Ashok Gehlot : अशोक गहलोत को अध्यक्ष बनाने से क्या कांग्रेस पर लगा वंशवाद का दाग धुल जायेगा, कितने काम का साबित होगा पार्टी के लिए यह कदम
The next Congress chief : गाँधी नेहरू परिवार से बाहर कई लोग हैं जिन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाये जाने पर चर्चा हो रही है, इन चर्चाओं में राजस्थान के मुख्यमंत्री जनाब अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है. इसलिए ये देखना ज़रूरी है कि आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में अशोक गहलोत को कांग्रेस की कमान सौंपना सही फ़ैसला होगा या नहीं...
The next Congress chief : देश एक बड़े राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है, इस संकट की बुनियाद में पूंजीवादी लूट को सहज और सुगम बनाने की साजिश है जिसे अमूमन सियासी बहसों से बाहर रखने की कोशिश की जाती है. कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कौन बने और कौन भारतीय जनता पार्टी के एकाधिकारवादी रवैये का मुकाबला करे और कैसे करे, ये दोनों सवाल आपस में जुड़े हुए हैं.
कांग्रेस पार्टी को एक वंशवादी पार्टी कहा जाता है और ये अनुशंसा की जाती है कि गाँधी नेहरू परिवार को कांग्रेस की लीडरशिप से अलग हो जाना चाहिए, इससे कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन अच्छा होगा, क्या इस अनुशंसा में कोई दम है? इस पर आगे चर्चा करेंगे.
एक राजनीतिक दल क्या सिर्फ़ अपने संगठन और लीडरशिप की बदौलत किसी देश में हुकूमत करने की सलाहियत पैदा कर सकता है? क्या सियासी नज़रिए और सियासी प्रोग्राम का भी एक पार्टी की तरक्क़ी में कोई भूमिका है, इस पर भी विचार किया जायेगा. गाँधी नेहरू परिवार से बाहर कई लोग हैं जिन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाये जाने पर चर्चा हो रही है, इन चर्चाओं में राजस्थान के मुख्यमंत्री जनाब अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है. इसलिए ये देखना ज़रूरी है कि आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में अशोक गहलोत को कांग्रेस की कमान सौंपना सही फ़ैसला होगा या नहीं!
कांग्रेस पार्टी की आलोचना में ये बात अक्सर कही जाती है कि इसे गाँधी नेहरू परिवार से आज़ाद किया जाना चाहिए, या कि कांग्रेस पार्टी एक ही परिवार की जागीर बनकर रह गयी है. लेकिन ये आलोचना पक्षपातपूर्ण भी है. देश की सभी पार्टियों में कुछ ख़ानदानों के ही लोग मुख्य सियासत कर रहे हैं. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद उनके बेटे अखिलेश, राजद में लालू के बाद उनके बेटे तेजस्वी, इसी तरह दक्षिण की भी पार्टियों को देखा जा सकता है. ये तो वंशवाद की एक शक्ल है. वंशवाद की दूसरी शक्ल है जिसमें एक सांसद या विधायक की संतान अपने पिता के सहयोग से सियासत में करियर बनाती है. सभी पार्टियों के नेताओं को देखें, आप पाएंगे कि उनकी संतानों ने सियासत में जो मुकाम हासिल किया है वो अपने बल पर नहीं बल्कि अपने पिताओं के बल पर ही हासिल किया है. इसलिए ये तर्क कि बस नेहरू गाँधी परिवार को वंशवाद से दूर रहना चाहिए, नेहरू गाँधी परिवार के ख़िलाफ़ साजिश के सिवा और कुछ नहीं है.
वंशवाद को लेकर ये भी देखना ज़रूरी है कि क्या आम जनता को इससे कोई परेशानी है? अगर ऐसा होता तो सभी राजनेताओं की संतानें जनता का वोट हासिल कर सियासत में शानदार मुक़ाम हासिल नहीं कर पाती. इसलिए ऐसा लगता है कि नेहरू गाँधी परिवार को लेकर वंशवाद की बहस करने वाले कांग्रेस पार्टी के ही वो नेता हैं, जिन्हें लगता है कि नेहरू गाँधी परिवार को रिप्लेस करके वो और उनका खानदान पार्टी पर कब्ज़ा कर सकता है.
