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इस बार का मजदूर दिवस मजदूरों की भूख, बेकारी और बेबसी के नाम
1 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष
मजदूर नेता मुकेश गोस्वामी की मजदूर दिवस पर कोरोना जैसी महामारी से सर्वाधिक प्रभावित मजदूरों के हालात बयां करती टिप्पणी
जनज्वार। 1 मई मज़दूर दिवस अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस है, इसकी प्रेरणा एक दिन में काम के घंटे तय करने के लिए उन्नीसवीं सदी में हुए पहले बड़े संघर्ष से मिली। मजदूर दिवस सम्मान, सुरक्षा और काम के घंटों के बारे में है, लेकिन भारत में बड़ी तादाद में काम की जगहों पर मजदूरों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
जाति, धर्म, भाषा लिंग आदि के आधार पर उत्पीड़न शामिल है। मई दिवस हमारे काम की पहचान, काम की सुरक्षित जगह और काम करने के लोकतांत्रिक सम्मानजनक माहौल के लिए संघर्ष के बारे में है। इस बार मई दिवस ऐसे समय में आया है जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इस महामारी का सबसे अधिक बुरा प्रभाव मजदूरों पर ही पड़ा है।
जब भी कोई सर्वव्यापी संकट आता है तो उसमें सबसे अधिक मजदूर (सर्वहारा) ही पिसता है। हमने आँखों से अमीर और गरीब का विभाजन होते हुए देखा है, गरीबों को तडपते हुए देखा है जो बहुत दर्दनाक है, जिसे बयां करना इतना आसन नहीं है।
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इस महामारी के दौरान हमने बहुत नजदीक से वर्ग के आधार पर सरकारों का बर्ताव और लोगों में विभाजन देखा है, जिसे शायद ही भुलाया जा सके। जिस वर्ग के पास संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं उनको लग रहा है कि हमारे सत्ताधीशों द्वारा किया गया लॉकडाउन बहुत अच्छा काम है, क्योंकि सब लोग घरों से नहीं निकलेंगे तो यह बीमारी फैलेगी ही नहीं और वे सुरक्षित रह पाएंगे।
देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जो कचरा मशीनों से उठाना चाहिए, उसे हमारे मजदूर चुनते हैं और कचरे में अपनी आजीविका तलाशते हैं उसे इकठ्ठा करते हैं और शाम को उसे बेचकर अपनी रोटी का जुगाड़ करते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुश्किल ही नहीं भूख से मरने का संकट पैदा हो गया। इसी प्रकार जो अपना गाँव छोड़कर काम की तलाश में शहर की ओर निकलते हैं और सोचते हैं कि उन्हें शहरों में काम मिलेगा। मेहनत मजदूरी करके वे इज्जत की रोटी खा पाएंगे, लेकिन इन बड़े शहरों में उनको क्या मिलता है तिरस्कार, धक्के, और पुलिस के डंडे। ये सब भी वह सह लेता है और सरकारें कुछ भी नहीं करती है, क्योंकि ये पूँजी पर टिकी सरकारें होती हैं। यदि पूंजीपतियों के इशारे पर ना चलीं तो ढह जाएँगी।
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देश में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी कानून आने के बाद भी गाँव की परिस्थितियां इस प्रकार की रही हैं कि लोगों को मजदूरी करने के लिए अपना जिला, प्रदेश और देश छोड़कर बाहर जाना ही पड़ता है। जो लोग पलायन करके शहरों में आकर मजदूरी करते हैं इन लोगों को इतनी कम मजदूरी मिलती है जिसकी वजह से वे ना तो शहर में घर बना सकते हैं और ना ही किराये पर घर ले सकते हैं, इसलिए ये अपनी एक झुग्गी किसी सड़क किनारे बनाते हैं।
झुग्गी में अपना जीवनयापन करने लगते हैं। उसे भी गरीबों से खुन्नस खाए लोग पुलिस से समय-समय पर तुड़वा देते हैं, जिससे वे फिर कहीं और चले जाते हैं और फिर एक नहीं झुग्गी बनाते हैं। आज इन झुग्गी वाले लोगों के पास भूख से मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, क्योंकि इनके पास ना पैसा है, मजदूरी कर नहीं सकते हैं, क्योंकि लॉकडाउन है।
एक अन्य प्रकार के मजदूर वे हैं जो एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हैं, एक देश से दूसरे देश में रोजी रोटी के लिए अपनी जान जोखिम डालकर जाते हैं। ये मजदूर भी सरकार और पूंजीपति दोनों के लिए बहुत कमाई करते हैं, जिसमें एक बहुत छोटा हिस्सा उनको मिलता है। बाकी का हिस्सा पूंजीपति डकार जाते हैं।
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लाखों की तादाद में ये मजदूर एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हैं या एक देश से दूसरे देश में जाते हैं। लॉकडाउन के दौरान इन मजदूरों की स्थितियां देखकर प्रसिद्द कबीर बाणी के स्थानीय कवि जिन्होंने सूचना के अधिकार आन्दोलन और अन्य कई आन्दोलनों के लिए गीत बोले, क्योंकि वे लिखना नहीं जानते थे मोहनराम जी वाला गीत बहुत बार याद आया कि परदेशऊँ आया रे भाया रामा शामा कर लो, रूपया कतरा लाया रे...
