National Education Policy 2020 : नई साम्राज्यवादी गुलामी और जन-भाषाओं के कत्ल का मसौदा
National Education Policy 2020 : शिक्षा और इसके द्वारा जन-भाषाओं पर शास्त्रीय और उपनिवेशवादी भाषाओं का एकाधिकार। भारतीय जातिवादी-पुरातनपंथी तथा उपनिवेशवादी अतीत में इसकी जड़े हैं। यह एक वृहत योजना का हिस्सा है...
हरिंदर तिवारी का विश्लेषण
National Education Policy 2020 : भारत सरकार कहती है की यह शिक्षा नीति डिजिटल समय में हमें "क्या सोचें" से हटकर "कैसे सोचें" के सिद्धान्त की ओर ले जाएगी तथा यह एक बड़ा बदलाव होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) कहते है कि यह शिक्षा नीति "नए भारत" की आधारशीला रखेगी और कल्पना शक्ति को बढ़ावा देते हुए हमे "भेड़चाल" से बचायेगी। यह नयी शिक्षा नीति (New Education Policy) अध्ययन-अध्यापन के मामले में ऑनलाइन तथा डिजिटल प्लैटफ़ार्म की आवश्यकता पर ज़ोर देगी तथा बहु-विषयक (Multidisciplinary) और "प्रगतिशील विजन" पर ज़ोर के साथ एक "हल्की लेकिन सख्त" पहुँच के साथ एकल केंद्रीयकरत संस्थान के नियंत्रण मे रहेगी जिसका नाम "राष्ट्रीय उच्च शिक्षा आयोग" है।
इस उपरोक्त आधारशीला के अव्यव्यों के तौर पर "विशेष शिक्षा क्षेत्र, त्रि-भाषिय सूत्र (थ्री लैंगवेज़ फॉर्मूला)" तथा इसमे मातृ-भाषा पर मुख्य ज़ोर है जिसमे संस्कृत तथा दूसरी शास्त्रीय (Classical) भाषाओं जैसे तमिल, ओडिया, तेलगु, कन्नड और मलयालम शामिल है लेकिन उर्दू का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। इस शिक्षा नीति का अंतरराष्ट्रीयकरण करने के उद्देश्य के लिए विदेशी भाषा सीखने पर ज़ोर दिया गया है जिसमे थाई, जापानी, कोरियन, फ्रेंच, जर्मन तथा स्पेनिश शामिल हैं।
इस शिक्षा नीति में उत्तर-पूर्व और आदिवासी भाषायें नदारद हैं जिनमे अंगमी, अओ, बोड़ो, गारो, ककबरक, ख़ासी, कोनयक, लोथा, मणिपुरी, मिज़ो और सेमा तथा दूसरी अन्य भाषाए जैसे भील/भीलोंडी, गोंडि, ओराओन/कुरूक, खांदेशी, तुलु, हो, मुंडरी, कुई, कोरकू, मिशिंग/मिरी शामिल हैं। इनके सहित 454 भाषाये पूरे देश में है जो मातृ-भाषा हैं पर उनको शिक्षा में मातृ-भाषा का दर्जा नही दिया गया। अकेले उत्तर-प्रदेश में 54 भाषायें हैं जैसे अवधि, भोजपुरी, बृज-भाषा, खड़ी-बोली, बुन्देली आदि।
हमारे यहाँ एक बहुत मशहूर आम कहावत है : कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी
रोमन साम्राज्य ने पूरे यूरोप पर लेटिन भाषा थोपकर उसको कैथोलिक रोमन चर्च और रोमन साम्राज्य के अधीन बनाये रखा। कोलंबस ने लातिन अमेरिका की प्राचीन माया-इंका सभ्यता की लिपि (स्क्रिप्ट) और मूल भाषा का खात्मा किया और पूरे द्वीप पर स्पेनिश और लेटिन भाषा थोपी तथा उन्हे सदियों तक गुलाम बनाये रखा। भारत के आर्य शासकों ने संस्कृत, मुगलों ने फारसी तथा अंग्रेजों ने इंग्लिश भाषा थोपकर देश के आवाम को लूटा और अपना गुलाम बनाकर रखा। यह बात इतिहास सम्मत है कि भाषा का सवाल इंसान की चेतना से जुड़ा सवाल है और सीधा-सीधा सत्ता से जुड़ा है।
इस लेख का मुख्य विषय जन-भाषाओं पर हमले और उसके पतन से आने वाली दिमागी गुलामी से है, जो इंसान की चेतना और संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। शिक्षा में भाषा पर यह हमला रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हो रहे उर्दू तथा दूसरी आदिवासी तथा उप-राष्ट्रीयताओं की भाषाओं पर हो रहे हमलों का ही हिस्सा हैं तथा बड़े स्तर पर आर्थिक-राजनीतिक, सामाजिक, सामरिक और सांस्कृतिक बदलावो का हिस्सा है जिसके अंतर्गत सभी क्षेत्रों में एकाधिकार कायम किया जा रहा है।
