जब अपराधी देश चलाने लगते हैं तब अपराधी करार दिए जाते हैं जनता की आवाज बुलंद करने वाले कार्यकर्ता
। फादर स्टेन स्वामी भी ऐसे ही कार्यकर्ता थे, जो जनता के अधिकारों पर काम कर रहे थे, जनता को उनके अधिकार बता रहे थे। उनका कार्यक्षेत्र ऐसा था, जिसमें पूंजीपतियों द्वारा बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों की सरकारी छत्रछाया में लूट की जा रही है.....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
जनज्वार। हमारे देश में पूंजीवाद, सरकार और अपराधियों का एक ही चेहरा और चरित्र है। पूंजीवाद की भाषा सरकारी नीतियाँ हैं। पूंजीवाद और सरकार अपराधियों को पनाह देते हैं जिससे अपना मकसद पूरा कर सकें। पूंजीवाद में सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों को लूटना होता है, जिसकी नीतियाँ सरकार तैयार करती है और लोगों के विरोध को कुचलने के लिए अपराधियों के बल की जरूरत होती है। इस अपराधियों के बल को आप पुलिस और तथाकथित सरकारी जांच एजेंसियां भी कह सकते हैं क्योंकि सबके काम करने का तरीका एक ही है। पूंजीवाद इस सरकार पर इस कदर हावी हो गया है कि इसका विरोध सरकार को अपना विरोध नजर आने लगा है और ऐसे विरोध को कुचलने में सरकारी जांच संस्थाएं जिन्हें आप उग्रवादी और अपराधी भी कह सकते हैं, अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं।
हमारे देश में क़ानून बहुत अलग तरीके से काम करता है – बड़े नेताओं और पूंजीपतियों के लिए अलग क़ानून होता है, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए अलग और जनता के लिए तो कोई क़ानून ही नहीं है। अनेक मामलों में जिनपर मुकदमा चलना है वही मार दिए जाते हैं, सुनवाई करने वाले जज तक मार दिए जाते हैं, सरे आम गवाह मारे जाते हैं, पर न्यू इंडिया में ऐसे हत्यारे देश चलाने लगते हैं और अपनी मर्जी से किसी को भी आतंकवादी, माओवादी, देशद्रोही, अर्बन नक्सल और टुकडे-टुकडे गैंग का सदस्य बताने लगते हैं।
जिसे जेलों में और हवालातों में मार दिया जाता है या फिर सरकार द्वारा प्रायोजित भीड़ बीच रास्ते पर जान से मार देती है वह तो मुजरिम हो जाता है और हत्यारे चुनाव में खड़े होते हैं और जीत भी जाते हैं। किसी दल के नेता की फर्जी डिग्री उसे अपराधी की श्रेणी में खड़ा कर देती है तो दूसरे दल के नेता की फर्जी डिग्री पूरी दुनिया देखती है, पर वह अपराधी नहीं कहा जाता बल्कि बड़े गर्व से मन की बात सुनाता है। आज के दौर में सही मायने में अपराधी, हत्यारे और बलात्कारी देश चलाने लगे हैं और यही न्यू इंडिया की सबसे बड़ी पहचान है। पहले आतंकवादियों, शातिर अपराधियों और उग्रवादियों की तस्वीरें जगह-जगह दीवारों पर चिपकाई जाती थी, आज अपराधियों को धन्यवाद देने वाले बड़े होर्डिंग पूरे शहर में शान से लगाए जाते हैं।
जब अपराधी देश चलाने लगते हैं तब जनता की आवाज बुलंद करने वाले कार्यकर्ता अपराधी करार दिए जाते हैं। फादर स्टेन स्वामी भी ऐसे ही कार्यकर्ता थे, जो जनता के अधिकारों पर काम कर रहे थे, जनता को उनके अधिकार बता रहे थे। उनका कार्यक्षेत्र ऐसा था, जिसमें पूंजीपतियों द्वारा बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों की सरकारी छत्रछाया में लूट की जा रही है। पूंजीवाद और अपराधियों द्वारा चलाई जाने वाले सरकार को यह नागवार गुजरा और 84 वर्षीय स्टेन स्वामी आतंकवादी करार दिए गए और पार्किन्सन रोग से ग्रस्त होने के बाद भी जेल में डाल दिए गए और अंत में मार दिए गए। जांच एजेंसियों को शायद डर रहा होगा कि दो दिनों बाद अदालत कहीं उन्हें जमानत पर रिहा ना कर दे, इसीलिए उन्हें मार दिया गया।
ब्रिटिश अखबार द गार्डियन में 5 जुलाई का लेख है, Fury in India over death of 84-year-old political prisoner Stan Swamy। इसकी शुरुआत में ही बताया गया है, देश के सबसे बुजुर्ग राजनैतिक कैदी, 84-वर्षीय जोसुट पादरी स्टेन स्वामी को लगातार गिरते स्वास्थ्य के बाद भी जमानत नहीं मिली और उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, लेखकों और राजनैतिक नेताओं में आक्रोश बढ़ गया है। कांग्रेस के जैराम रमेश ने ट्वीट किया, "भारत सरकार की किसी संस्था को इस दुखद घटना का दोषी मत मानिए, स्टेन स्वामी की हत्या भारत सरकार ने की है"।