इसके बावजूद वंशवाद है तो ग़लत ही, तमाम पार्टियों में काबिल और योग्य कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता, क्योंकि बड़े नेता अपने ही संतानों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. लेकिन इस बीमारी को पूरे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा और देश के स्तर पर इस बहस को आगे बढ़ाना होगा, ताकि जनता तय करे कि उसे वंशवादियों को सपोर्ट करना है या नहीं, अकेले कांग्रेस के सन्दर्भ में इस बहस को उचित नहीं ठहराया जा सकता. इसके बावजूद भी क्या वंशवाद ख़त्म हो सकता है? दरअसल राजनीति अब सेवा नहीं व्यवसाय है. एक नौकरी करने वाला आदमी जीवन भर इतने पैसे नहीं जोड़ पाता है कि वो अपने लिए एक ढंग का मकान भी बना ले, लेकिन सांसद और विधायक अपनी आमदनी से हज़ार गुना ज़्यादा संपत्ति इकठ्ठा कर लेते हैं और उनसे जनता, मीडिया और सियासत कोई सवाल नहीं करता. ऐसे में हजारों करोड़ का लाभ देने वाले व्यवसाय को कोई अपनी संतान के बजाय किसी और को सौपेंगा, ये सोचना ही बेमानी है. हाँ, जिस दिन देश की जनता इस मुद्दे पर सोचने लगेगी, हालात बदल जायेंगे.
पिछले लगभग तीन दहाई का राजनीतिक इतिहास कांग्रेस के तेज़ी से डाउनफाल का इतिहास है. इस दौर की दो मुख्य धाराएँ हैं जिन पर विचार किये बिना कांग्रेस के डाउनफाल को नहीं समझा जा सकता. ये वही वक्त है जब देश में आर्थिक संकट बढ़ा है लेकिन कांग्रेस पार्टी इन हालात से निपटने का कोई माकूल तरीका इजाद नहीं कर पायी है, हलांकि उसके पास मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री भी थे. ये वही दौर है जब जीवन से जुड़े मुद्दों पर बहस को दरकिनार करने के लिए जाति और धर्म के मुद्दे पर सियासत हुई और इसे जनता का व्यापक समर्थन मिला, आगे चलकर जाति आधारित सियासत को धर्म आधारित सियासत निगल गयी. साम्प्रदायिक सियासत को जन जन तक पहुँचाने में कॉर्पोरेट मीडिया ने भी भरपूर योगदान दिया. इस पूरे दौर में साम्प्रदायिकता के ज़रिये राजनीतिक धुर्वीकरण का मुकाबला करने का कोई तरीका कांग्रेस नहीं निकाल पाई. दरअसल कांग्रेस के दामन पर भी साम्प्रदायिक सियासत के दाग हैं जिन्हें मिटाने की उसने कोई कोशिश नहीं की बल्कि समय समय पर इस दाग को और गाढ़ा ही किया है ताकि लोग इसे देख सकें. इसके अलावा पिछले कुछ दशकों में जिस तेज़ी से बहुसंख्यक जनता का साम्प्रदायिक सियासत ने धुर्वीकरण किया है, उसने जहाँ भाजपा को फ़र्स से अर्स पर पहुँचाया वहीँ दूसरी पार्टियों से "चुनाव जिताऊ" मुद्दे भी छीन लिए.
हिन्दुव की सियासत को छोड़ दिया जाए तो दूसरी सभी पार्टियाँ तात्कालिक जीत को मद्देनज़र रखकर सियासत करती हैं, ऐसे में बहुसंख्यक तुष्टिकरण के मैदान में ही सभी खेलने लगते हैं, नतीजा सबके सामने है. उग्र हिंदुत्व के सामने कांग्रेस सहित सभी दूसरी पार्टियों का नर्म हिंदुत्व लगातार परास्त हो रहा है, लेकिन इससे सबक लेने को कोई तैयार नहीं है.
