशी कृषि उत्पादों के समक्ष धनी किसानों की सरकारी संरक्षण की मांग गलत भी नहीं हो सकती। धनी किसानों के आंदोलन की धार मौजूदा समय में भूमंडलीकरण की वैश्विक नीतियों के खिलाफ है। इसलिये मजदूर वर्ग सहित देश के तमाम देशभक्तों को इस आंदोलन का समर्थन करना चाहिये। भूमिहीन तबकों को भी निसंदेह इस आंदोलन को समर्थन करना चाहिए तथा इस भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। लेकिन भूमिहीनों को इस किसान आंदोलन का मौन समर्थन नहीं करना चाहिये।

भूमिहीनों को इस किसान आंदोलन में अपनी स्वतंत्र मांग सामने रखकर ही भाग लेना चाहिये। क्योंकि भूमिहीन या खेतिहर मजदूर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। ये भूमिहीन या खेतिहर मजदूर ही वास्तविक अन्नदाता हैं। ये पूर्ण रूप से कृषि पर निर्भर हैं तथा मौजूदा कृषि संकट की सबसे ज्यादा और भीषण मार यही तबका झेल रहा है। जब स्वामीनाथन आयोग ने ग्रामीण जनसंख्या के सामने मुंह बाये खड़े आर्थिक संकट की पड़ताल की थी तो यह भूमिहीन खेतिहर मजदूर तबका भी उस पड़ताल का हिस्सा था।

भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिये भी स्वामीनाथन आयोग ने कुछ महत्वपूर्ण समाधान बताए थे। जब वर्तमान किसान आंदोलन में स्वामीनाथन आयोग के हवाले से किसानों के लिए एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य या कृषि उपजों के लिए लाभकारी मूल्य की मांग उठाई जा रही है, तो भूमिहीनों के लिये कृषि भूमि वितरण की न्यायसंगत मांग भी इस किसान आंदोलन के मंचों पर उठनी चाहिये। स्वामीनाथन आयोग किसानों के लिए बाजार में लाभकारी मूल्य तथा भूमिहीनों के जीवन यापन के लिए कम से कम एक-एक एकड़ खेती की जमीन वितरित करने की वकालत एक साथ करता है। मौजूदा किसान आंदोलन को भूमिहीनों के लिये जमीन की मांग अपने मंच से उठानी चहिये। भूमिहीनों को भी आगे बढ़कर अपना दावा पेश करना चाहिये।

ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं। खेतिहर मजदूरों का 90 प्रतिशत से ज्यादा दलित जातियों से आता है। दलितों की आवाज उठाने वाले अंबेडकरवादी संगठन भी दलितों के लिये जमीन की मांग नहीं कर रहे। सोशल मीडिया पर दलितों को जातिसूचक गाली देने पर बड़ा विरोध हो जाता है। ये गलत नहीं है। परन्तु दलितों की मुख्य मांगों पर भी आवाज उठानी चहिये। अंबेडकरवादियों के आह्वान पर शायद ही भूमिहीन दलितों के लिये जमीन की मांग की जाती है। अंबेडकरवादियों व किसान संगठनों, दोनों को स्वामीनाथन आयोग को जरूर पढ़ना चाहिये।

स्वामीनाथन आयोग की चौथी रिपोर्ट का एक अंश देखना मजेदार होगा। इसमें आयोग बिल्कुल शुरूआत में ही पेज संख्या 2 पर लिखता है- कृषि में नीतिगत सुधारों की अत्यंत आवश्यकता है। ऐसे नीतिगत सुधार छोटे किसानों, महिलाओं और भूमिहीन कृषि श्रमिकों के पक्ष में होने चाहिये।

यदि हम तात्कालिकता व प्रतिबद्धता के साथ छोटे व भूमिहीन श्रमिक परिवारों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देगें तो....अत्यंत अल्पपोषण, गरीबी और वंचना की स्थिति न केवल बनी रहेगी बल्कि इससे सामाजिक असंतोष और हिंसा तथा अधिकाधिक मानव असुरक्षा में वृद्धि होगी। ठीक ऐसी ही चेतावनी खुद बाबा साहब अंबेडकर भी सविधान सभा के अपने उद्घाटन भाषण में दे चुके हैं, जब उन्होनें कहा था कि हम एक अंतर्विरोधों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहां हम राजनीतिक रूप से समान होंगे और सामाजिक व आर्थिक रूप से असमान। हम अपने आर्थिक व सामाजिक जीवन में आखिर कब तक इस गैर बराबरी को जारी रखेंगे? हमें इसको जितना जल्दी हो समाप्त कर देना चाहिये। यह गैर बराबरी एक दिन इस लोकतंत्र को खतरे में डाल देगी।