शिक्षा और इसके द्वारा जन-भाषाओं पर शास्त्रीय और उपनिवेशवादी भाषाओं का एकाधिकार। भारतीय जातिवादी-पुरातनपंथी तथा उपनिवेशवादी अतीत में इसकी जड़े हैं। यह एक वृहत योजना का हिस्सा है जिसमें अतीत के पतनशील जातिवादी तथा उपनिवेशवादी नव-उदारवादी मूल्य-मान्यताये जन-मानस को जीवन-दर्शन के बतौर दिये जा रहे है तथा गैट(GAIT) और डबल्यूटीओ की पेशकश निजीकरण और वैश्वीकरण के द्वारा आरक्षण और स्कॉलरशिप का खात्मा कर दिया जाएगा।
यहाँ पर किसी के भी जहन में कुछ सवाल लाजिमी तौर पर उठेंगे कि ये तो कुछ ऐसा हुआ जैसे की आप हजारों-लाखों की संख्या में वनस्पतियों में से बस जामुन, आम, अमरूद, संतरा, पीपल, नीम को चुन ले तथा बाकी को उजाड़ना शुरू कर दे और बोले की यही वानस्पतिक विविधता है। क्या पर्यावरण एक दिन भी टिक पाएगा ? और अगर पर्यावरण नहीं बचा तो मानव जाती बच पाएगी ? इसी संकट को हल करने के लिए तो रोजाना ग्लासगो जैसे पर्यावरण सम्मेलन हो रहे है। तब क्या ये बात समझ में नहीं आती की अगर इन विविध भाषाओं का कत्लोगारत कर दिया गया तो क्या विविध परंपरायें, रीति-रिवाज, जीवन-चर्या, गीत-संगीत, कला-संस्कृति जिंदा रह पाएगी? और क्या ये मानव समाज जिंदा रह पाएगा ? सबकुछ पानी की तरह झलमल-झलमल साफ हैं फिर भी सब धृतरास्ट्र की तरह अंधे क्यूँ हो गये ? क्यूँ भूल गये की इस जान-बूझकर अंधा होने ने महाभारत को जन्म दिया था और सबकुछ नष्ट हो गया था ? बचा था बस पश्चाताप। नजीद अहमद ने ऐसी ही एक स्तिथि को अपने शेर में ब्यान किया है:
किसने वफा के नाम पे, धोका दिया मुझे
किससे कहूँ की मेरा, गुनहगार कौन है।
पूरी राज्य-मशीनरी चुप है कैबिनेट ने इस समाज विरोधी- मानव विरोधी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अमलीजामा पहनाया, संसद ने उसको सिर-माथे पर रखा, देश के सर्वोच्य न्यायालय गूंगे बहरे और अंधे हो गये, प्रिंट टीवी, साइबर और सोशल मीडिया सभी इसके बखान में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए है, किसी भी राष्ट्रीय और क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टी का इस पर नाम मात्र का भी विरोध नहीं है ना ही किसी के चुनाव घोषणा-पत्र में ये कोई मुद्दा है, पूरे दलबल से इसे लागू करने पर पिल पड़े। जब प्रगतिशील छात्र अध्यापक और बुद्धिजीवी विरोध प्रदर्शन करते है तो पुलिस-फौज क्रूर दमन करने आ जाती है।
1. 1947 की आज़ादी तथा शिक्षा नीति में भाषा का सवाल
सत्ता भाषा और शिक्षा नीति का यह गठजोड़ आज़ादी के समय से चला आ रहा है। आज़ादी के बाद देश की बागडौर पूंजीपति और जमींदारों की प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी कॉंग्रेस के हाथों में आई। देश के इसी वर्ग की आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों के हिसाब से शासक वर्ग ने अंग्रेजी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा तमाम शास्त्रीय भाषाओं को पढ़ाई-लिखाई में मुख्य तरजीह दी जिसपर अंबेडकर अबुलकलाम आज़ाद जैसे सभी नेतागण सहमत थे। उर्दू, आदिवासी, उत्तर-पूर्व और तमाम जन-भाषाओं को हाशिये पर ही पड़े रहने दिया।
