Savitribai Phule Jayanti 2022: सावित्रीबाई फूले नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नायिका, उनके संघर्ष को आज आगे बढ़ाना चुनौतीपूर्ण
Savitribai Phule Jayanti 2022: एक शिक्षक के साथ ही भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी सावित्रीबाई फुले। इन्हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था।
Savitribai Phule Jayanti 2022: एक शिक्षक के साथ ही भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी सावित्रीबाई फुले। इन्हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े।आज मौजूदा दौर में जब शिक्षा को बाजार के हवाले करने की ओर सरकार के कदम तेजी से बढ़ते जा रहे हैं।कोरोना काल के बहाने आॅनलाइन पढ़ाई पर जोर दिया जा रहा है,जबकि देश में मात्र 12.5 फीसद विद्यार्थी ऐसे हैं जिनके घरों में इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है।ऐसे में यह कहीं से अतिशयोक्ति नहीं होगी की संसाधनों की कमी व पिछड़ी मानसिकता के चलते बड़ी संख्या में महिलाएं शिक्षा से वंचित होने लगेंगी। जिसे पूरा करने का सपना सबसे पहले सावित्रीबाई फुले ने देखा। जिनके संघर्षो को आगे बढ़ाने में चुनौतियां और गहराने लगेंगी।
ं महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्मी सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ। आज उन्हें जन्म दिन पर याद करते हुए हम सबका फर्ज बनता है कि उन्होेंने जिन संघर्षों की शुरूवात की उसे आगे बढ़ाने का संकल्प लें। ऐसे में नारी शिक्षा को लेकर उनके किए गए प्रयास को आगे बढ़ाने व आनेवाली चुनौतियों पर चर्चा करना जरूरी बन जाता है। जहां महिलाओं को सदियों से पितृसत्ता के किए गए जुल्मों से आज भी निजात नहीं मिली है। उन्हें बाजारीकरण के दौर में शिक्षा से कैसे लाभान्वित किया जा सकेगा। जब हम आधूनिक समाज के निर्माण की बात करेंगे तो प्रारंभिक शिक्षा से बात आगे बढ़कर उच्चशिक्षा की होगी। जिससे महिलाओं को अनिवार्य से जोड़े बीना देश आधूनिकता की बात नहीं कर सकता। ऐसे सवालों को हल करने के बजाए माहौल इसके विपरित तैयार किए जा रहे हैं।
ऑनलाइन शिक्षा देने की बात करना बेईमानी
अभी तक सामान्य ऑफलाइन शिक्षा भी वंचित तबकों व महिलाओं तक पूरी तरह नहीं पहुंच पाई है। सामाजिक-आर्थिक पिछड़े परिवारों की लड़कियों ने अभी-अभी उच्च शिक्षण संस्थानों में कदम रखने शुरू ही किए थे कि आज ऑनलाइन शिक्षा और अब इस नई शिक्षा नीति के जरिये इन सभी वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा व्यवस्था से बाहर करने देने की क्रूर साजिश को अंजाम देने की पूरी तैयारी कर ली गई है।
ऑनलाइन शिक्षा भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में कोरी और खोखली परिकल्पना से अधिक कुछ भी नहीं है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में मात्र 12.5 फीसद विद्यार्थी ऐसे हैं जिनके घरों में इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। अगर इसमें भी ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों को विभाजित कर देखा जाए तो तस्वीर और भी भयानक हो जाती है। जहां एक ओर शहरों के लिए यह आंकड़ा 27 फीसद से अधिक नहीं है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 5 फीसद छात्र ऐसे हैं जिनके घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। इतने गहरे "डिजिटल डिवाइड" को ध्यान में रखे बिना ऑनलाइन पद्धति को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालयों पर दबाव बनाना कहां तक सही है? इसी बहस में यह भी जान लेना बेहद जरूरी है की जो बचे हुए 87.5 फीसद छात्र हैं जिनके पास किसी प्रकार की इंटरनेट सुविधा नहीं है उनमें से अधिकांश सामाजिक-आर्थिक पिछड़े तबकों से आते हैं।जिनमें शामिल महिलाओं की शिक्षा की बात करना तो बड़ी बेईमानी हो जाएगी।