खेती व खेती पर काम करने वाले गरीब व भूमिहीन किसानों, महिलाओं के प्रति व्यवस्थाजनक लापरवाही की तरफ इशारा करते हुये आयोग आगे लिखता है- ऐसे संस्थान जिनसे किसानों की सहायता की उम्मीद की जाती है, जैसे अनुसंधान, विस्तार, क्रेडिट और इनपुट आपूर्ति एजेंसियां, कुल मिलाकर गरीबों और महिलाओं के पक्ष में नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, हाल ही के एनएसएसओ सर्वेक्षण से पता चला है कि लगभग 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना पसंद करेगे यदि उन्हें ऐसा करने की छूट दे दी जाये। दुर्भाग्यवश उनके लिये शहरी मलिन बस्तियों में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।

स्वामीनाथन आयोग लगातार घटती जा रही कृषि विकास दर को लेकर काफी चिंतित दिखाई है। राष्ट्रीय कृषि नीति का मसौदा पेश करते हुए अपनी चौथी रिपोर्ट की पेज संख्या 17 पर आयोग कहता है कि पिछले दशक के दौरान कृषि विकास में कमी आई है। मौजूदा राष्ट्रीय किसान नीति का मकसद इस कमी को पूरा करना तथा हमारी कृषि संबधी नीतियों के अंर्तगत बल को उन महिला और पुरूषों की तरफ मोड़ना है, जो राष्ट्र को खाना खिला रहे हैं। एक ऐसी अभिवृति से हटाना है, जो प्रगति को केवल मिलियन टन खाद्यान्न व अन्य फार्म जिन्सों से मापती है। यहां पर आयोग कह रहा है कि कृषि क्षेत्र में विकास का पैमाना कृषि पर निर्भर मेहनतकश जनता के जीवन में चहुंमुखी विकास होना चाहिये। भूमिहीन दलित कृषि से आजीविका कमाने वाला एक बड़ा ग्रामीण समुदाय है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे खराब स्तरों का जीवन व्यतीत करने को बाध्य हैं। इनको भूमिहीनता के कारण सामाजिक व आर्थिक दोनों किस्म के शोषण का शिकार होना पड़ता है।

आमतौर पर भूमिहीनों को कृषक नहीं माना जाता। लेकिन स्वामीनाथन आयोग ने अपनी मसौदा राष्ट्रीय कृषि नीति में कृषक शब्द को व्यापक अर्थों में परिभाषित करते हुये लिखा है- कृषक शब्द के अंतर्गत भूमिहीन कृषि श्रमिक, बटाईदार, काश्तकार, छोटे, सीमांत व उप-सीमांत खेतिहर, बड़े या धनी किसान, मछुआरे, डेयरी-कुक्कुट व अन्य पशुपालक किसान आदि सभी कृषक हैं।

भूमिहीन कृषकों को कृषि भूमि वितरण की सिफारिश करते हुए आयोग कहता है कि राष्ट्रीय कृषि नीति का पहला व महत्वपूर्ण कार्य भूमि-सुधार कानूनों में तय अधिकतम सीमा से अधिक कृषि भूमि का वितरण भूमिहीन कृषकों के पक्ष में करना है। अपने मिशन वक्तव्य में भी आयोग अपूर्ण भूमि-सुधारों के कार्य को पूरा करना अपना लक्ष्य बताता है। आयोग कहता है कि भूमि के छोटे भूखंड के स्वामित्व से भी परिवार की घरेलू आय और पौषाहार सुरक्षा सुधारने में मदद मिलेगी भूमिहीन श्रमिक परिवारों को प्रति परिवार कम से कम 10 सेंट उपलब्ध कराये जाने चाहिये, जिससे उन्हें रसोई उद्यान और पशुपालन के लिये स्थान उपलब्ध हो सके। क्योंकि पशुपालन और आजीविका के बीच हमारे देश में गहन संबंध है और फसल-पशुधन एकीकृत खेती किसानों के कल्याण के लिये एक मार्ग है। (स्वामीनाथन रिपोर्ट, चौथी, पृष्ठ संख्या 23, 26, 30) किसान आंदोलन में महिला किसान दिवस मनाया गया है।

