38 सालों में पहली बार डॉलर के मुकाबले इतना नीचे गिरा रुपया, मामूली सुधार के लिए भी करना पड़ेगा सालभर का इंतजार
Dollar vs Rupee : डॉलर ( Dollar ) के मुकाबले रुपए ( Rupee ) में सुधार होगा या नहीं, यह सवाल अपने आप में बेमानी है। केंद्र को जो करने की जरूरत है, उसके लिए वो तैयार नहीं है। फिर, राष्ट्रवाद को अर्थव्यवस्था की रहा से नहीं हटाना सरकार की बड़ी भूल है।
रुपये में सुधार होगा या नहीं, होगा तो कब तक, विषय पर मानव विकास अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा से बातचीत पर धीरेंद्र मिश्र की रिपोर्ट
Dollar vs Rupee : देश और दुनिया में जारी उतार-चढ़ावों और अमेरिकी फेडरल रिजर्व के मौद्रिक नीति पर कठोर रुख की वजह से डॉलर दो दशक के अपने सर्वोच्च स्तर पर है। दूसरी तरफ भारतीय रुपए ( Indian rupee ) लगातार गिरावट जारी है। करीब 4 दशक के काल में भारतीय रुपय के मूल्य में गिरावट रिकॉर्ड स्तर पर है। 1985 के बाद से रुपया डॉलर ( Dollar ) के मुकाबले अपने सबसे बड़ी मासिक गिरावट के दौर से गुजर रहा है। एक नवंबर को भी रुपया ( rupee ) डॉलर के मुकाबले 31 पैसे की कमजोरी के साथ 82.78 के स्तर पर बंद हुआ है। यानि एक बार फिर रुपया डॉलर की तुलना में 83 के रिकॉर्ड के पार करने के करीब है।
ऐसे में अहम सवाल यह उठता है कि क्या डॉलर की तुलना में रुपया सुधरेगा, अगर हां तो कितना समय लगेगा। इस मसले पर जनज्वार डॉट कॉम ( https://janjwar.com/ ) से बाचतीत में मानव विकास सूचकांक के अर्थशास्त्री और कैम्ब्रिज, जेएनयू और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपना योगदान दे चुके संतोष मेहरोत्रा ( Human Development Economist Santosh Mehrotra ) का कहना है कि यह सवाल अपने आप में बेमानी है। ऐसा इसलिए कि सरकार को जो करने की जरूरत है, उसके लिए वो तैयार नहीं है। ऐसे में जनता पर महंगाई की मार और अप्रत्यक्ष कर के दुष्प्रभाव से राहत भी संभव नहीं है। फिर, राष्ट्रवाद को अर्थव्यवस्था की राह से नहीं हटाना, सरकार की बड़ी भूल है। इस मामले में स्वेदशी मंच की थ्योरी भी कम जिम्मेदार नहीं है। जब तक आप इन पहलुओं पर ध्यान नहीं देंगे तब, मुझसे ऐसे सवाल नहीं पूछिए कि डॉलर के मुकाबले रुपए कब तक सुधरेगा या उसमें कितना समय लगेगा।
दुनिया के जाने माने मानव विकास अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा ( Human Development Economist Santosh Mehrotra ) का कहना है कि डॉलर के मुकाबले रुपए में मामूली सुधार और सुधार में लगने वाला समय पर बात करना ही अपने आप में बेमानी है। उनका कहना है कि इस सवाल का मतलब क्या होता है। जब आपके देश में महंगाई ज्यादा होगा और प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में निर्यात होने वाले उत्पादों के मूल्य भी ज्यादे होंगे, और आप उम्मीद करें कि सुधार हो जाए, ये बेमानी की बातें है।
आम आदमी क्या चाहता है
संतोष मेहरोत्रा ( Santosh Mehrotra ) पूछते हैं, अच्छा आप ही बताइए, आम आदमी क्या चाहता है, यही न कि रुपए की कीमत डॉलर की तुलना में पहले की दर पर रहे। यह संभव नहीं है। रुपए और डॉलर के बीच पहले की अवस्था में मूल्य स्थिर रहना अपने आप में मूर्खता भरी बातें हैं। वर्तमान हालत में आरबीआई ऐसा करेगी तो देश कंगाल हो जाएगा। क्या देश का आम आदमी ऐसा होते देखना चाहेगा। नहीं न। लोग यह भी देखना पसंद नहीं करेंगे कि महंगाई दर और बढ़े या वर्तमान दर पर रहे। आखिर उसके पास संसाधन कितने हैं। वहीं न हो विभिन्न स्रोतों से उसके पा जमा होता है, उसके दम पर अभी आम डॉलर को और आगे बढ़ने से रोक नहीं सकते।
रुपये का गिरना लाजिमी है
अब यहां पर यह समझने की जरूरत है कि महंगाई दर ज्यादा कब होता है। जब आपका निर्यात का असर अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक हो। आज के दिन में रुपया नहीं गिरने पर निर्यात कम हो जाएगा। इसलिए आरबीआई की कोशिश होती है कि देश की अर्थव्यवस्था को जितना बचा सकते हो बचा लो। इस नीति के तहत ही रुपए को थोड़ा गिरने दिया जाता है।