1985 में राजीव गांधी की सरकार ने देश को विदेशी पूंजी के लिए खोलना शुरू कर दिया था। इसी नये आर्थिक बदलाव के साथ-साथ नई शिक्षा नीति भी 1986 में लायी गयी जो एक तरह से शिक्षा को कमोडिटी(खरीदने-बेचने की एक वस्तु) में बदलने की शुरुआत थी।1990 में पीवी नरशिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने नई आर्थिक नीति पर हस्ताक्षर किये यानि वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण। पूरे देश को साम्राज्यवादी लूट के लिए खोल दिया। इसी के अनुरूप 1992 में 1986 की नई शिक्षा नीति में बदलाव किये गये।1992 में भारत सरकार ने गैट पर हस्ताक्षर किये तथा 1995 में डबल्यूटीओ (WTO) पर।
2. 1990 की नई आर्थिक नीति शिक्षा नीति और भाषा का सवाल
हमारे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है की ये शिक्षा नीति "नए भारत की आधारशीला बनेगी"। 2014 आते आते 1990 की नई आर्थिक नीतियाँ अपने मुकाम तक पहुँच चुकी थी। देश के तमाम आर्थिक सम्पदा चाहे वह खेती हो उधयोग-धंधे हो, वित्तीय संस्थान हो, स्वास्थ्य सेवाएँ हो सभी को खुलेआम नीलाम किया जाने लगा। मजदूरो-गरीब किसानो दलितो, आदिवासियों, अल्पसंख्यको और उप-राष्ट्रीयताओ की वंचना शोषण, उत्पीड़न और हाशियाकरण अपने चरम पर पहुँच गया। अर्थवयवस्था पर कुछ मुट्ठीभर देशी-विदेशी पूँजीपतियों का एकाधिकार स्थापित हो गया, राजनीति चरम दक्षिणपंथ के एकाधिकार में पहुँच गयी, अब इनको आवाम की चेतना पर एकाधिकार करना है जिसके लिए इतिहास बदला जा रहा, जातिगत भेदो को बढ़ाया जा रहा है, क्षेत्रवादी नफरत परोसी जा रही है। ये नए भारत का निर्माण हो रहा है जहाँ मजदूरो-गरीब किसानो दलितो, आदिवासियों, अल्पसंख्यको और उप-राष्ट्रीयताओ के लिए कोई गुंजाइश नहीं है जिसमे भुखमरी में भारत 116 देशों में से 101 वें स्थान पर पहुँच गया है, प्रति-व्यक्ति कैलौरी मिलने में 5 से 10 प्रतिशत की कमी आई है जबकि मुकेश अंबानी और अडानी दुनिया के चुनिन्दा अरबपतियों की श्रेणी मे सुमार हो गये। जन-भाषाओ के खिलाफ रोजाना हर जगह मोर्चा खुला हुआ है। शिक्षा नीति में भाषाओ की बेदखली तथा इनका कत्ल करना भी इसी का हिस्सा है। मातृ-भाषा इंसान अपनी माँ के पेट मे ही सीखने लगता है पैदा होकर अपनी माँ के सिखाये मीठे-मीठे शब्द बोलता है धीरे-धीरे अपने जीने के तौर तरीके बातों से समझना शुरू करता है, तीज-त्योहार सीखता है, शादी-विवाह के तौर-तरीके जानता है, अपने पुरखो की जबान में लिखा अपना इतिहास और उनके संघर्ष पढ़ता है, अपने दोस्त-दुश्मनों की समझ हासिल करता है और अंतत: अपना एक विश्व-दृष्टिकोण बनाता है। भाषा पर इस नृशंस प्रहार का मतलब है हमारी माँ का कत्ल, हमारे पुरखो और इतिहास का कत्ल, हमारी जीवन संस्कृति और सम्पूर्ण जीवन दर्शन का कत्ल। देशी-विदेशी शासको का अस्तित्व जन-भाषाओ पर एकाधिकारी भाषाओ को थोपकर ही बच सकता है अन्यथा ये जीवित नहीं रह पायेंगे मर जायेंगे।
3. शिक्षा का निजीकरण तथा आरक्षण और स्कॉलरशिप का सवाल
