मीडिया की तरह सिनेमा जगत को भी नियंत्रित कर लेने की फिराक में है मोदी सरकार, एमके स्टॉलिन का विरोध
हिंदी भाषी राज्यों का विपक्षी नेतृत्व अपनी-अपनी मजबूरी में फंसा है। पर उनके समर्थक और कार्यकर्ता जूझते नजर आ रहे हैं। विचित्र स्थिति है, अगले साल तक काफी कुछ साफ दिखना चाहिए कि देश किधर जायेगा...
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की टिप्पणी
जनज्वार ब्यूरो। काफी समय से वे भारतीय मीडिया की तरह भारतीय सिनेमा जगत को भी पूरी तरह 'अपने नियंत्रण' में लेने की ज़ोरदार कोशिश कर रहे हैं। टीवीपुरम् की तरह 'चल-चित्र पुरम्' बनाना चाहते हैं। हिंदी फिल्म जगत में उन्हें काफी हद तक कामयाबी मिली है।
वे और बडी कामयाबी चाहते हैं। तमिल, मलयालम, बांग्ला, कन्नड़ सिनेमा हो या बॉलीवुड का विशाल हिंदी फिल्म संसार, सबको 'हिंदुत्वा दृष्टि' के अनुकूल बनाना चाहते हैं। इसके लिए बॉलीवुड में अपने कुछ समर्थक-कलाकारों निर्माताओं और निर्देशकों का एक बड़ा संघ या समूह भी बनाया है।
इधर, सिनेमा जगत पर अपना राष्ट्रव्यापी शिंकजा कसने के लिए 'चलचित्र अधिनियम-1952' यानी सिनेमेटोग्राफी एक्ट-1952 में कुछ बेहद आपत्तिजनक संशोधन करने का केंद्र सरकार ने फैसला किया है। संसद में बहुमत है तो संशोधन का पारित होना लाजिमी है। लेकिन संशोधन न सिर्फ अनुचित अपितु असंवैधानिक भी नजर आ रहा है। सुप्रीम कोर्ट का एक पुराना फैसला भी इसके आड़े आयेगा। कानूनी संशोधन का मकसद एक ही है कि कैसे दिल्ली से ही पूरे देश के सिनेमा को अपने हिसाब से 'रेगुलेट' किया जाय। राज्यों के अधिकार को निष्प्रभावी कर दिया जाय।
देश के सिनेमा जगत के असंख्य लोगों ने इस सरकारी कदम को खतरनाक और भारतीय सिनेमा को बर्बाद करने वाला संशोधन माना है। ऐसे तमाम सिनेमाकारों-निर्देशकों को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री M K Stalin से बड़ी ताक़त मिली है। स्टालिन ने मोदी सरकार से कानून में संशोधन का अपना फिल्मजगत-विरोधी प्रस्ताव वापस लेने को कहा है।
अब सोचिये, हिंदी भाषी प्रदेशों के बारे में जहां सिनेमा प्रेमियों का विशाल संसार बसता है, पर इन प्रदेशों के ज्यादातर नेताओं (जो आज विपक्ष की मुख्य शक्ति हैं) को तो अंदाज भी नहीं होगा कि भारतीय सिनेमा को लेकर संघ-भाजपा आदि का दूरगामी-प्रकल्प क्या है और कानूनी संशोधन के इस तात्कालिक कदम के क्या मायने हैं? ऐसे दलों के प्रतिनिधि अनेक नाजुक मुद्दों पर केंद्रित विधायी संशोधनों को सदन में समझ भी नही पाते क्योंकि उनके शीर्ष नेता को भी उस बारे में ज्यादा मालूम नहीं रहता। ऐसे ज्यादातर दलों के पास कोई व्यवस्थित थिन्कटैंक भी नही है कि वह पार्टी नेतृत्व को समझाए।
ऐसी पार्टियों के नेतृत्व को तो बस अपनी राजनीतिक दुकान आबाद रखने में रुचि है। बाकी बातें गौण हैं। कुछ मोटी-मोटी बातों पर बयान आदि जरूर देते रहते हैं जैसे सेकुलरिज्म, सामाजिक न्याय और बहुजन हित, पर इन शब्दों और जुमलो के क्या मायने हैं और कहां तक फैला है उनका दायरा, हिदीभाषी क्षेत्र के अधिसंख्य नेताओं को इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम। इन्हें अपने-अपने निजी पारिवारिक हितों के संरक्षण से ही फुर्सत नही है।
फिर ये उस 'परिवार' से क्या और कैसे लड़ेंगे, जो भारत को उसकी लोकतांत्रिक-संवैधानिकता से वंचित करने में दिन-रात जुटा हुआ है। उसका लक्ष्य 'अतीत के अपने मनपसंद (राजा-प्रजा वाले) राज्य' की वापसी है, जिसे वह 'हिन्दुत्व वादी राष्ट्र' या 'हिन्दू राष्ट्र' कहता है। हिन्दू राष्ट्र की इसी धारणा को डा बी आर अम्बेडकर ने भारत और उसके भविष्य के लिए बड़ा खतरा बताया था और उसे हर हाल में रोकने का आह्वान किया था।
आशा की बस एक ही किरण दिखती है, दक्षिण में तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक (का एक हिस्सा), पूरब में बंगाल और पश्चिम में पंजाब आदि इनके लोकतंत्र-विरोधी एजेंडे का खुलकर विरोध कर रहे हैं। सामाजिक स्तर पर किसान, मजदूर छात्र-युवा और सरकारी उपक्रमों के कर्मचारी इनके हिन्दुत्व एजेंडे की असलियत समझ चुके हैं। बस हिंदी भाषी राज्यों का विपक्षी नेतृत्व अपनी-अपनी मजबूरी में फंसा है। पर उनके समर्थक और कार्यकर्ता जूझते नजर आ रहे हैं। विचित्र स्थिति है, अगले साल तक काफी कुछ साफ दिखना चाहिए कि देश किधर जायेगा।
(उर्मिलेश की यह टिप्पणी उनकी एफबी वॉल से)