ऐसा नहीं करेंगे तो महंगाई में और ज्यादा इजाफा होगा
इसके उलट आप निर्यात कम करते हैं, आयात ज्यादा करते हैं तो महंगाई बढ़ेगी ही। ऐसा इसलिए कि आप 80 फीसदी तेल का आयात करते हैं। भारत की इसकी कीमत ज्यादा चुकानी पड़ती है। ऐसे में महंगाई में बढ़ोतरी को आप रोक नहीं पाएंगे।
अब, आप यह पूछ सकते हैं कि महंगाई पर लगाना संभव नहीं है क्या, या लोगों को कर की मार से राहत नहीं मिलेगी क्या, तो मेरा जवाब यह है कि ऐसा नहीं है। इस लक्ष्य हो हासिल करने की जिम्मेदारी भारत सरकार, आरबीआई और सरकारी व गैर सरकार प्रभावी संस्थानों पर निर्भर है। सरकार की जिम्मेदारी है आम आदमी की जरूरी चीजों पर दाम नहीं बढ़ाए। लोगों पर अप्रत्यक्ष कर का बोझ न बढ़ाए। हकीकत क्या है, सरकार लोगों को महंगाई बोझ कर के रूप में बढ़ाये जा रही है। आप पूछेंगे तो, सरकार ऐसा नहीं करेगी तो काम कैसे होगा। इसका भी जवाब है। सरकार के पास इसके विकल्प हैं, पर आपकी ये राष्ट्रवादी सरकार उन विकल्पों पर अमल नहीं करेगी।
सरकार के पास है कॉरपोरेट टैक्स का विकल्प
जनता को राहत देने और सरकारी खर्च निकालने के लिए केंद्र को चाहिए कि कुछ समय के लिए कॉरपोरेट टैक्स पर लगा दे। इसके अलावा देश के अमीर आयकरदाताओं पर आंशिक बोझ बढ़ा दे। कहने का मतलब है कि इन दोनों पर सरकार कुछ समय के लिए सरचार्ज लगा दे। हमेशा के लिए नहीं, दो या तीन साल के लिए। जब तक फिसकल डिफिसिट दर ज्यादा है।
रुपए को राजनीति से दूर करना जरूरी
सरकार आम आदमी के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमत न बढ़ाए। मोदी सरकार ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है। अंबानी और अडानी व अन्य कारपोरेटर्स उन्हें पैसे दे देते हैं। यहां पर इस बात का जिक्र करना और जरूरी है कि भारतीय मुद्रा यानि रुपया राजनीति से जुड़ गया है। राजनीति होने की वजह से सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं है। आरबीआई के हाथ बंधे हुए हैं। आरबीआई के कोई अथाह भंडार तो है नहीं कि वो खुल जा सिम सिम कह दे और लोगों को राहत मिल जाए। सरकार के पास एक विकल्प एफडीआई का है, जो अभी नहीं हो पार रहा है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच वित्तीय तंत्रों का उपयोग कर सरकार को रास्ते निकालने होंगे। यहां पर समझने की चीज ये है कि आर्थिक गतिविधियां अगर साइंस हैं तो यह एक आर्ट भी है। सरकार को मालूम होना चाहिए कि किस रणनीति के तहत कब, कहां, किस मात्रा और किस रूप में टैक्स के बोझ का इस्तेमाल करना है।
यहां पर आपको बता दूं कि स्वदेशी जागरण वाले तो बात ऐसे करते हैं कि वो रुपए को डॉलर के मुकाबले लाकर रख देंगे, उनकी राह में उनका राष्ट्रवाद सबसे बड़ी बाधा है। उन बाधाओं को वो दूर नहीं करना चाहते। सबकुछ को राष्ट्रवाद से जोड़कर बैठे रहेंगे तो वहीं होगा, जो आजकल आप देख रहे हैं। कहने का मतलब है कि देश का क्या हाल है।
Dollar vs Rupee : बता दें कि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया इतिहास में पहली बार 83 पार होने के करीब है। सवाल उठ रहे हैं कि लगातार हो रही इस गिरावट में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए क्या संदेश हैं। पिछले छह महीनों में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने भारत से करीब 2,320 अरब रुपये निकाल लिए हैं। विदेशी निवेशकों का पैसे निकाल लेना इस बात का संकेत है कि वो भारत को इस समय निवेश करने के लिए सुरक्षित नहीं समझ रहे हैं।
साल 2022 में डॉलर सूचकांक में अभी तक 9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। डॉलर 20 सालों में अपने सबसे ऊंचे स्तर पर है। डॉलर के आगे सिर्फ रुपया ही नहीं बल्कि यूरो की कीमत भी गिर गई है। मंगलवार को यूरो गिर कर डॉलर के बराबर पहुंच गया। इससे पहले सिर्फ 2002 में हुआ था और अब हुआ है। कुछ जानकारों का मानना है कि अगर यूरो भी इसी तरह गिरता रहा तो यह रुपये के लिए भी शुभ संकेत नहीं है।