भारत में हरित क्रांति से मझोले और छोटे किसानों ने क्या खोया-क्या पाया ?
जिस तरह की हरित क्रान्ति भारत में झोंकी गयी, उसका कोई मानवीय पक्ष कभी रहा ही नहीं....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
देशभर के किसान दिल्ली की सीमाओं पर लम्बे समय से आन्दोलन कर रहे हैं और सरकार जनता को गुमराह करने में व्यस्त है। इसमें हैरत किसी को नहीं है – इस सरकार के पास किसी समस्या का कोई समाधान नहीं है, बल्कि देश की सबसे बड़ी समस्या ही यह सरकार बन चुकी है। इस सरकार को जनता से कोई मतलब नहीं है, शासन से भी मतलब नहीं है, बस इसे हरेक राज्य, हरेक नगरपालिका और हरेक पंचायत की गद्दी चाहिए जिससे अधिक से अधिक जनता को लूट कर चहेते पूंजीपतियों को पहले से अधिक अमीर बना सके।
सरकार के मानसिक दीवालियापन का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिन कृषि कानूनों का चालीसा सरकार पूरे देश में सुना रही है, उन्हीं कृषि कानूनों में बार-बार संशोधन की बात भी करती है। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की बात प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कृषि मंत्री लगातार करते रहे हैं, उसी समर्थन मूल्य पर एक क़ानून बनाने से भाग रहे हैं।
जिस बम्पर कृषि उपज की बात करते प्रधानमंत्री अघाते नहीं हैं, दरअसल उसी उपज से किसानों की समस्याएं भी हरेक तरफ से जुडी हैं। हरित क्रांति के बाद से अनाज का उत्पादन तो बढ़ गया पर खेती एक बेहद खर्चीला व्यवसाय बन गयी। दूसरी तरफ जब अनाज का उत्पादन अधिक होने लगा तब उसका मूल्य कम होने लगा। रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक और बीजों को खरीदने के लिए किसानों को साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है और दूसरी तरफ सस्ती बिजली और पानी के लिए सरकारों के रहम पर चलना पड़ता है। कृषि उत्पाद बेचने के लिए भी सरकारों पर निर्भर करना पड़ता है।
रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने खेतों को बंजर करना शुरू किया, जिससे इन जहरीले रसायनों का उपयोग लगातार बढ़ाना पड़ता है, जिससे खेती और खर्चीली हो जाती है। कुछ राज्यों में जिनमें पजाब और हरियाणा सम्मिलित हैं, उनमें सरकार बड़े पैमाने पर अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाता है, जिससे किसानों को एक व्यापक बाजार मिलता है। पर दूसरे अनेक राज्यों में ऐसा नहीं है और किसानों को लागत से कम कीमत पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है।
हरित क्रांति के बाद देश में किसानों का भी बंटवारा हो गया है– एक तरफ अल्पसंख्यक बड़े किसान हैं जो बहुत बडे खेतों में औद्योगिक पैमाने की खेती कर रहे हैं, दूसरी तरफ 70 प्रतिशत से अधिक किसान सीमान्त, छोटे और मझोले हैं। हरित क्रांति के बाद से मझोले और छोटे किसानों की परेशानियां बढ़ गईं हैं। इनकी खेती में लागत मूल्य बेतहाशा बढ़ता जा रहा है और आमदनी ख़त्म होती जा रही है। सारे विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह की हरित क्रान्ति भारत में झोंकी गयी, उसका कोई मानवीय पक्ष कभी रहा ही नहीं।
सोवियत संघ और अमेरिका के बीच लम्बे दौर तक चले शीत युद्ध के दौरान भारत में हरित क्रांति के बल पर अमेरिका भारत के करीब आना चाहता था। वर्ष 1968 में अमेरिकन एजेंसी फॉर इन्टरनेशनल डेवलपमेंट के तत्कालीन एडमिनिस्ट्रेटर विलियम गाड ने अपने भाषण में इस तथ्य का खुलासा भी किया था। हरित क्रांति के बाद भी भूख अपनी जगह है और कुपोषित आबादी के अनुसार भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। हरित क्रांति के बाद अनाजों के उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि आई, पर सरकारों द्वारा इसकी खरीद और हरेक घर तक पहुंचाने की प्रक्रिया बेहद धीमी रही है।
