महिलाओं को गर्भपात के अधिकार से वंचित करने की अभियान में अमेरिका भी शामिल

इस क़ानून के तहत गर्भपात को कानूनी मान्यता तो मिल गई, पर इसमें महिलाओं को निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया है...

Update: 2020-10-25 16:01 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

हाल में ही अमेरिका ने एक ऐसे घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसपर हस्ताक्षर करने वाले अन्य देश तानाशाही, घुर दक्षिणपंथी विचारधारा, मानवाधिकार और महिलाओं के अधिकारों के हनन के लिए कुख्यात है। इस घोषणा पत्र के अनुसार गर्भपात को अवैध करार दिया गया है। यह ट्रम्प की विदेशनीति, जिसके तहत पुरातनपंथी और कट्टरवादी सरकारों से नजदीकियां बढाने का एक महत्वपूर्ण कदम है। इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले लगभग सभी देश असहिष्णुता और नागरिकों के दमन के लिए जाने जाते हैं, और जनतांत्रिक इंडेक्स और महिला विकास से जुड़े सभी इंडेक्स में सबसे नीचे के क्रम में शामिल रहते हैं। इसमें अमेरिका के अतिरिक्त इंडोनेशिया, ब्राज़ील, ईजिप्ट, हंगरी, पोलैंड, यूगांडा, कांगो, बेलारूस, सऊदी अरब, बहरीन, यूनाइटेड अरब एमिराट्स, इराक, सूडान, साउथ सूडान और लीबिया समेत कुल 31 देश हैं।

इस घोषणापत्र को जिनेवा कांसेंसस डिक्लेरेशन टू प्रमोट विमेंस राइट्स एंड हेल्थ का नाम दिया गया है। पर इसके अनुसार महिलाओं को गर्भपात का अधिकार नहीं होगा। इस घोषणापत्र में शब्दों को इस तरह से सजाया गया है, जिससे यह महसूस हो कि इसे महिलाओं के अधिकार और लैंगिक बराबरी के लिए बनाया गया हो। इसमें जितने देश शामिल हैं उनमें से अधिकतर देश जार्जटाउन यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित वीमेन, पीस एंड सिक्यूरिटी इंडेक्स में सबसे निचले पायदान के 20 देशों में शामिल हैं। कुल 166 देशों की सूचि में साउथ सूडान 163वें, इराक 162वें, कांगो 161वें, लीबिया 158वें और सूडान 157वें स्थान पर है। दूसरी तरफ सबसे ऊपर के बीस देशों में केवल अमेरिका 19वें स्थान पर शामिल है। पोलैंड ने हाल में ही अपने यहाँ गर्भपात पर पूरी तरह से पाबंदी से सम्बंधित क़ानून को लागू किया है।

इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर के लिए ट्रम्प प्रशासन पिछले 2 वर्षों से दूसरे देशों से आग्रह कर रहा है, पर इससे जुड़ने के लिए कोई भी लोकतांत्रिक देश शामिल नहीं है। अधिकतर मानवाधिकार और लैंगिक समानता के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका इस मुहीम में पूरी तरह असफल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के कुल 193 सदस्य देशों में से केवल 31 देशों ने इसपर हस्ताक्षर किये हैं और लगभग सभी देश लैंगिक समानता और लोकतंत्र से बहुत दूर हैं।

अमेरिका ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करते हुए इसे ऐतिहासिक पल बताया, और अमेरिकी प्रतिनिधि ने कहा कि ट्रम्प प्रशासन में मानवाधिकार और मनुष्य जीवन की गरिमा सुरक्षित करने के लिए जितने काम किये गए हैं, उस तरह के काम अमेरिका के इतिहास में कभी नहीं किये गए हैं।

हमारा देश वैसे तो जार्जटाउन यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित वीमेन, पीस एंड सिक्यूरिटी इंडेक्स में शामिल कुल 166 देशों में 133वें स्थान पर है, और महिलाओं की समाज में स्थिति भी अच्छी नहीं है, फिर भी अधिकतर मामलों में गर्भपात को कानूनी मान्यता मिली है। सरकारों ने इस विषय पर 1960 से ही ध्यान देना शुरू कर दिया था, और फिर देश में किसी गर्भपात क़ानून की जरूरत है या नहीं विषय पर आकलन के लिए शांतिलाल शाह कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने इसकी जरूरत से सम्बंधित सुझाव दिए और फिर मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 लागू हुआ। इससे पहले गर्भपात इंडियन पेनल कोड की धारा 312 के तहत दंडनीय अपराध था। इस क़ानून के बाद भी इंडियन पेनल कोड की यह धारा बदस्तूर जारी है।

इस क़ानून के तहत गर्भपात को कानूनी मान्यता तो मिल गई, पर इसमें महिलाओं को निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया है। इसीलिए इस क़ानून में गर्भपात शब्द का उपयोग भी नहीं किया गया है, इसके बदले एक तकनीकी शब्द मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी का इस्तेमाल है। इसके तहत निर्णय का अधिकार पूरी तरह डोक्टरों को दिया गया है। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालयों ने अनेक मामलों में यह निर्णय दिया कि महिलायें बच्चे चाहती हैं या नहीं इसका पूरा अधिकार महिलाओं का है। इन निर्णयों के बाद इसी वर्ष जनवरी में केंद्र सरकार ने इस क़ानून में संशोधन कर गर्भपात को महिलाओं के प्रजनन अधिकार और लैंगिक न्याय में शामिल किया।

आधुनिक दौर में महिलाओं का सम्मान करने वाले सभी समाज में गर्भपात को महिला अधिकारों से जोड़ कर देखा जाता है। गर्भपात महिलाओं को निर्णय का अधिकार देता है कि वे क्या करना चाहती हैं, पर यह अधिकार शुरू से ही दक्षिणपंथियों और कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा है। हरेक धर्म के चरमपंथी इसका विरोध करते हैं, पर आधुनिक समाज में गर्भ को बचाने या इसे गिराने का अधिकार महिलाओं के हिस्से आता है।

Tags:    

Similar News