महिला साक्षरता भी अभी तक पुरुषों के बराबर पहुंचने में संघर्ष कर रही है, ऐसे में जब ऑनलाइन शिक्षा की बात आती है तो हमारा समाज किसी भी तरह एक लड़की को सामान्य परिस्थितियों में भी इतने संसाधन उपलब्ध नहीं करवाता की वह अपनी शिक्षा पूरी कर सके। इंटरनेट और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उनके हाथों में सौंपने की बात तो छोड़ ही दीजिए। आज भी देश की आधी से भी कम महिलाओं के पास मोबाइल फोन और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। हमारा समाज आज भी इस सिद्धांत पर चलता है की महिला को दुनिया भर से जुड़े होने की छूट देना उसके चारित्रिक पतन को न्योता देना है। ऐसे में पढ़ने के लिए शायद ही कोई घर ऐसा हो जहां लड़कियों को मोबाइल फोन, लैपटॉप और इंटरनेट की सुविधा मुहैया करवाई जाएगी। इसकी बजाय सामान्य भारतीय परिवार अपने घर की लड़कियों की पढ़ाई छुड़वाना ज्यादा बेहतर समझेंगे।
महिलाओं पर घर के काम का बोझ एक पुरुष की तुलना में अधिक होता है। इस समय जब देश भर के लोग कोरोना के डर से एक बार फिर अपने घरों में कैद होने लगे हैं, ऐसे में घर की महिलाओं और लड़कियों पर घरेलू काम की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। बहुत सी छात्राएं जिनके पास ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने के संसाधन मौजूद हैं, उन्होंने अपने अध्यापकों से ऑनलाइन कक्षाओं के दौरान गैरमौजूद रहने का कारण घरेलू काम का बढ़ता दबाव बताया। महिलाओं को अपने घरों में तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ता है ऐसे में उनके लिए कक्षाएं लेना और ऑनलाइन परीक्षाएं देना किसी भी तरह संभव नहीं होता।
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के अंतर्गत साल 2019 में की गई एक स्टडी में पता चलता है की भारत में जहां एक तरफ 15 फीसद सवर्ण किसी न किसी सोशल नेटवर्किंग साईट का इस्तेमाल करते हैं, वहीं दलितों और आदिवासियों के लिए यह आंकड़ा इसका आधा ही है (8 फीसद और 7 फीसद क्रमशः) और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए यह आंकड़ा 9 फीसद है। इनमें वंचित महिलाआंे की संख्या सर्वाधिक है। इस सर्वे से यह साफ पता चलता है की इंटरनेट कनेक्टिविटी, उपलब्धता और एक्सेसिबिलिटी के आंकड़े कितने भेदभावपूर्ण और निराशाजनक हैं। इंडिया इंटरनेट रिपोर्ट 2019 के आंकड़े बताते हैं की भारत में 258 मिलियन इंटरनेट उपभोक्ता पुरुष हैं और महिला उपभोक्ताओं की संख्या इससे आधी है। इन सभी तथ्यों को अगर सामने रखा जाए तो साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ऑनलाइन शिक्षा किन सामाजिक तबकों को शिक्षा के अधिकार से वंचित किए जाने की साजशि करती है। ंऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीति निर्माताओं के पास वातानुकूलित सरकारी आवास हैं तो दूसरी ओर देश का मेहनतकश, निम्न मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग एक-दो कमरों के घरों में सामान्य से कमतर परिस्थितियों में अपना गुजारा कर रहे हैं। ऐसे में उनसे संसाधनों की उपलब्धता, कंप्यूटर और डिजिटल साक्षरता, ऑनलाइन परीक्षा और कक्षाओं में उपस्थिति की उम्मीद करना किसी क्रूरता से कम नहीं है। उसमें भी महिलाओं को लेकर उम्मीद करना तो नामुमकीन सा है। जब इन सभी तथ्यों को नजरंदाज करके ऑनलाइन शिक्षा की बात की जाती है तब देश के 80 फीसद लोगों विशेषकर महिलाओं से शिक्षा छीने जाने की घोषणा मालूम पड़ती है। किसी के पास फोन नहीं है तो किसी के पास इंटरनेट नहीं है।
संघर्षपूर्ण रहा सावित्रीबाई फुले का जीवन
