मूर्ख पुजारी है वह जो कहता है मन्दिर ईश्वर का घर,
मुल्ला भी वह बहका है जो कहता वह मस्जिद के अन्दर,
मन्दिर-मस्जिद में ही उनका ईश्वर और खुदा होता तो
मन्दिर में बन सकती मस्जिद; मस्जिद में बन सकता मन्दिर... गोपालदास नीरज
जनज्वार, दिल्ली। मशहूर गीतकार गोपालदास नीरज का 19 जुलाई की शाम तकरीबन साढ़े सात बजे 93 वर्ष की उम्र में दिल्ली के एम्स अस्पताल में निधन हो गया।
उनके बेटे शशांक प्रभाकर ने मीडिया को जानकारी दी कि आगरा में प्रारंभिक उपचार के बाद उन्हें 18 जुलाई को दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया था, लेकिन डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनके पार्थिव शरीर को अलीगढ़ ले जाया जाएगा, जहां उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में 4 जनवरी 1925 को जन्मे मशहूर गीतकार नीरज का पूरा नाम गोपालदास सक्सेना 'नीरज' था। वह मशहूर हिन्दी साहित्यकार ही नहीं, बल्कि फिल्मों के गीत लेखक के बतौर उनकी खासी पहचान है। 'लिखे जो खबर तुम्हें...' जैसा एवरग्रीन गाना उन्हीं ने लिखा था। हिंदी साहित्य को उनके अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार की तरफ से उन्हें पद्मश्री और पद्म भूषण सम्मान से नवाजा जा चुका है। हिंदी फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए नीरज को तीन बार फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला।
वरिष्ठ पत्रकार और कवि विमल कुमार नीरज को याद करते हुए उनके प्रेम से जुड़ा एक बहुत ही प्यारा वाकया सुनाते हैं कि नीरज का एक प्रेम प्रसंग आज तक नही भूला। उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में बताया था। वे जिस लड़की से प्रेम करते थे वो एक स्टेशन मास्टर की बेटी थी। नीरज एक गरीब परिवार के थे। लड़की के बाप ने शादी करने से मना कर दिया। जब नीरज बहुत सफल गीतकार बन गए तो 20 साल बाद उस लड़की के घर गए शायद वह मिले। संयोग से लड़की घर में थी। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने देखकर अवाक रह गयी। बोली आप इतनी बड़ी हस्ती हैं। आपको अपने घर मे कहाँ बिठाऊँ, यह कह कर लड़की ने दरवाज़ा बन्द कर दिया। नीरज वापस मायूस होकर लौट गए। उन्होंने उस भेंटवार्ता में कहा मेरे जीवन की यह सबसे दर्दनाक और अविस्मरणीय घटना है। इसी को कहते हैं ज़िन्दगी।'
साहित्यकार हीरालाल नागर उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं, 'गीतकार नीरज नहीं रहे यह खबर भाई शिवकुमार अर्चन के माध्यम से मिली। हिन्दी के ऐसे गीतकार जिन्हें बच्चन जी के बाद मंच पर सर्वाधिक ख्याति मिली उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।'
दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक रहे अजय तिवारी नीरज को याद करते हुए कहते हैं, 'गोपालदास के साथ एक युग बीत गया। कवि सम्मेलनों के मंच पर हिंदी को सम्मान दिलाने वालों में वे एक थे। कविता के नामपर भँड़ैती को पीछे करके साहित्यिक रुचि के निर्माण में उनकी महत् भूमिका थी। वे मनमौजी और स्वाभिमानी थे। उनकी कमी बहुत दिनों तक अखरेगी।'
आइए पढ़ते हैं उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनकी कुछ कविताएं—गीत
(1)
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए
रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए
अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए
फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया
जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए
छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए
(2)
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए।
गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।
3.
तुम कफ़न चुराकर बैठ गए जा महलों में
देखो! गांधी की अर्थी नंगी जाती है,
इस रामराज्य के सुघर रेशमी दामन में
देखो सीता की लाज उतारी जाती है,
उस ओर श्याम की राधा वह वृन्दावन में
आलिंगन-चुम्बन बेच पेट भर पाती है ।
हो सावधान! सँभलो ओ ताज-तख्तवालो!
भूखी धरती अब भूख मिटाने आती है।
4.
मूर्ख पुजारी है वह जो कहता है मन्दिर ईश्वर का घर,
मुल्ला भी वह बहका है जो कहता वह मस्जिद के अन्दर,
मन्दिर-मस्जिद में ही उनका ईश्वर और खुदा होता तो
मन्दिर में बन सकती मस्जिद; मस्जिद में बन सकता मन्दिर।
5.
यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नयी नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में
यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूंज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में
गंगा ज़मज़म के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी़ हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।