Savita Singh Ki Kavita: मैं किसकी औरत हूं कौन है मेरा परमेश्वर
Savita Singh Ki Kavita: मैं किसकी औरत हूं कौन है मेरा परमेश्वर
सप्ताह की कविता में हिंदी की ख्यात कवि सविता सिंह की कविताएं
Savita Singh Ki Kavita: महादेवी वर्मा के आँसुओं से लबरेज़ हिंदी कविता में गगन गिल ने करुणा का आलोक रचा तो कात्यायनी ने उसे एक विद्रोही मुद्रा दी। इसी कडी में सविता सिंह अपनी कविताओं में समकालीन हिंदी कविता की सीमाएँ बतलाती उसे तोड़ती नज़र आती हैं। कविता में उनकी चुनौती कविता के बाहर परंपरा तक जाती दिखती है। वे खुद को उस मातृसत्तात्मक समाज से जोड़ती हैं, जहाँ ऊँचे ललाट वाली विदुषियाँ रहती थीं। जिनका विराट व्यक्तित्व होता था पुरुषों की तरह। ऋग्वेद में एक पंकित है-'ममपुत्रा: शत्रु हरोथो मे दुहिता विराट!' जिस सूक्त की यह पंक्ति है, उसकी रचनाकार एक स्त्री ऋषि शची पौलमी हैं। अपनी कविता 'परंपरा' में सविता उसी विराट स्त्री को तलाशती दिखती हैं, जो ऋग्वेद के बाद फिर नहीं दिखती है। सविता सिंह की कविताओं में शची के उदात कवित्व बोध की स्मृति दिखार्इ पड़ती है-'शब्द भले ही रोशनी के पर्याय/ रहे हों औरों के लिए/ ...शब्द लेकिन छिपकर/ मेरी आँखों में धुंधलका बोते रहे हैं/...दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा/ में वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं/ जो पैदा करे स्पर्धा... (परंपरा में)'
प्रकृति की कठोर निस्संगता अपने परस्पर विरोधी धाराओं के साथ सविता के यहाँ अभिव्यक्ति पाती है। प्रकृति और जीवन की विडंबनाओं के ऐसे चित्र इससे पहले बांग्ला कवियों शक्ति चटटोपाध्याय, विष्णु डे के यहाँ मिलते हैं - 'आज भी हर रात /एक तारा उतरता है मुझ में /हर रात उतना ही प्रकाश मरता है...' उदात्तता, जो पुरुषों की थाती मानी जाती रही है उसमें भी सविता की कविता बटटा लगाती दिखती है। सविता की प्रकृति संबंधी कविताओं की विशेषता यह है कि वहाँ खुद कवयित्री प्रकृति स्वरूप होकर स्थितियों को अभिव्यक्त करती है। इसमें कई जगह बेरुखी झलकती है और यही इन कविताओं की ताकत बन जाती है। जिजीविषा और अपार धैर्य को अभिव्यक्त करतीं कविताएँ सविता के पास ज्यादा हैं। और यह मुझे भी दिखाए कठिनतम संतुलन उनकी परंपरान्वेषी व्यापक जीवन दृष्टि के कारण ही संभव हो सका है, 'कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में /उन नदियों, पहाड़ों, जंगलों में... /स्थितियों में भी कैसे /बचा रहता है जीवन (कोई हवा)'
अपनी चर्चित कविता भागी हुई लड़कियाँ' में आलोक धन्वा लिखते हैं - वह कहीं भी हो सकती है/ गिर सकती है /बिखर सकती है /लेकिन वह खुद शामिल होगी सबमें...' सविता की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि दो दशक पहले आलोक जैसे कवि ने जैसी स्त्री की कल्पना की थी वह इनमें मौजूद है। सविता की कविताएँ बता रही हैं कि अब उन्हें दूसरे की करुणा और परिभाषाओं की जरूरत नहीं। अपने हिस्से के अंधेरों को कम करना, उनसे जूझना सीख गई हैं सविता की स्त्रियाँ। यह कैसी विडंबना है कि हिंदी की युवा कविता पीढ़ी के एक प्रतिनिधि, प्रेम रंजन अनिमेष जब अपने पहले कविता संग्रह 'मिट्टी के फल' में अपनी 'गालियाँ' कविता में हार न मानने वाली स्त्री के हथियार के रूप में नाखूनों के अलावा मात्र गालियों की कल्पना कर पाते हैं उसी समय युवा कवयित्री सविता सिंह 'अपने जैसा जीवन' में लिख रही होती हैं -'सोचती हूँ इतना सोचने से/ कटता जाएगा दिन और रात का निर्मम प्रहार मुझ पर/ क्रमशः कम होते जाएंगे अंधेरे मेरे हिस्से के (अंधेरे मेरे हिस्से के)' सविता की स्त्रियाँ, अपनी अभिव्यक्ति के लिए नाखूनों व गालियों की मुहातज नहीं ये। ये वे हैं जिन्होंने अपने चमकते, चेतन विश्वासों को अंधेरे के बीचोबीच गाड़ दिया है। आइए पढ़ते हैं सविता सिंह की कविताएं -कुमार मुकुल