आजादी के पहले तक भारत में महिलाओं की गिनती दोयम दर्जे में होती थी। आज की तरह उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं था। वहीं अगर बात 18वीं सदी की करें तो उस समय महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। एक जनवरी 1848 में पुणे की भिडेवाड़ी में लड़कियों के लिए भारत में पहला स्कूल खोला। इसी स्कूल से सावित्री बाई ने अध्यापन का काम शुरू कर भारत की पहली महिला अध्यापिका होने का गौरव हासिल किया। स्त्री के साथ ही दलितों के लिए भी शिक्षा जरूरी है इसी को ध्यान में रखकर 15 मई 1848 को उन्होंने पुणे की एक दलित बस्ती में स्कूल खोला, जहां दलित लड़के लड़कियां पढने लगे। इस स्कूल में पढाने के लिए जब कोई अध्यापक नहीं मिला तब सावित्री बाई ने वहां भी पढाना शुरू किया। पुणे की भिडेवाड़ी में पहला स्कूल खोलने के बाद मात्र 4 साल के भीतर ही 15 मार्च 1852 तक उन्होंने पूणे शहर और उसके आस पास 18 स्कूल खोले जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इन सभी स्कूलों में विद्यार्थियों के समग्र विकास को ध्यान में रखकर जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया उसमें व्याकरण, गणित, भूगोल, एशिया यूरोप व भारत के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास नीतिबोध और बालबोध जैसी पुस्तकें शामिल थीं। जिसकी प्रशंसा उस वक्त ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भी की गयी।
पुणे विश्वविद्यालय के मेजर कैन्डी ने इस विषय पर अपने वृतांत में लिखा इन स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों विशेषकर लड़कियों की लगन और कुशाग्र बुद्धि देखकर मुझे बहुत संतोष हुआ। इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है। शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई के अभूतपूर्व योगदान के लिए 1892 में राज्य शिक्षा विभाग द्वारा ज्योतिबा के साथ ही उन्हें भी सम्मानित किया गया। सावित्रीबाई भारत की पहली स्त्री शिक्षिका ही नहीं बल्कि उन्हें पहले नारी मुक्ति आंदोलन के नेतृत्व का भी गौरव हासिल है। 1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया। इस संगठन में हर 15 दिनों में सावित्रीबाई स्वयं सभी गरीब दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्या सुनती और उसे दूर करने का उपाय भी सुझाती। छोटे-छोटे ऐसे कई उद्योग जिसका प्रबंधन उन अशिक्षित महिलाओं द्वारा हो सके उसकी जानकारी उन्हें देतीं। सावित्री बाई यह अच्छी तरह से जानती थीं कि सामाज से निष्कासित इन स्त्रियों का जीवन सुरक्षित नहीं है। उनका सम्मान से जीवित रहना बड़ी चुनौती है इसके लिए उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना ही एकमात्र उपाय है जिसके लिए उन्होंने कई धार्मिक मान्यताओं को तोड़ा और स्त्रियों को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए जागरूक किया।
1874 का वर्ष ज्योतिबा के लिए महत्वपूर्ण था जब उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर एक नए वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को साकार करने का निर्णय लिया। 1890 में ज्योतिबा की मृत्यु के बाद 1893 सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्रीबाई को सौंपी गयी। सावित्रीबाई ने 4 सालों तक सत्यशोधक समाज का प्रबंधन कुशलता से किया। 1896 में महाराष्ट्र में पड़े सूखे के दौरान सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर वे रात-दिन लोगों की मदद करती रहीं। अगले ही वर्ष 1897 में पूणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी। जब अधिकांश लोग शहर छोड़कर भाग गये सावित्रीबाई और उनके पुत्र वहीं रहकर बिमार लोगों की सेवा करते रहे। प्लेग से संक्रमित एक व्यक्ति को कोई मदद न मिलने पर स्वयं सावित्री बाई अकेले ही उसे अपने कंधों पर उठाकर यशवंत के अस्पताल ले गयीं उसी दौरान वे स्वयं भी संक्रमण की चपेट में आ गयीं और इसी कारण उनकी मृत्यु हो गयी। सावित्रीबाई अपने जीवन के अंतिम दिन 10 मार्च 1897 तक इंसानियत के लिए संघर्ष करती रहीं।