मीडिया में सम्पादक या अन्य उच्च पदों पर महिलाओं की संख्या नगण्य, लैंगिक समानता के समाचार भी मीडिया में हमेशा रहते हैं उपेक्षित
अंग्रेजी समाचार चैनलों पर 20 प्रतिशत विशेषज्ञ महिलायें हैं, जबकि हिंदी चैनलों के लिए यह प्रतिशत महज 10 प्रतिशत है, समाचार चैनलों पर 51 प्रतिशत से अधिक बहस ऐसी भी होती है, जिसमें एक भी महिला प्रतिनिधि नहीं रहती। पत्रकारों के नाम के साथ प्रकाशित समाचारों में 75 प्रतिशत से अधिक नाम पुरुष पत्रकारों के रहते हैं....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
There is widespread gender inequality in media houses, and it would take another 67 years for gender equality. लुबा कस्सोवा एक पत्रकार और लेखिका हैं, उन्होंने हाल में ही बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के लिए एक रिपोर्ट तैयार की है – फ्रॉम आउटरेज टू ओपोर्चुनिटी। इस रिपोर्ट में उन्होंने 6 देशों – साउथ अफ्रीका, केन्या, नाइजीरिया, भारत, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका – के मीडिया में सम्पादक स्तर पर लैंगिक असमानता का आकलन किया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार सामाजिक-आर्थिक कारणों और पितृसत्तात्मक सोच के कारण समाज और कार्यस्थल हमेशा से महिलाओं से भेदभाव करता आया है, पर मीडिया में लैंगिक असमानता हमारी सोच से भी अधिक है। महिलायें मीडिया में सम्पादक या अन्य उच्च पदों पर बहुत कम हैं और जाहिर है महिलाओं से या फिर लैंगिक समानता के समाचार मीडिया में हमेशा उपेक्षित रहते हैं। इन समाचारों के उपेक्षित रहने के कारण ऐसे विषयों पर कोई जन-संवाद नहीं होता और न ही जनता की कोई धारणा कायम हो पाती है। इसका दूसरा प्रभाव यह है कि सामान्य महिलायें समाचारों से दूर ही रहती हैं।
मीडिया में लैंगिक समानता लाकर केवल मीडिया संस्थानों को ही फायदा नहीं होगा, बल्कि लैंगिक समानता से सम्बंधित जन-धारणा भी कायम की जा सकेगी। पहले के अनेक अध्ययन यह स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि जिन मीडिया संस्थानों में लैंगिक समानता होती है, वहां के समाचारों में महिलाओं के विचार, संवेदनशीलता और मानवाधिकार की बहुलता होती है। महिलायें समाचारों में लैंगिक वर्जनाएं तोड़ती हैं, लैंगिक असमानता के मुद्दे प्रबल तरीके से उठाती हैं और मानवाधिकार से सम्बंधित कानूनों और नीतियों का सन्दर्भ देती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार समाचारों और मीडिया संस्थानों में लैंगिक समानता आते ही समाचार देखने वाली या पढ़ने वाली महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ेगी, जिसका सीधा फायदा मीडिया संस्थानों को मिलेगा। अनुमान है कि ऐसा करने के बाद अमेरिका में मीडिया संस्थानों की कमाई अगले 10 वर्षों में 83 अरब डॉलर तक बढ़ेगी। वर्तमान में छोटे-बड़े सभी मीडिया संस्थान आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं, पर लैंगिक समानता के बाद इस आर्थिक तंगी के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित रायटर इंस्टीट्यूट ने दो वर्ष पहले 4 महादेशों में स्थित 12 देशों, जिसमें भारत भी शामिल था, के मीडिया में लैंगिक असमानता का विस्तृत अध्ययन किया था। इसके अनुसार मुख्य संपादकों के पद पर महज 22 प्रतिशत महिलायें हैं। सबसे बुरी स्थिति भारत और यूनाइटेड किंगडम की है, पर एडिया में लैंगिक समानता के सन्दर्भ में सबसे आगे दक्षिण अफ्रीका है, जहां मीडिया संस्थानों के वरिष्ठ प्रबंधन के 46 प्रतिशत पदों पर महिलायें हैं।