इस बार प्रवासी मजदूर रुपये लेकर तो घर नहीं जा पाया, बल्कि कोई तो पैदल चलते चलते मर गया, कोई भूख से रास्ते में मर गया, किसी का तो आज तक पता ही नहीं चला है कि वह इस दुनिया में है या नहीं है। जबकि संपन्न वर्ग के लिए सरकारों ने विदेश से लाना हो चाहे एक राज्य से दूसरे राज्य में लाना हो या राज्य के अन्दर ही लाना हो सारी व्यवस्थाएं की गईं।
इसी के साथ प्रवासी मजदूर अपने घर लौटना चाहते हैं और लम्बे समय से इंतजार कर रहे हैं। उन्हें शुरुआत में बड़ी उम्मीद थी कि हमारी सरकारें हमें सुरक्षित घर घर पहुंचाएंगी, लेकिन मजदूरों के साथ जिस प्रकार का बर्ताव सरकारों के द्वारा किया जा रहा है, उससे ये सिद्ध हो गे है कि ये सरकारें तो पूंजीपतियों की रखैल ही हैं।
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सरकारों ने आदेश दिए हैं कि मजदूरों की मजदूरी का भुगतान तुरंत किया जाये और लॉकडाउन के दौरान की भी मजदूरी दी जाये, लेकिन अभी तक राजस्थान के कई औद्योगिक इलाकों में नाममात्र के लिए भी मजदूरों को मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया है। लॉकडाउन के दौरान की मजदूरी देना तो असंभव है। एक ऐसा समय जब भारतीय रिज़र्व बैंक पूंजीपतियों के 68 हजार करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालता है, उसी समय पर मजदूर रोटी के अभाव में भूखा मर रहा है।
देश के सत्ताधीश इसलिए इन मजदूरों पर कोई ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि देश की कुल कार्यशील श्रम शक्ति का 93% लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जिनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है। इन लोगों को सुविधानुसार अलग अलग जाति, धर्म, लिंग या भाषा के आधार पर बाँट रखा है।
इस बारे में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि जाति श्रम का नहीं श्रमिकों का विभाजन है। मई दिवस इन्हीं श्रमिकों की एकता का दिन है। यह संसार के सभी उत्पीड़ितों और मजदूरों की एकता का दिन है। इस महामारी ने देश ही नहीं दुनिया में एक बार फिर वर्ग का विभाजन स्पष्ट रूप से कर दिया है, जो अभी समाज में स्पष्ट रूप से दिखने लगा है।
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यह महामारी मजदूरों के लिए एकता का संदेश लेकर आई है क्योंकि या तो एक हो जाओ नहीं तो आपका अस्तित्व ही इस दुनिया से ख़त्म हो जायेगा, इसलिए हमें इस मई दिवस पर यह प्रण लेना होगा कि हम मजदूर जाति, धर्म, भाषा, लिंग आदि में नहीं बंटेंगे और अपना जो वास्तविक हिस्सा है उसे लेकर रहेंगे। फैज़ अहमद फैज़ की वो पंक्तियाँ बरबस ही याद आती हैं-
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनियां मांगेगे....
(मुकेश गोस्वामी राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)