मोदी जी का चमकता बिहार, बच्चों की कब्रगाह
बिहार में हरेक आठवें मिनट में एक नवजात की हरेक पांचवें मिनट में एक शिशु की जान जाती है। राज्य में हरेक वर्ष लगभग 28 लाख बच्चे पैदा होते हैं, जिसमें से 75000 से अधिक बच्चों की मौत जन्म के बाद एक महीने के भीतर ही हो जाती है...
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। सेव द चिल्ड्रेन नामक गैर-सरकारी संस्था ने बिहार चुनावों से पहले वहां के बच्चों के साथ मिलकर उनका मिजाज और मांगें जानने का प्रयास किया था। बच्चों की मांगों में प्रमुख था – सुलभ शिक्षा, गाँव तक रोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम, सभी बच्चों का कोविड 19 से संरक्षण, हरेक विद्यालय में साफ़-सुथरा और पानी के साथ शौचालय, हरेक विद्यालय में साफ़ और सुरक्षित पानी, ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में छात्राओं के लिए सैनिटरी नैपकिन की उपलब्धता, बाल-विवाह और बंधुवा मजदूर उन्मूलन और हरेक जिले में पोस्को न्यायालय।
सेव द चिल्ड्रेन ने अपनी तरफ से इन मांगों को राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों में स्थान दिलाने का बहुत प्रयास किया, पर जाहिर है इन मांगों पर किसी भी राजनीतिक दल ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
यूनिसेफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 4.7 करोड़ बच्चे हैं, और कुल आबादी की तुलना में बच्चों का प्रतिशत किसी भी राज्य की तुलना में सबसे अधिक है। जाहिर है, इतनी बड़ी संख्या की मांगों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, पर बच्चे वोट नहीं देते इसलिए इनकी मांगों पर राजनीतिक दल ध्यान देना जरूरी नहीं समझते।
बिहार की 33.74 प्रतिशत आबादी गरीब है, और यह राज्य प्रति व्यक्ति आमदनी के सन्दर्भ में देश का सबसे पिछड़ा राज्य है। दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में नीतीश बाबू का उल्लेख कुछ इस अंदाज में करते हैं मानो विकास का दूसरा नाम नीतीश बाबू हो।
यूनिसेफ़ इंडिया के अनुसार बिहार में हरेक आठवें मिनट में एक नवजात की हरेक पांचवें मिनट में एक शिशु की जान जाती है। राज्य में हरेक वर्ष लगभग 28 लाख बच्चे पैदा होते हैं, जिसमें से 75000 से अधिक बच्चों की मौत जन्म के बाद एक महीने के भीतर ही हो जाती है। राज्य में बच्चों के टीकाकरण की दर 69 प्रतिशत है।
भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा कराये जाने वाले नॅशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के अनुसार देश के लगभग 38 प्रतिशत बच्चों में कुपोषण के कारण उम्र के अनुसार लम्बाई कम है, पर बिहार के लिए यह 48.3 प्रतिशत है जो देश में सबसे अधिक है और 23.16 प्रतिशत बच्चों में यह खतरनाक स्तर तक पहुँच चुका है। देश में लगभग 35 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है, पर बिहार के लिए यह आंकड़ा 44 प्रतिशत है, जो देश में किसी भी राज्य की तुलना में अधिक है। इसमें से 15 प्रतिशत से अधिक बच्चों में यह समस्या बहुत गंभीर है।
दुनिया में महज 24 देशों में 10 प्रतिशत या अधिक बच्चों में लम्बाई के अनुसार वजन नहीं है, और भारत इसमें शामिल है। बिहार के 20.8 प्रतिशत बच्चों में यह समस्या है, जो देश में सबसे अधिक है। बिहार की 15 से 19 वर्ष की बालिकाओं में से 50 प्रतिशत से अधिक में कुपोषण की गंभीर समस्या है। प्रजनन की उम्र वाली 35 प्रतिशत महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता। लगभग 30 लड़कियों की शादी 18 वर्ष के पहले कर दी जाती है और लगभग 4 लाख ऐसी लड़कियां किशोरावस्था में ही माँ बन जाती हैं। बिहार में 10 लाख से अधिक 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चे बाल मजदूरी करते हैं।
नीतीश बाबू और बीजेपी के विकास का यह आलम है कि बच्चों के विकास के सन्दर्भ में सबसे पिछड़े राज्य का तमगा पाने के बाद भी बच्चों के विकास और पोषण से सम्बंधित बजट में लगातार कमी की जा रही है। वर्ष 2013-14 में इसके लिए बजट में लगभग 20.5 करोड़ रुपये का प्रावधान था, पर वर्ष 2018-19 तक यह महज 5.2 करोड़ रुपये ही रह गया।
बिहार सरकार ने वर्ष 2015 में "विकसित बिहार के लिए सात निश्चय" का ऐलान किया था, जिसके तहत बच्चों और बालिकाओं की स्थिति वर्ष 2020 तक सुधारने का दवा किया गया था। पर, 2020 के चुनाव भी बीत गए, और बच्चों और बालिकाओं की स्थिति में कहीं से कोई सुधार नहीं आया।
आज के दौर में विकास की परिभाषा बदल गई है, इसमें सड़कें, पुल और बिजली शामिल तो है, पर आबादी विकास के दायरे से बाहर कर दी गई है।