आज कांग्रेस देश को जोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम बना रही है, राहुल गाँधी देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पैदल यात्रा करने जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने या उनकी पार्टी ने साम्प्रदायिक धुर्वीकरण और कॉर्पोरेट लूट के विरुद्ध कोई कार्यक्रम जनता से साझा नहीं किया है. ऐसे में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कोई भी हो देश पर उसका कोई असर नहीं पड़ेगा. नेहरू गाँधी परिवार कांग्रेस में रहे या पार्टी ही छोड़ दे, कांग्रेस की सेहत पर सकारात्मक असर नहीं पड़ेगा. हाँ, पार्टी ज़रूर बिखर जाएगी, क्योंकि तब पार्टी हथियाने के लिए कई नेता आपस में ही लड़ने लगेंगे.
अंतिम सवाल, क्या अशोक गहलोत कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनकर कांग्रेस को प्रगति पथ पर ले जा सकेंगे? हालाँकि नीति और कार्यक्रम पर काम किये बिना सिर्फ़ नेता बदलने से बहुत ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता, बावजूद इसके किसी पार्टी का नेता पार्टी को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिए बिहार के सन्दर्भ में माना जाता है कि लालू यादव के जेल जाने से बिहार ही नहीं केंद्र की सियासत में भी भाजपा को आसानी हुई है और विपक्ष कमज़ोर हुआ है, इसलिए ये बहुत महत्वपूर्ण है पार्टी का नेता ऐसा हो जो तात्कालिक चुनौतियों का सामना भी करे और पार्टी को एकजुट रखकर निश्चित दिशा में आगे बढे। इन मापदंडों पर अशोक गहलोत को देखा जाना चाहिए।
ये बात बहुत दिलचस्प है कि 1971 में जब अशोक गहलोत पर इंदिरा गाँधी की नज़र पड़ी तब वो बंगलादेशी शरणार्थियों की सेवा में लगे हुए थे, गहलोत साहब की सांगठनिक क्षमता ने इंदिरा गाँधी को बहुत प्रभावित किया था और इसी वजह से उन्होंने गहलौत साहब को NSUI का राज्याध्यक्ष बनाया था. इसके बाद वे लगातार सियासत में एक के बाद एक कामयाबी हासिल करते रहे, पार्टी में भी समय समय पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बावजूद इसके पार्टी और पार्टी के बाहर से उन्हें चुनौतियाँ भी मिलीं, लेकिन इनका उन्होंने बड़ी कामयाबी से सामना किया, राजनीति एवं कूटनीति दोनों के इस्तेमाल में इन्होंने ख़ुद को साबित किया है.
हाल के दिनों में कांग्रेस पार्टी के भीतर सचिन पायलट की ओर से इन्हें ज़ोरदार चुनौती मिली है, जनता के भी एक खेमे की ओर से कहा जा रहा था कि गहलोत साहब को खुद सचिन जैसे युवा को नेतृत्व सौंप कर खुद उनका मार्गदर्शक बनना चाहिए, लेकिन गहलोत साहब न सिर्फ़ आज भी मुख्यमंत्री हैं, बल्कि पार्टी में भी एकता बनाये रखने में सफल हुए हैं. गहलोत के राजनीतिक जीवन को देखने से ये बात तो बिलकुल साफ़ है कि वे अच्छे संगठनकर्ता हैं और अपने विरोधियों से भी तालमेल मिलाकर चलना जानते हैं. लेकिन इन सबके बावजूद उनके प्रशासन पर कुछ दाग धब्बे भी हैं.
