Women's Reservation Bill : 27 साल के संघर्ष के बाद मोदी ने जगायी महिलाओं में अच्छे दिनों की उम्मीद, मगर असल सवाल आखिर यह लागू कब होगा
Nari Shakti Vandan Adhiniyam : भाजपा ने महिलाओं के सामने एक बार फिर अच्छे दिन के सपने का चित्र चस्पां कर दिया है, यह सपना कब फलीभूत होगा इसे तो वक्त ही बताएगा
रामस्वरूप मंत्री की टिप्पणी
Women's Reservation Bill 2023 : संसद में महिला आरक्षण का विधेयक बिना किसी विरोध के पास हो गया है। इस विधेयक के तहत लोकसभा और विधानसभा में 33% महिला आरक्षण पर कैबिनेट की मुहर लग चुकी है। लोकसभा में जिस सहजता से यह विधेयक पास हुआ है उससे तय है कि शेष सदनों में भी यह प्रस्ताव पास हो जाएगा। यह भारतीय राजनीति में महिला हिस्सेदारी के पक्ष में एक बड़ा कदम होने जा रहा है। अब तक की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।
इस स्वागत के साथ संसद से यह सवाल भी किया जाना चाहिए कि क्या आरक्षण के भीतर भी आरक्षण की स्थिति साफ की जाएगी या फिर सिर्फ आरक्षण महज विशिष्ट वर्ग की महिलाओं तक ही सीमित रहेगा? यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आरक्षण के जिस विधेयक को अब मंजूरी मिली है, वह पिछले 27 साल से राजनीतिक गतिरोध का शिकार होता रहा है। पिछले 27 साल से धक्के खाता हुआ महिला आरक्षण बिल तमाम संशोधनों, परिमार्जन के साथ आखिरकार लोकसभा में पास हो गया है।
बिल का पास हो जाना एक बात है और उसका लागू होना एकदम दूसरी बात। फिलहाल देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियां अभी इस बिल का श्रेय लेने की होड़ में लगी हुई हैं। सत्ताधारी पार्टी जहां इस रूप में रेखांकित कर रही है कि इस बिल को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाना एनडीए या फिर भाजपा की उपलब्धि है, वहीं कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे कांग्रेस के लंबे संघर्ष का प्रतिफल और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का स्वप्न बता रही हैं।
सोनिया गांधी ने कहा है कि ‘मेरी जिंदगी का यह बहुत ही मार्मिक क्षण है। पहली बार स्थानीय निकायों में स्त्री की भागीदारी तय करने वाला संविधान संशोधन मेरे जीवनसाथी राजीव गांधी जी ही लाए थे, जिसका नतीजा है कि देशभर के स्थानीय निकायों के जरिए हमारे पास 15 लाख चुनी हुई महिला नेता हैं। राजीव गांधी जी का सपना अब तक आधा ही पूरा हुआ है। वह इस बिल के पारित होने के साथ ही पूरा होगा।'
सोनिया गांधी ने संसद में बोलते हुये इस बात पर भी ज़ोर दिया है कि ‘बिल में पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति की भागीदारी का अनुपात भी सुनिश्चित किया जाय। इसके साथ उन्होंने सरकार से इस बात की भी अपील की है इस प्रस्ताव को जल्द से जल्द लागू किया जाय। सोनिया गांधी ने कहा है कि पिछले 13 वर्षों से भारतीय स्त्रियां अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का इंतजार कर रही हैं। अब उन्हें और इंतजार करने को कहा जा रहा है। क्या भारत की स्त्रियों के साथ यह बर्ताव उचित है?