मैं किसकी औरत हूं
मैं किसकी औरत हूं
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पांव दबाती हूं
किसकी मार सहती हूं
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफर करती
उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल
आंखें धंस गयी थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे दुख के पठार
थी अनेक फटकारों की खाइयां
सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
मैं किसी की औरत नहीं हूं
मैं अपनी औरत हूं
अपना खाती हूं
जब जी चाहता है तब खाती हूं
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं
उसकी आंखों में भर आई एक असहज खामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन
संशय में पड़ गयी वह
समझते हुए सभी कुछ
मैंने उसकी आंखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा
फिर हंसकर कहा मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है
मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा
लेकिन कुछ घटित हुआ जिसे तुम नहीं जानतीं
हम सब जानते हैं अब
कि कोई किसी का नहीं होता
सब अपने होते हैं
अपने आप में लथपथ-अपने होने के हक से लकदक
यात्रा लेकिन यही समाप्त नहीं हुई है
अभी पार करनी हैं कई खाइयां फटकारों की
दुख के एक दो और समुद्र
पठार यातनाओं के अभी और दो चार
जब आखिर आएगी वह औरत होएगी
जिसे देख तुम और भी विस्मित होओगी
भयभीत भी शायद
रोओगी उसके जीवन के लए फिर हो सशंकित
कैसे कटेगा इस औरत का जीवन फिर से कहोगी तुम
लेकिन वह हंसेगी मेरी ही तरह
फिर कहेगी
'उन्मुक्त हूं देखो
और यह आसमान
समुद्र यह और उसकी लहरें
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं
ओर मैं हूं अपने पूर्वजों के श्राप और अभिलाशाओं से दूर
पूर्णतया अपनी!'
परंपरा में
दूर तक सदियों से चली आ ही परंपरा में
उल्लास नहीं मेरे लिए
कविता नहीं
शब्द भले ही रोशनी के पर्याप्त रहो हों औरो के लिए
जिन्होंने नगर बसाये हों
युद्ध लड़े हों
शब्द लेकिन छिपकर
मेरी आँखों में धुँधलका ही बोते रहे हैं
और कविता रही है गुमसुम
अपनी परिचित असहायता में
छल-छद्म से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में
इस नगरों के साथ निर्मित की गयी एक स्त्री भी
जिसकी आत्मा बदल गयी उसकी देह में
दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा में
वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं
जो पैदा करे स्पर्द्धा
वह रही सभ्यता के तल में दबी
मधुमक्खियों सरीखी बुनती छत्ता
समझती उनकी संगठन कला को
प्रतीक्षारत वह रही
कि अगली बार बननेवाले नगरों में
काम आयेगी यक़ीनन उसकी यह कला
शब्दों के षड्यंत्र तब होंगे उसकी विजय के लिए
बनेंगे नये नगर फिर दूसरे
युद्ध और शांति पर नये सिरे से
लिये जायेंगे फ़ैसले।
जब पत्ते झर रहे होते हैं
लगातार जब पत्ते झर रहे होते हैं।
बेआवाज़ एक चुप में
जब वीतराग-सा पुराना पेड़
पुराने क़िले की तरफ़ देखता है एकटक
बुढ़ाते वक़्त को बूढ़े पत्थरों में
चले जाते हैं एक-एक कर ढेर सारे शब्द
जो मेरे थे क्षण भर पहले
मुझसे निकलकर
ऐसे में क्या करती हो तुम
जब यह समझ चुकी हो
बहुत दूर तक सिर्फ़ अपनी आत्मा साथ रहती है
या अपने दुख
जब पत्ते झर रहे होते हैं एक कठोर निरंतरता में
जब प्रकृति उदास मुख लिये हवा-सी
बहती रहती है तुमसे लगकर
यों ही रखती अपना सिर तुम्हारे वक्ष पर
बटोरती तुम्हारे शब्द जो झर रहे थे तुमसे
बनाती उससे अपना संगीत
जबसब कुछ तुम्हार तुमसे निकल चुका हो
तुम्हारे रुदन के प्रकंपित एकांत में उतरने
कौन आता है उसे भरने
लीपने किसी नये क्षोभ से
जब पत्ते झर रहे होते हैं।
क्या कुछ झर रहा होता है तुम्हारा।