राजस्थान उन राज्यों में से है जहाँ दलितों में पर आये दिन जातिगत अत्याचार होते रहते हैं, भंवरी देवी के केस ने तो अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बटोरी थीं. लेकिन राज्य की सत्ता कांग्रेस के हाथ में हो या भाजपा के, दलितों के उत्पीड़न पर प्रशासन का रवैया एक जैसा रहता है. पानी का मटका छू लेने से एक बच्चे की पिटाई और परिणामस्वरूप उसकी मौत के मामले में भी गहलोत प्रशासन पर सवाल उठे हैं. इसी तरह कांग्रेस के ही दौरे हुकूमत में हिन्दू-मुसलमान दंगे हुए, (ऐसे हर दंगे में मुख्यतः मुसलमानों का ही जानमाल का नुकसान होता है, इसलिए इसे दंगा कहने के बजाय हमला कहना चाहिए, लेकिन ऐसे हर मामले को दंगा ही कहने का चलन है.) ऐसे मामलों में मुसलमानों के प्रति कांग्रेस प्रशासन का रवैया न्यायसंगत नहीं रहा है, पिछले साल की घटना जो पहलु खान के साथ घटित हुई, उस मामले में भी कांग्रेस के इस पुराने रवैये को देखा जा सकता है.
यानि देश के स्तर पर जो हालत कांग्रेस की है, यानि साफ्ट हिंदुत्व का दामन पकड़े हार्ड हिंदुत्व से पिटते रहना,गहलोत साहब भी उसी राह के राही हैं. इसलिए विचारधारात्मक तल पर अशोक गहलोतकांग्रेस पार्टी में कोई बदलाव कर पाएंगे, इसकी दूर दूर तक कोई संभावना नज़र नहीं आती. संगठन स्तर पर काम करते हुए उन्होंने अपने को बार बार साबित किया है, लेकिन जब वो राज्य से बाहर देश के स्तर पर नेतृत्व देंगे, तब उनका मुक़ाबला सियासत के बड़े खिलाड़ियों से होगा, ऐसे में उनकी सांगठनिक क्षमता क्या रंग लाएगी, ये तो वक्त ही बताएगा.
देश की मुख्य सियासी पार्टी इस वक्त भाजपा है जिसके बहुत से बड़े नेता आरएसएस में लम्बे समय तक काम करने के बाद भाजपा में आये हैं, ये देश की जनता से सहजता से जुड़ते हैं, इनके पास अच्छी भाषा और आक्रामक शैली है, कई नेता ऐसे हैं जिनके पास अच्छी भाषा नहीं है लेकिन अपनी आक्रामक शैली से वो अपनी दूसरी कमियों को छुपा ले जाते हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस के पास ऐसे नेता कम हैं जो भाजपा के उग्र सियासत का मुक़ाबला कर पायें, अशोक गहलोत को भी इनका सामना करना होगा. इस लिहाज़ से देखने पर गहलोत साहब भाजपा नेताओं से कमज़ोर नज़र आते हैं.
सियासी दलों में पार्टी के ताक़तवर नेताओं के प्रति वफ़ादारी भी एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है, अभी सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें एक सांसद गृहमंत्री के जूते उठाकर उनके पैरों के पास रख रहा है. इस तरह के हरकत की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन सार्वजनिक रूप से एक सांसद का ऐसा करना पार्टी के ताक़तवर नेताओं की कृपा और पार्टी लोकतंत्र के बारे में बहुत कुछ कहता है. कांग्रेस पार्टी में भी कई नेता ऐसे हैं जिन्हें गाँधी परिवार के सदस्यों के प्रति वफ़ादार बताया जाता है, अशोक गहलोत के बारे में माना जाता है कि वो सोनिया गाँधी के कृपापात्र हैं, सच क्या है पता नहीं, पर ऐसा है तो ये उनकी ताक़त में इज़ाफा ही करेगा.
कुल मिलकर अशोक गहलोत की सांगठनिक क्षमता ही वो महत्वपूर्ण तत्व है जो उनके कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनने की सूरत में पार्टी के काम आ सकती है, हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ये क्षमता कितना कारगर साबित होगी, ये तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी की चुनौतियों को देखते हुए ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि अशोक गहलोत के आने से पार्टी को भीतर या बाहर से कोई बड़ा लाभ मिलेगा. बाकी सियासत अनिश्चितताओं का खेल है, किस बाल पर कब कौन छक्का जड़ दे कुछ कहा नहीं जा सकता.