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मांग है कि ये बिल फौरन अमल में लाया जाए और इसके साथ ही जातिगत जनगणना करवाकर SC, ST और OBC महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। इस बिल को लागू करने में और देरी करना भारत की स्त्रियों के साथ घोर नाइंसाफी है। मैं कांग्रेस की तरफ से मांग करती हूं कि ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम-2023’ को उसके रास्ते की सारी रुकावटों को दूर करते हुए जल्द लागू किया जाए।
कब तक लागू होगा आरक्षण
संसद में प्रस्ताव पास हो जाने के बावजूद भी ऐसा नहीं होने जा रहा है कि यह विधेयक तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया जाय। अभी कम से कम एक दशक तो उन प्रक्रियाओं को पूरा करने में लग ही जाएगा जो आरक्षण के संदर्भ में अपनाई जाती हैं। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि महिला आरक्षण 2029 में होगा। यह भ्रामक है। वास्तव में यह 2039 तक नहीं हो सकता है। अधिकांश मीडिया रिपोर्टें परिसीमन खंड के वास्तविक महत्व को नजरअंदाज करती हैं।
अनुच्छेद 82 (2001 में संशोधित) वस्तुतः 2026 के बाद पहली जनगणना के आंकड़ों से पहले परिसीमन पर रोक लगाता है। यह केवल 2031 ही हो सकता है। अधिकांश पर्यवेक्षकों को यह याद नहीं है कि परिसीमन आयोग को अपना अंतिम परिणाम देने में 3 से 4 साल लगते हैं (पिछले को 5 साल लगे थे) । इसके अलावा, जनसंख्या अनुपात में बदलाव को देखते हुए आगामी परिसीमन काफी विवादास्पद हो सकता है। इसलिए हम 2037 या उसके आसपास ही इस रिपोर्ट को सोच सकते हैं, जिसे केवल 2039 में ही लागू किया जा सकता है।
समाजवादी पार्टी और राजद के विरोध का ध्यान रखते हुये नए बिल में इस बात का आश्वासन दिया गया है कि आरक्षण के भीतर भी आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाएगी। कैबिनेट से पारित 33 फीसद महिला आरक्षण बिल में एससी, एसटी, एंग्लो इंडियन के लिए आरक्षण का प्रस्ताव शामिल है और इसमें प्रस्ताव रखा गया है कि आरक्षण में रोटेशन प्रक्रिया का पालन किया जाए। जिसकी वजह से विधेयक के खिलाफ जाने वाली अब कोई आवाज नहीं दिख रही है।
हालांकि छह पन्नों के विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी और सीधे चुनाव से भरी जाएंगी। साथ ही, कोटा राज्यसभा या राज्य विधान परिषदों पर लागू नहीं होगा। कोटा के भीतर एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए होंगी। विधेयक में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए आरक्षण शामिल नहीं है, क्योंकि विधायिका के लिए ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। यही वह मांग थी जिसे लेकर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी पार्टियां दशकों तक महिला कोटा बिल का विरोध करती रहीं।
आरक्षण के भीतर आरक्षण लागू हुआ तो निःसन्देह यह एक बड़ा कदम होगा। इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित होगी, लेकिन पिछड़ी जाति इस आरक्षण के भीतर फिलहाल अपना हक़ नहीं तलाश पाएगी। बावजूद आधी आबादी को आरक्षण के तहत हिस्सेदारी मिलना भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बड़ा बदलाव लाने वाला कदम साबित होगा।
महिला आरक्षण से लोकसभा और विधानसभा तक महिलाओं को पहुंचाने की होड़ में लगी राजनीतिक पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढ़ाने की चिंता कितनी भी हो पर जब हमने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पार्टियों के सांगठनिक ढांचे को खंगालना शुरू किया तो स्थिति अप्रत्याशित रूप से बेहद निराश करने वाली थी। सामाजिक न्याय की मांग करने वाली पार्टियों में भी सांगठनिक स्तर पर यह हिस्सेदारी नहीं दिखती है। जिसकी वजह से कहा जा सकता है कि इन राजनीतिक पार्टियों को थोड़ी उदारता दिखाते हुये कम से कम अपने सांगठनिक ढाँचे में तो आधी आबादी को विधेयक के अनुरूप 33% हिस्सेदारी देनी ही चाहिए और उस हिस्सेदारी में पिछड़ी जाति और अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अल्पसंख्यक समुदाय की हिस्सेदारी सुनिश्चित कर देनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश की दो पार्टियां समाजवादी पार्टी और भाजपा के पास अपनी महिला इकाइयां हैं जो समानान्तर रूप से सक्रिय हैं पर अन्य पार्टियों में महिला मोर्चा का फिलहाल बूथ स्तर तक का कोई ढांचा काम करता नहीं दिखता है। बसपा में, जिस पार्टी की मुखिया स्वयं महिला हैं वहाँ राजनीतिक तौर पर उनके सिवा कोई दूसरा राजनीतिक महिला चेहरा आज तक नहीं उभर पाया। पिछले विधानसभा चुनाव में महिलाओं की चुनावी हिस्सेदारी बढ़ाने में प्रियंका गांधी ने जरूर बड़ी भूमिका निभाई थी और राजनीति के पुरुष-वर्चस्व को चुनौती दी थी। यह अलग बात है कि बिना मजबूत पार्टी संगठन के उनकी यह कोशिश अर्थपूर्ण नहीं साबित हो सकी थी। उनका नारा ‘लड़की हूँ लड़ सकती हूँ’ ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक नैरेटिव में स्त्री को एक सम्मानजनक स्थान दिलाया था पर वह इसे चुनावी परिणाम में नहीं बदल सकी थी।
फिलहाल संवैधानिक तौर पर स्त्री के हक में एक रास्ता जरूर खुला है पर अभी इस रास्ते पर चलने का हक किस समाज को कितना मिल सकेगा इसका उत्तर तो वक्त ही बताएगा और इस रास्ते पर चलने का वक्त अभी दूर है। भाजपा ने महिलाओं के सामने एक बार फिर अच्छे दिन के सपने का चित्र चस्पां कर दिया है, यह सपना कब फलीभूत होगा इसे तो वक्त ही बताएगा।
(रामस्वरूप मंत्री इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं।)