दक्षिण अफ्रीका में जीवनशैली, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सामान्य समाचारों के अलावा भी राजनैतिक संपादकों के 29 प्रतिशत पद पर भी महिलायें काम कर रही हैं। समाचारों में विशेषज्ञों के तौर पर भी अहिलाओं की उपेक्षा की जाती है। हमारे देश में टीवी चैनलों पर बहसों में महिलाओं की भागीदारी महज 17 प्रतिशत है, जबकि नाइजीरिया में यह 20 प्रतिशत तक है।
मीडिया संस्थानों में ऊँचे पदों पर महिलाओं के कम संख्या ही समस्या नहीं है, बल्कि एक जैसे ही काम के लिए अहिलाओं को पुरुषों से का वेतन दिया जाता है। महिला पत्रकारों का यौन उत्पीडन और प्रताड़ना भी मीडिया संस्थानों में सामान्य घटनाएं हैं। महिला पत्रकारों को अपने विचारों के लिए सोशल मीडिया पर भी उत्पीडन झेलना पड़ता है। यूनाइटेड किन्ग्दो, अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में अश्वेत महिलाओं की हमेशा उपेक्षा की जाती है।
यदि देश के पूरे रोजगार में अश्वेत महिलाओं की भागीदारी देखी जाए, तब मीडिया संस्थानों में वर्तमान संख्या की तुलना में अमेरिका में तीन गुना, दक्षिण अफ्रीका में 2.2 गुना उअर यूनाइटेड किंगडम में 1.2 गुना अधिक अश्वेत महिलाओं को रोजगार देना पड़ेगा। यूनाइटेड किंगडम में एक भी अश्वेत महिला किसी भी मीडिया संस्थान में राजनैतिक, अंतरराष्ट्रीय मामले या स्वास्थ्य के वरिष्ठ संपादकों के पद पर नहीं है।
न्यूज़लौंड्री नामक समाचार वेब पोर्टल ने यूएन वीमेन के साथ भारत में मीडिया संस्थानों में लैंगिक असमानता का अध्ययन कर बताया था कि देश में मीडिया संस्थानों के महज 5 प्रतिशत उच्च पदों पर महिलायें हैं। यह असमानता केवल संस्थानों के पदों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विभिन्न विषयों से सम्बंधित विशेषज्ञों के चयन और प्रकाशित लेखों और समाचारों में भी है।
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि लैंगिक असमानता हिंदी मीडिया में अंग्रेजी मीडिया की तुलना में बहुत अधिक है। अंग्रेजी समाचार चैनलों पर 20 प्रतिशत विशेषज्ञ महिलायें हैं, जबकि हिंदी चैनलों के लिए यह प्रतिशत महज 10 प्रतिशत है। समाचार चैनलों पर 51 प्रतिशत से अधिक बहस ऐसी भी होती है, जिसमें एक भी महिला प्रतिनिधि नहीं रहती। पत्रकारों के नाम के साथ प्रकाशित समाचारों में 75 प्रतिशत से अधिक नाम पुरुष पत्रकारों के रहते हैं। समाचार पत्रों के मुख पृष्ठों पर प्रकाशित समाचारों में तो महिला पत्रकारों के नाम 1 प्रतिशत से अधिक नहीं रहते। समाचार पत्रों और वेब न्यूज़ पोर्टल पर 75 प्रतिशत से अधिक लेख पुरुषों के प्रकाशित किये जाते हैं।
हाल में ही नेचर ह्यूमन बिहेवियर नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वैज्ञानिक जर्नलों में संपादकों या मुख्य संपादकों के तौर पर महिला वैज्ञानिकों की भागीदारी बहुत कम है। इस कारण महिला वैज्ञानिकों द्वारा लिखे गए शोधपत्रों की उपेक्षा की जाती है और इसका सीधा असर महिला वैज्ञानिकों के कैरियर पर पड़ता है।
इस अध्ययन के अनुसार पिछले 5 दशकों के दौरान विज्ञान के 15 विषयों से सम्बंधित 1000 जर्नलों के अध्ययन के बाद सम्पादक मंडल में कुल 81000 नाम सामने आये, जिसमें से महज 26 प्रतिशत महिलायें हैं। इन जर्नलों के सम्पादक के पद पर 14 प्रतिशत महिलायें और मुख्य सम्पादक के पद पर महज 8 प्रतिशत महिलायें थीं।
ग्लोबल मीडिया मोनिटरिंग प्रोजेक्ट के तहत पिछले 20 वर्षों से एडिया में लैंगिक असमानता का अध्ययन किया जा रहा है। इसके अनुसार अब लैंगिक असमानता पहले की तुलना एन कम हो रही है, पर यह गति बहुत धीमी है। इस दर से मीडिया में लैंगिक समानता आने में 67 वर्षों से अधिक का समय लगेगा।