किसानों की त्रासदी केवल मोदी सरकार और bJP तक नहीं सीमित, अन्नदाता को गोदी मीडिया कर रहा बदनाम

मोदी सरकार के मंत्री खुलेआम आन्दोलनकारी किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी की उपाधि दे रहे हैं, प्रधानमंत्री किसानों को अन्नदाता कहते तो हैं पर इतना बेवकूफ बताते हैं कि उनके कंधे पर बन्दूक रखकर कोई और चला रहा है...

Update: 2020-12-20 09:23 GMT

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। बचपन से हम सभी भारत लोकतंत्र है यह तथ्य बाद में पढ़ते थे, उससे पहले बताया जाता था कि भारत कृषि प्रधान देश है और 70 प्रतिशत से अधिक आबादी इसी से जुडी है। इसके बाद भी देश में अनाज का आयात करना पड़ता था, पर किसान की समाज में इज्जत थी, वह साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्मों का एक महत्वपूर्ण पात्र था।

किसान पूरे समाज के केंद्र में थे, इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि देश में हिन्दुओं के सभी बड़े पर्व-त्योहार खेती से जुड़े थे, जब किसानों को खेती से विश्राम मिले या फिर उपज बिक चुकी हो और इनके हाथ में पैसे हों। भारत को जिस दौर में सोने की चिड़िया कहा जाता था, वह कृषि का ही दौर था।

इसके बाद अचानक हरित क्रांति का दौर आया और हम अनाज के आयातक से निर्यातक में बदल गए। सतही तौर पर किसानों की स्थिति में कुछ बदलाव देखा जाने लगा, पर खलिहानों और बाजारों को अनाज, सब्जियों, फलों इत्यादि से भरने वाला किसान समाज का एक साधारण हिस्सा बन गया और साहित्य और फिल्मों से लगभग मिट गया। हल और बैलों के सहारे खेती करने वाला किसान अब ट्रैक्टर और थ्रेशर का उपयोग तो खूब करता है, पर कर्ज के बोझ से भी दब गया है। किसानों की जिन बड़ी गाड़ियों और हवेलियों का आज खूब जिक्र किया जा रहा है, वे सभी खेती से कम और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में अपनी जमीन गवाने के बाद मिले मुवावजे की देन अधिक हैं।

समाज में भी किसानों की चर्चा उनकी आत्महत्याओं या फिर आन्दोलनों के समय ही उठती है। दरअसल उपभोक्ता और पूंजीवादी बाजार ने किसानों और समाज के बीच गहरी खाई पैदा कर दी है। एक दौर था जब अनाज दुकानों में बोरियों में रखा जाता था और इसे खरीदने वाले अनाज के साथ ही किसानों के बारे में भी सोचते थे। आज का दौर अनाज का नहीं है, बल्कि पैकेटबंद सामानों का है। इन पैकेटबंद सामानों को हम वैसे ही खरीदते हैं, जिस तरह किसी औद्योगिक उत्पाद को खरीदते हैं और इनके उपभोग के समय ध्यान उद्योगों का रहता है, न कि खेतों का।

हरित क्रान्ति के बाद से भले ही कुपोषण की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही हो, पर्यावरण का संकट गहरा होता जा रहा हो, भूजल लगातार और गहराई में जा रहा हो, पर अनाज से सम्बंधित उत्पादों की कमी खत्म हो गई है। पहले जो अकाल का डर था वह मस्तिष्क से ओझल हो चुका है और इसके साथ ही किसान भी समाज के हाशिये पर पहुँच गए।

सरकारें भी पिछले कुछ वर्षों से किसानों की समस्याओं के प्रति उदासीन हो चुकी हैं। आज के दौर में हालत यह है कि खेती को भी पूंजीवाद के चश्मे से देखा जा रहा है, और एक उद्योग की तरह चलाने की कोशिश की जा रही है। खेती से जुडी सबसे बड़ी हकीकत यह है कि बहुत बड़े पैमाने पर किये जाने श्रम में कुछ भी निश्चित नहीं है। इसमें किसान का श्रम और पूंजी ही बस निश्चित होती है, आजकल बिजली और पानी भी अधिकतर जगहों पर उपलब्ध है, इतने के बाद भी एक बुरे मौसम की मार सबकुछ खत्म कर देती है।