स्वामीनाथन आयोग महिलाओं के नाम पर भी कृषि भूमि देने की सिफारिश करता है। आयोग कहता है कि भूमिहीनों को वितरित की जाने वाली 40 प्रतिशत जमीन का स्वामित्व उन परिवारों की महिलाओं के नाम होनी चाहिये। स्वामीनाथन आयोग ने कृषि के वर्तमान संकट और हरित क्रांति की प्रक्रिया के ह्रास के पांच बुनियादी कारण बताए हैं, जो मौजूदा संकट के मूल में हैं। ये पांच प्रमुख कारण हैं- भूमि सुधारों का अपूर्ण एजेंडा, जल की मात्रा और उसकी गुणवता, प्रौद्योगिकी की थकान, संस्थागत ऋण की पंहुच, सुनिश्चित और लाभकारी विपणन। अधिकतर छोटे किसान, मुजारे और बटाईदार, भूमिहीन कृषि मजदूर और जनजातीय किसान इन सब कारकों की वजह से सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं। (स्वामीनाथन, रिपोर्ट, तृतीय, पृष्ठ संख्या 77) आयोग ने इन पांचों कारकों में से भूमि सुधार की असफलता को प्रमुख कारक माना है। इसलिए मौजूदा कृषि संकट के निदान के लिये भूमि सुधारों पर ज्यादा बल होना चाहिये।

आयोग ने इस पर जोर देकर कहा है कि कृषि के लिए जमीन और पशुधन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने के लिए भूमि सुधार आवश्यक है। जोतों की असमानता जमीन के स्वामित्व के स्वरूप में दिखाई देती है। आयोग के अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1991-92 में नीचे के आधे से ज्यादा ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि भूमि का मात्र 3 प्रतिशत स्वामित्व था और जबकि ऊपर के 10 प्रतिशत ग्रामिण परिवारों के पास कुल जमीन की 54 प्रतिशत कृषि भूमि है। अगस्त 2010 तक उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार हरियाणा के सभी जिलों में केवल 17681 एकड़ जमीन 12687 अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को आवंटित की गई। यह कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 0.35 प्रतिशत बनती है।

कृषि गणना 2010-11 के अनुसार हरियाणा प्रदेश की कुल 16,17,311 कृषि जोतों में से दलितों के पास महज 29,015 कृषि जोतें हैं, जो प्रदेश की कुल जोतों का मात्र 1.79 प्रतिशत बनता है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों के हिस्से में कुल जोतों का 12 प्रतिशत आता है। हरियाणा को एक खुशहाल राज्य कहा जाता है। इस खुशहाली में भूमिहीन दलितों का हिस्सा नगण्य ही है। आज जबकि भूमि-सुधारों का कार्यक्रम सभी राजनीतिक दलों के एजेंडा से गायब हो चुका है, स्वामीनाथन आयोग मौजूदा कृषि संकट से निकलने के लिए गरीब व भूमिहीन किसानों के बीच कृषि भूमि के वितरण की सलाह सरकार को देता है। स्वामीनाथन भूमि सुधार करके कानून के अनुसार तय अधिकतम सीमा से ज्यादा जमीनें भूमिहीनों में बांटने की बात कहते हैं। सभी राज्यों में भूमि हदबंदी कानून हैं। इस समय पंचायती व सरकारी जमीनों को भूमिहीनों के बीच बांटने की मांग रखी जा सकती है। हरियाणा में लगभग 8 लाख एकड़ पंचायती जमीन है। 2011 जनगणना के अनुसार खेतिहर भूमिहीनों श्रमिकों की संख्या 12 लाख है।

किसान आंदोलन में जिस जिजीविषा के साथ मजदूर किसान एकता जिंदाबाद का नारा बुलंद किया जा रहा है, उसी जिजीविषा के साथ भूमिहीनों के लिये जमीन की मांग उठायी जानी चाहिये। इतना ही नहीं, खुद भूमिहीनों को आगे बढ़कर किसान आंदोलन में अपनी मांग रखनी चाहिये। तभी सच्चे अर्थों में मजदूर किसान एकता जिंदाबाद का सपना साकार हो सकता। तभी साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ भारत के मेहनतकशों की सच्ची एकता की नींव रखी जा सकेगी।

Tags:    

Similar News