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इंसान गढ़ने वाले महान कलाकार-जनशिक्षक का नाम था लालबहादुर वर्मा

Janjwar Desk
17 May 2021 4:12 AM GMT
इंसान गढ़ने वाले महान कलाकार-जनशिक्षक का नाम था लालबहादुर वर्मा
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जनता के इतिहासकार और आंदोलनकारी लाल बहादुर वर्मा अपनी बेटी आसु वर्मा के साथ

लाल बहादुर वर्मा सच्चे अर्थ में आज के समय में ग्राम्शी के आर्गेनिक जपक्षधर बुद्धिजीवी थे, नुक्कड़ नाटकों की टीम के बीच, सड़कों पर, आम लोगों के बीच उनके जीवन का बड़ा हिस्सा बीता, जितनी उनमें मेधा थी, उतनी ही जनपक्षधरता...

सुप्रसिद्ध इतिहासकार लालबहादुर वर्मा को उनके निधन पर याद कर रहे हैं सिद्धार्थ रामू

जनज्वार। जो कोई थोड़ा भी नजदीक से या उनके चाहने वालों के जुबानी लालबहादुर वर्मा को जनता रहा होगा, वह उनके बारे में दावे से कह सकता है कि इंसान गढ़ने वाले एक महान कलाकार और जनशिक्षक थे।

उन्होंने एक नहीं, दो नहीं,... सौ नहीं हजारों इंसान गढ़े हैं, जो आज भी आंखों में खूबसूरत दुनिया का ख्वाब लिए अपने-अपने तरीके से बेहतर दुनिया बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ये उत्तर भारत हर कहीं, मिल जाते हैं। उन्होंने सैकड़ों पेशेवर क्रांतिकारी गढ़े, उन्होंने सैकड़ों जमीन एक्टिविस्ट गढ़े, उन्होंने नाटकार गढ़े, गीतकार गढ़े और कवि-लेखक गढ़े।

सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने लड़कियों-महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार की, जो अपने-अपने तरीके से बेहतर दुनिया गढ़ रही हैं और साथ ही पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं। उनमें से बहुत सारी आज भी बेहतर दुनिया के लिए लड़ रही है, कुछ जेल की सलाखों के पीछे वर्षों गुजार चुकी हैं, लेकिन क्रांतिकारी परिवर्तन का उनका सपना अभी भी जिंदा है।

लालबहादुर वर्मा के आंखों में न्याय, समता, बंधुता और सबकी समान समृद्धि पर आधारित समाज का एक ख्वाब था, कभी इसे वे समाजवाद के नाम पर परिभाषित करते थे, कभी कोई और नाम दिया, लेकिन सपना वही था।

लाल बहादुर वर्मा अच्छी तरह जानते थे कि बेहतर दुनिया बेहतर इंसान बनाते हैं, इसीलिए वे आजीवन बेहतर इंसान गढ़ने में लगे रहे है। अनवरत रात-दिन- अहर्निष। उन्होंने कितनों को बेहतर इंसान बनाया, अंगुलियों पर इसकी गणना करना मुश्किल है।

लालबहुदार वर्मा प्रोफेसर थे, इतिहासकार थे, भंगिमा और इतिहासबोध जैसी जनपक्षधर पत्रिकाओं के संपादक थे, अनुवादक थे, यह उनके लिए बहुत कम मायने रखता था, मेरे लिए भी उनके संदर्भ में यह सब बाते बहुत कम मायने रखती हैं।

संबंधित खबर : इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का देहरादून में हुआ निधन, हिंदीभाषी समाज की बड़ी क्षति

प्रोफेसर तो हर शहर की गली में मिल आजकल मिल जाते हैं, इतिहासकारों की संख्या भी कम नहीं है, संपादक भी बहुतेरे हैं, अनुवादकों की भी भरमार है। यह सब वर्मा जी के संदर्भ बहुत कम मायने रखता है, उनके लिए भी बहुत कम मायने रखता था।

लालबहादुर वर्मा हमारे समय के एक महान व्यक्तित्व थे, इसकी मूल वजह है, उनका प्रोफेसर होना, इतिहासकार होना,संपादक होना या लेखक होना नहीं है, इसकी मूल वजह अंतिम सांस तक खूबसूरत दुनिया के सपने को आंखों में सजोए रखना और उस दुनिया के निर्माण के लिए अपना सबकुछ समर्पित कर देना और उसके लिए अंसख्य इंसानों को गढ़ने में लगे रहना।

ऐसे व्यक्तित्व या महान कलाकार के निर्माण लिए कुछ तत्व आवश्यक हैं- गहरे स्तर की संवेदनशीलता, लोकतांत्रिक मानस और वैज्ञानिक टेंपरामेंट। यह सब वर्मा जी में मौजूद था।