खेती एक ऐसा काम है जहां सारे श्रम, पूंजी और रखवाली के बाद भी उपज या पूंजीवादी शब्दावली में उत्पाद की कोई गारंटी नहीं है। फिर भी करोड़ों किसानों का जीवट ही है जो उन्हें खेती करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यदि सबकुछ ठीक रहा और अनुमान के मुताबिक उपज भी रही तब भी लागत मूल्य भी बाजार से वापस होगा भी या नहीं, इसका पता नहीं होता।

देशभर के किसान परेशान हैं और समय-समय पर अपनी मांगों के साथ सड़क पर आन्दोलन के लिए निकलते रहे हैं। अब नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान प्रदर्शन और आन्दोलन कर रहे हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार आन्दोलनकारियों को दरकिनार कर अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं और जो किसान आन्दोलन में शामिल नहीं हैं उन्हें नए कृषि कानूनों के नाम पर राम मंदिर के बारे में बता रही है और विपक्ष के जमीन जोतने की बात कर रही है।

सरकार के मंत्री खुलेआम आन्दोलनकारी किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी की उपाधि दे रहे हैं, प्रधानमंत्री किसानों को अन्नदाता कहते तो हैं पर इतना बेवकूफ बताते हैं कि उनके कंधे पर बन्दूक रखकर कोई और चला रहा है।

किसानों की त्रासदी केवल सरकार और बीजेपी तक सीमित नहीं है, बल्कि जो समाज उन्हें अन्नदाता घोषित करता है, उसी समाज का मीडिया और सोशल मीडिया उन्हें बदनाम करने पर तुला है। किसान चाहते हैं कि फसलों के मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) के अनिवार्यता के लिए लिए भी एक नया कानून बनाया जाए, पर मीडिया और सोशल मीडिया पर बार-बार बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने स्वयं कह दिया है कि एमएसपी नहीं हटेगा किसानों को और क्या गारंटी चाहिए।

मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के वचनों को ब्रह्मवाक्य और देश का कानून बताकर किसानों को बहकाने में प्रयासरत बीजेपी कार्यकर्ता, मीडिया से जुड़े लोगों और अंधभक्तों को सबसे पहले नोटबंदी के समय महान प्रधानमंत्री के वचनों और वादों की समीक्षा करनी चाहिए, दरअसल हकीकत तो यही है कि प्रधानमंत्री जो कहते हैं ठीक उसका उल्टा होता है।

नोटबंदी के समय भी प्रधानमंत्री सबसे पिछड़े तबके का विकास चाहते थे, पर अडानी-अम्बानी और अमीर हो गए और पिछड़े अति-पिछड़े में तब्दील हो गए। नए कृषि कानूनों के बारे में फिर से प्रधानमंत्री सबसे पिछले लोगों के भले की बात कर रहे है, जाहिर है नोटबंदी वाला परिणाम फिर सामने आएगा। प्रधानमंत्री जी बताते हैं कि सरकारी मंडियां वहीं रहेंगी, पर मंडियों के बारे में बात करते हुए भूल जाते हैं कि नए कृषि कानूनों का सबसे मुखर विरोध उन राज्यों के किसान ही कर रहे हैं जहां जीवंत सरकारी मंडियां हैं।

अर्नब गोस्वामी के अभिव्यक्ति की आजादी छिनने से अचानक परेशान होने वाले माने सर्वोच्च न्यायालय को लगता है कि आन्दोलन और विरोध मौलिक अधिकार है, संवैधानिक अधिकार हैं। किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में यही कहा गया है, पर इस अधिकार का हनन करने वाले के लिए कभी कुछ भी नहीं कहा जाता। संवैधानिक अधिकारों को जिन सरकारों और पुलिस ने डंडे, पानी की बौछारों और आंसू गैसों से कुचलने का प्रयास किया, क्या वे कसूरवार नहीं हैं?

दूसरी तरफ इस हड्डी कंपा देने वाली ठंड में भी यदि अपने संवैधानिक अधिकारों की मशाल लिए किसान खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं, तो क्या यह उनके जीवन का अधिकार नहीं है? मौलिक अधिकारों और संवैधानिक अधिकारों की मांग करते किसानों के दमन के सरकारी प्रयासों, मीडिया ट्रायल और बीजेपी के दुष्प्रचार तंत्र पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी कब आयेगी?

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