2015 में भारत सरकार ने डबल्यूटीओ के साथ समझौता किया जिसके अनुसार विदेशी शिक्षण संस्थान भारत में शिक्षा में निवेश कर सकते हैं, छत्रों को डिग्री जारी कर सकते है तथा भारत सरकार ने शिक्षा को सार्वजनिक सेवा की वस्तु से बदलकर पूर्णत: कमोडिटी में बदल दिया और छात्रों को शिक्षार्थी से बदलकर खरीदार में, उपभोक्ता में तब्दील कर दिया। डबल्यूटीओ के अंतर्गत सामाजिक न्याय जैसे मसलो पर सब्सिडी देना जैसे की आरक्षण और स्कॉलरशिप "गलत तौर-तरीके हैं"(unfair practice)। जिसकी जेब में पैसे है वह पढ़े जो कीमत नहीं दे सकता उसको पढ़ने का कोई हक नहीं, वह सरकार पर बोझ है। शिक्षा के इन विदेशी सौदागरों की प्रतिस्पर्धा में भारत के तमाम विश्वविध्यालयो का स्वत: ही निजीकरण हो जायेगा, ये टिक नहीं पाएंगे। भारत के उच्च वर्ग के बेटे-बेटियों के लिए भारत में ही वैश्विक-मानक के अनुरूप शिक्षा उपलब्ध होगी जिसके लिए भारतीय और साम्राज्यवादी देशों की भाषाओं की जानकारी और उसके कला-संस्कृति, धरोहर, रीति-रिवाज, परंपराए ज़रूरी है। ये काम संस्कृत तथा दूसरी क्लासिकल भाषाए पूरा करेंगी जैसे तमिल, ओडिया, तेलगु, कन्नड और मलयालम शामिल है लेकिन उर्दू का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। इस शिक्षा नीति का अंतरराष्ट्रीयकरण करने के उद्देश्य के लिए विदेशी भाषा सीखने पर ज़ोर दिया गया है जिसमे थाई, जापानी, कोरियन, फ्रेंच, जर्मन तथा स्पेनिश शामिल हैं।
4. पशु-प्रवृति और सुअरबाड़ों का निर्माण
अब "विशेष शिक्षा क्षेत्र" को समझने की कोशिश करते हैं। इसके तहत आदिवासी इलाको में "आदिवासी आश्रम" स्थापित किये जायेंगे जिनमें सभी आदिवासी सुविधाजनक तरीके से पढ़ सकेंगे उनको देश के दूर-दराज की राजधानियों में जाने से पिंड छूटेगा। इसी प्रकार के इंतजाम मजदूरों-गरीब किसानो, अल्पसंख्यकों तथा उप-राष्ट्रीयताओ के छात्र-छात्राओ के लिये भी किये जायेंगे। जिनमे क्लासिकल भाषाओ द्वारा पतनशील भारतीय अतीत की कला-संस्कृति तथा नव-उदारवाद के उपभोक्तावाद व्यक्तिवाद, स्वार्थ, लालच और मूल्यहीनता परोसी जाएगी जो इंसान को इंसान नहीं सूअर (pig) में बदलने का काम करेंगे जिसको इस व्यवस्था के बुद्धिजीवी "एनिमल स्पिरिट" यानि "पशु-प्रवृति" पैदा करना कहते है। यानि हमारे लिए सुअरबाड़ो का इंतजाम होगा। दूसरी ओर इस देश की चमचमाती राजधानियों मे विश्व-दरजे के पाँच-सितारे विश्वविध्यालय होंगे जिनमे अमीरो की औलाद पढ़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होते है। यही है नए भारत की शिक्षा व्यवस्था जिसमे एकलव्य को शिक्षित ही नहीं होने दिया जाएगा अंगुठा काटने की नौबत ही नहीं आएंगी?
दोस्तों नई शिक्षा नीति अतीत की पतनशील भारतीय संस्कृति और साम्राज्यवादी नव-उदारवादी गुलामी के अलावा कुछ नहीं है। अगर हम आज़ाद होकर जीना चाहते है, अपनी मातृ-भाषा से प्यार करते है, अपने पुरखो और अपने इतिहास से प्यार करते है, अपने गीत-संगीत कला-साहित्य से प्यार करते हैं, और अंतत: तमाम इंसानी मूल्य-मान्यताओ से, इंसान द्वारा सँजोयी गयी तमाम धरोहर से प्यार करते है तो हमे इस मानव-विरोधी समाज-विरोधी शिक्षा नीति के विरोध में घरो से बाहर निकल आना चाहिए, नहीं तो हमे इंसान कहलाने वाली कोई भी निशानी बाकी ना रहेगी क्योंकि सब कुछ हमारी मातृ-भाषा ही सँजोकर रखती है और वही खतरे में है हत्यारे उसका कत्ल करने पर आमादा है? बाकी सबके जमीर पर छोड़ता हूँ, सोचना एकबार ज़रूर?
धूमिल के शब्दों में:
हत्यारे एकदम सामने नहीं आते
वह पुराना तरीका है आदमी को मारने का
अब एक समूह का शिकार करना है....
हत्यारे एकदम सामने नहीं आते
उनके पास है कई कई चेहरे
कितने ही अनुचर और बोलियां
एक से एक आधुनिक सभ्य और निरापद तरीके
ज़्यादातर वे हथियार की जगह
तुम्हें विचार से मारते हैं
वे तुम्हारे भीतर एक दुभाषिया पैदा कर देते हैं...
(लेखक जामिया यूनिवर्सिटी के रिसर्चर हैं)