उनके घर के दरवाजे सबसे लिए खुले थे, सच तो यह है कि उन्होंने कभी ऐसा घर बनाया ही नहीं, जिसे कहा जा सके कि यह वर्मा जी का निजी घर है। उनका घर सबका घर था। दिमाग से इतने लोकतांत्रिक यदि कोई बताए न, तो यह किसी को पता न चल पाए कि यह आदमी प्रोफेसर है, इतिहासकार है, साहित्यकार, बड़ा लेखक है और फ्रांस से पढ़कर आया।

लाल बहादुर वर्मा सच्चे अर्थ में आज के समय में ग्राम्शी के आर्गेनिक जपक्षधर बुद्धिजीवी थे। नुक्कड़ नाटकों की टीम के बीच, सड़कों पर, आम लोगों के बीच उनके जीवन का बड़ा हिस्सा बीता। जितनी उनमें मेधा थी, उतनी ही जनपक्षधरता।

वर्मा जी के लिए लोकतांत्रिक दिमाग, सबको समान समझना, वैज्ञानिक चेतना और इतिहास बोध यह सब किताबी बातें नहीं थीं, न कैरियर बनाने की सीढ़ी, न रोब गांठने का माध्यम। यह सबकुछ वे जीते थे, व्यवहार में। अमल में उतारते थे।

जब वे गोरखपुर थे, उन्होंने अपने घर को गोरखपुर की क्रांतिकारी-प्रगतिशील गतिविधियों का केंद्र बना दिया, जब वे इलाहाबाद गए, वहां के अपने घर को केंद्र बना दिया, जब उन्होंने जीवन के अंतिम समय में देहरादून को बसेरा बनाया, तो भी अपने घर को सामाजिक कार्यों का केंद्र बना दिया।

अभी हाल में उन्होंने देहरादून में प्रगतिशील किताबों के एक केंद्र का उद्घाटन किया था, जिसके केंद्र वे स्वयं थे।

वे जनकथाकार भी थे, वे मार्क्स की कथा को भी उतने ही चाव से सुनाते, जितने चाव से आंबेडकर की कथा को और भगत सिंह की कथा को। वे इतने जनपक्षधर थे कि कुंभ के मेले में भी जनपक्षधर दुनिया के निर्माण के लिए प्रगतिशील कथा केंद्र खोल देते थे।

एक बात और मेरी जानकारी में वर्मा जी, हिंदी पट्टी के अधिकांश बुद्धिजीवियों के उन बदत्तर अवगुणों से मुक्त थे, जो आम तौर उनमें उनमें पाई जाती है। जैसे जातिवाद, जैसे अवसरवाद, जैसे कैरियरवाद, जैसे आत्ममुग्धता, जैसे ज्ञान का पोर-पोर में भरा अंहकार , जैसे बेटे-बेटी या भाई-बहन को किसी भी शर्त विश्वविद्यालय में घुसा देने की अदम्य इच्छा और जैसे संपत्ति निर्माण को जीवन का ध्येय बना लेना।

लालाबहादुर वर्मा जी हिंदी पट्टी के आज के समय चंद विरले लोगों में एक थे, जिन्हें सच्चे अर्थों जनबुद्धिजीवी कह सकते हैं, जिनकी सारी मेधा, सारी बुद्धि, सारी जानकारी, सारी लेखकीय-संपादकीय शक्ति और जरूरत पड़ने पर सारे संसाधन और उर्जा जन के लिए समर्पित हो।

जीवन के अंतिम समय तक,जहां तक मैं जानता हूं, वे अपनी आजीविका के लिए खटते रहे।

लालबहादुर वर्मा ने खूबसूरत दुनिया बनाने के रास्ते भले ही थोड़ा अदले-बदले हों, लेकिन जीए जिंदगी भर, दुनिया को खूबसूरत बनाने के सपने के साथ और उन्हीं सपनों के साथ मरे।

वर्मा जी उन चंद सौभाग्यशाली लोगों में थे, जिन्हें टूटकर चाहने वालों की संख्या सैकड़ों में नहीं हजारों में है। हजारों लोगों में वर्मा जी किसी ने किसी रूप में जीवित हैं। आज वे सभी लोग गमगीन होंगे, अवसाद में डूबे होंगे। उसमें मैं भी शामिल हूं।

लेकिन अंत में एक बात जरूर, वर्मा जी ने शानदार जिंदगी जीना किसे कहते हैं और शानदार जिंदगी क्या होती है और बड़ा मनुष्य होना, कितना सुखद होता है, इसकी मिसाल कायम की।

उन्होंने एक शानदार जिंदगी जी और बहुतों को जिंदगीं किस बला का नाम है, यह बता कर गए और जिंदगी जीने का सलीका सीखा कर गए।

हिंदू पट्टी के महान जन शिक्षक को अंतिम अलविदा, आप हमेशा हमारी यादों, संवेदनाओं में और विचारों में जिंदा रहेंगें, आप हमेशा हमारी प्रेरणा बन रहेंगे। हम आपके सपनों को आगे बढ़ाने की भरपूर कोशिश करेंगे। अंतिम अलविदा!

(सिद्धार्थ रामू की यह टिप्पणी उनके एफबी वॉल से।)

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