इस पूरी प्रक्रिया का खामियाजा केवल किसान उठा रहे हैं। हरित क्रांति के असर से देश के अधिकतर किसान महाजनों के ऋण के दलदल में फंसने शुरू हुए और 1990 के दशक तक यह समस्या एक महामारी की तरह फ़ैलने लगी। इसके बाद से ही किसानों की आत्महत्या का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया, जो आज तक कायम है।
हरित क्रान्ति के प्रभाव में सरकारें और किसान इस तरह से आ गए कि विज्ञान और पर्यावरण आधारित खेती पर कभी देश में गंभीर चर्चा ही नहीं की गयी। समस्या यह है कि आज तक सरकारें उसी मॉडल को बढ़ावा देने पर तुली हैं, जिनसे किसान बर्बाद हो रहे हैं, पर्यावरण बर्बाद हो रहा है और रसायनों से स्वास्थ्य भी बड़े पैमाने पर प्रभावित हो रहा है। 1960 के दशक से शुरू किये गए हरित क्रांति ने देश को अन्न संकट से तो उबार दिया पर इसका गंभीर असर भूमि, जैव-विविधता और पाने के संसाधनों पर पड़ाI नदियों से बड़ी-बड़ी नहरें निकाली गईं और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया गयाI
हरेक जगह नहरें नहीं जा सकती थीं, इसलिए पूरे देश में बोरवेल का जाल बिछ गयाI बोरवेल गहराई से भूजल का दोहन करते हैं, इसलिए एक्विफेर्स सूखने लगेI दुनिया के कृषि उत्पादन का लगभग 10 प्रतिशत भारत में उत्पन्न होता है, पर दुनिया में भूजल दोहन में हमारा स्थान पहला हैI मानसून में तो बारिश से सिचाई हो जाती है, पर सर्दियों और गर्मी के समय सिंचाई का साधन केवल भूजल ही रहता हैI
दुनियाभर में औद्योगिक पैमाने पर की जाने वाली खेती का विरोध किया जाने लगा है, हमारे देश में भी किसान आन्दोलनों की बुनियाद यहीं से शुरू होती है।अमेरिका में 1980 और 1990 के दशक में किसानों ने बड़े आन्दोलन किये, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। अधिकतर छोटे और मझोले किसान अब अमेरिका में खेती छोड़ चुके हैं।वर्ष 2019 में यूरोप के अनेक देशों, जिनमें जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड और नीदरलैंड प्रमुख हैं, में किसानों ने बड़े प्रदर्शन किया। जर्मनी के बर्लिन में लगभग 8600 ट्रेक्टर पर 40 हजार किसानों ने प्रदर्शन किया था, फ्रांस की राजधानी पेरिस में 1000 ट्रेक्टर सडकों पर उतारे गए थे।
ऐसे हरेक प्रदर्शन में छोटे किसानों ने हिस्सा लिया था, जिनकी मांग थी कि कृषि से सम्बंधित नीतियाँ छोटे किसानों को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ, ना की केवल बड़ो किसानों के हितों को धान में रखकर।उन्मुक्त बाजार का भी विरोध था, जिसके चलते किसानों को फसलों की उचित कीमत नहीं मिल पाती है। बड़ी मांगों में एक मांग पर्यावरण से सम्बंधित थी कि पर्यावरण विनाश के लिए किसानों को जिम्मेदार नहीं बताया जाए।
इन मांगों पर जब आप गहराई से विचार करेंगें तो पायेंगें कि हमारे देश के किसानों की समस्याएं भी यही हैं। यहां पर भी वायु प्रदूषण का एकलौता स्त्रोत खेतों में जलाई जाने वाली पराली को ठहरा दिया जाता है और सरकारें और न्यायालय इसके लिए जुर्माना भी वसूलते हैं। फसलों की उचित कीमत यहाँ भी नहीं मिलाती। और ना ही इसकी कोई योजना है।सरकार ने जिन कृषि कानूनों को लागू किया है, उसके अनुसार फसलों की खरीद और सस्ती दरों पर की जायेगी, जिससे किसानों को और अधिक घाटा होने की आशंका है।