माचिस/दियासलाई के सहारे विद्रोह और जीवन दर्शन बताती कवितायें

सुकान्त का अकाल निधन 21 वर्ष की छोटी-सी उमर में हुआ, लेकिन उनकी उर्वर रचनाशीलता और तीखे प्रगतिशील स्वर के कारण पाठक और आलोचक उन्हें बांग्ला के क्रान्तिकारी कवि नज़रुल इस्लाम से जोड़ कर "किशोर विद्रोही कवि" और "युवा नज़रुल" कहने लगे थे....

Update: 2021-08-01 12:23 GMT

(सुकांत भट्टाचार्य ने एक कविता लिखी थी, मैं दियासलाई की तीली। इस कविता का बंगला से अनुवाद प्रसिद्ध कवि नीलकमल ने किया है)

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। जीवन को सुगम बनाने वाले आविष्कारों की चर्चा के समय हम अक्सर माचिस के अविष्कार को भूल जाते हैं। पर वर्ष 1810 के आसपास सुरक्षित माचिस का आविष्कार हुआ तब यह एक बहुत बड़ी घटना थी। माचिस के आविष्कार के बाद ही आग पर मनुष्य ने नियंत्रण करना सीखा और आग को हरेक जगह पहुंचाया। हिंदी कविताओं में आग से सम्बंधित तो बहुत सारी कवितायें हैं, मशाल पर भी कवितायें हैं, पर माचिस या दियासलाई पर कम कवितायें हैं।

सुकान्त भट्टाचार्य ( 15 अगस्त 1926 - 13 मई 1947) की गिनती बांग्ला भाषा के अत्यन्त सम्मानित कवियों में होती है। हालांकि सुकान्त का अकाल निधन 21 वर्ष की छोटी-सी उमर में हुआ, लेकिन उनकी उर्वर रचनाशीलता और तीखे प्रगतिशील स्वर के कारण पाठक और आलोचक उन्हें बांग्ला के क्रान्तिकारी कवि नज़रुल इस्लाम से जोड़ कर "किशोर विद्रोही कवि" और "युवा नज़रुल" कहने लगे थे।

अंग्रेज़ी राज की निरंकुशता और पूंजीवादियों के शोषण के खिलाफ़ सुकान्त ने सदा मुखर और निर्भीक आवाज़ उठायी। सुकांत भट्टाचार्य ने एक कविता लिखी थी, मैं दियासलाई की तीली। इस कविता का बंगला से अनुवाद प्रसिद्ध कवि नीलकमल ने किया है। इस कविता में विद्रोह के स्वर भी हैं और तीली के केवल एक और क्षणिक जीवन की चर्चा भी।

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली

अति नगण्य, सबकी नज़र से ओझल

फ़िर भी बारूद कसमसाता है मुँह के भीतर

सीने में जल उठने को बेचैन एक साँस

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कैसी उथल-पुथल मच गई उस दिन

जब घर के एक कोने में जल उठी आग

बस, इसलिए कि नाफ़रमानी के साथ

बिन बुझाए फेंक दिया था मुझे

कितने घर जला कर किए ख़ाक

कितने प्रासाद धूल में मिला दिए

मैंने अकेले ही - मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कितने शहर कितनी रियासतें

कर सकती हूँ मैं सुपुर्दे ख़ाक

क्या अब भी करोगे नाफ़रमानी

क्या तुम भूल गए उस दिन की बात

जब जल उठे थे हम एक साथ एक बक्से में

और चकित तुम - हमने सुना उस दिन

तुम्हारे विवर्ण मुख से एक आर्त्तनाद ।

हमारी बेइन्तहा ताक़त का एहसास

बार-बार करने के बावजूद

तुम समझते क्यों नहीं

कि हम क़ैद नहीं रहेंगे तुम्हारी जेबों में

हम निकल पड़ेंगे , हम फ़ैल जाएँगे

शहरों कस्बों गाँवों - दिशाओं से दिशाओं तक ।

हम बार-बार जले नितान्त उपेक्षित

जैसा कि जानते ही हो तुम

तुम्हें बस यही नहीं मालूम

कि कब जल उठेंगे हम

आख़िरी बार के लिए ।

प्रसिद्ध कवि और लेखक आनंद खत्री की एक कविता है- माचिस की तीलियाँ। इसमें कवि ने इन तीलियों के बहाने अपने विद्रोह की आग को याद किया है|

बुझी हुई माचिस

की तीलियों की तरह

हम निढाल पढ़े हुए थे

सिरहाने पे।

सर की आग

पूरे जिस्म को

न जला पाई थी

मेरे गलने में अभी

एक सदी बाकी थी।

कुछ सूझता नहीं

क्यों काठ की तीली

इतनी लम्बी बनायी थी।

वो मसाला जो

तिल-सा कोने में चपका

क्या वही पहचान बनायी थी?

कुछ ताज़ा तीलियों को

देख के उस आग का

अंदाज़ महसूस होता है

जो कभी

हमारे सर भी थी।

माचिस पर एक और कविता इन्टरनेट पर उपलब्ध है, पर उसके कवि का नाम नहीं मिलता. इस कविता का शीर्षक है- आदमी की औकात।

एक माचिस की तिल्ली

एक घी का लोटा,

लकड़ियों के ढेर पे,

कुछ घंटे में राख़

बस इतनी-सी हैं

आदमी की औकात !!!

एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया,

अपनी सारी ज़िन्दगी,

परिवार के नाम कर गया,

कही रोने की सुगबुगाहट,

तो कही फुसफुसाहट,

अरे जल्दी ले जाओ

कौन रखेगा सारी रात,

बस इतनी-सी हैं…

आदमी की औकात !!!

मरने के बाद नीचे देखा, नज़ारेनजर आ रहे थे,

मेरी मौत पे…

कुछ लोग जबरदस्त,

तो कुछ ज़बरदस्ती रो रहे थे…

नही रहा….चला गया…

चार दिन करेंगे बात,

बस इतनी-सी हैं

आदमी की औकात !!!

बेटा अच्छी तस्वीर बनवायेगा,

सामने अगरबत्ती जलाएगा,

खुशबूदार फूलो की माला होगी,

अखबार में अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि होगी…

बाद में तस्वीर पे,

जाले भी कौन करेगा साफ़,

बस इतनी-सी हैं,

आदमी की औकात !!!

ज़िन्दगी भर,

मेरा-मेरा-मेरा किया,

अपने लिए कम,

अपनों के लिए ज्यादा जिया,

कोई न देगा साथ,

जाएगा ख़ाली हाथ…

क्या तिनका भी ले जाने की हैं हमारी औकात???

बस इतनी-सी हैं,

आदमी की औकात !!!

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