लेखिका सोनिया फलेरियो के अनुसार, "फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु नहीं बल्कि ह्त्या की गयी है।" सर्विच्च न्यायालय की वकील करुणा नंदी के विचार भी ऐसे ही हैं। लेखिका मीना कंडास्वामी के अनुसार, "यह न्यायिक हत्या है और इससे जुड़ा हरेक व्यक्ति और संसथान इस हत्या की जिम्मेदार है"। अधिवक्ता प्रशांत भूषण के अनुसार "यह सरासर सरकारी हत्या का नमूना है"। मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर के अनुसार, "एक क्रूर व्यवस्था ने स्टेन स्वामी की आवाज दबाने के लिए उन्हें जेल में डाला और न्यायिक व्यवस्था यह तमाशा देखती रही"।
ब्रिटिश समाचारपत्र द इन्डिपेंडेंट ने भी 5 जुलाई को ही खबर प्रकाशित की, Stan Swamy death: 84-year-old Indian activist dies while seeking bail on terror charges। सामाजिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन के अनुसार, "मोदी और शाह स्वामी की कैद में मृत्यु के जिम्मेदार हैं। मुझे उम्मीद है की उनकी जमानत को खारिज करने वालों को रात में कभी नींद नहीं आयेगी और इन जजों के हाथ खून से सने हैं"। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है, "यह एक न्यायिक ह्त्या का मामला है, जिसके लिए गृह मंत्रालय और अदालतें संयुक्त रूप से जिम्मेदार हैं।"
5 जुलाई को ही स्टेन स्वामी के मृत्यु की खबरें यूएस न्यूज़ और टर्की के अनादोलू अजेंसी से भी प्रकाशित की गईं। डबलिन स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टर मैरी लाव्लोर ने भी स्टेन स्वामी के निधन पर शोक जताया और ट्विटर पर उनके काम से सम्बंधित एक विडियो प्रकाशित किया। मैरी लाव्लोर के अनुसार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की सरकारी हत्या की कोई माफी नहीं है। यूरोपियन यूनियन और यूरोपियन पार्लियामेंट के भी अनेक सदस्यों ने स्टेन स्वामी की मृत्यु पर संवेदना प्रकट की, साथ ही इसके लिए भारत सरकार और न्यायिक व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया।
कुछ चर्चित आंकड़े ही साबित करते हैं की देश को अब अपराधी चलाने लगे हैं। वर्ष 2004 के लोकसभा में 24 प्रतिशत सांसद दागी थे, अपराधी थे, वर्ष 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत तक पहुँच गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा है की क्यों पार्टियां स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों से बचती हैं? अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि पार्टियां किसी भी चुनाव में यदि अपराधियों को प्रत्याशी बनाती है तो पार्टी को प्रत्याशी का नाम घोषित करने के 48 घंटे के भीतर अपने वेबसाइट और सोशल मीडिया पर इसे प्रचारित करने होगा और साथ में यह भी बताना होगा की उसे प्रत्याशी क्यों चुना गया है, पर केवल जीतने की क्षमता बतान अपर्याप्त होगा। इसी 48 घंटे के अन्दर दलों को चुनाव आयोग को भी यह जानकारी देनी होगी, और इसमें असफल रहने को सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना समझा जाएगा। इस फैसले का क्या असर होगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा पर इतना तो तय है की राजनीति में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व बना रहेगा।
जानेमाने राजनीति विज्ञानी मिलन वैष्णव के अनुसार यह जो प्रचलित धारणा है कि अपराधी चुनाव इसलिए जीतते हैं की मतदाता अनपढ़ हैं, यह सरासर गलत है क्योंकि पर्याप्त शिखा वाले शहरों में भी ऐसे उम्मीदवार जीत कर आते हैं। दरअसल, राजनीति को अपराधियों से अलग करने की धारणा या विचार ही हमारे देश में नहीं है। आंकड़ों के अनुसार अपराधियों के दुबारा जीतने की संभावना 18 प्रतिशत रहती है जबकि स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के लिए यह संभावना महज 6 प्रतिशत है।
मिलन वैष्णव के अनुसार राजनैतिक दलों के लिए अपराधी काले धन का स्त्रोत हैं। सभी दल कुछ भी कहें पर यह तो तय है कि बिना काले धन के आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, ऐसे में कोई धनवान यदि अपराधी या हत्यारा हो तो क्या फर्क पड़ता है। वर्ष 2013 के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2004 से 2013 के बीच संसद के प्रत्याशियों की औसत सम्पदा में 222 प्रतिशत की बृद्धि पायी गयी और चुने गए सांसदों की संपत्ति में एक सत्र में ही 134 प्रतिशत की बृद्धि हो गयी।
अभी का दौर पूंजीवाद और अपराधी सरकारों का है, ऐसे में जनता की आवाज उठाने वाला हरेक शख्स सरकारों के लिए अपराधी है जिसे मरना ही होगा। दुखद यह है कि इसमें मीडिया और न्यायालायें भी शामिल हैं।