सबकुछ निजी क्षेत्र को सौंप दिया तो हमारे देश में गरीबों का जीना हो सकता है मुहाल
90 प्रतिशत दिल्ली वाले प्रतिमाह 25 हजार से भी कम रुपये अपने परिवार पर खर्च करते हैं, इसका साफ मतलब है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं है, इसलिए उन्हें निजी बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता, सार्वजनिक क्षेत्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह बाजार में संतुलन बनाए रखता है और निजी क्षेत्र को मनमानी नहीं करने देता....
आम जनता के अर्थशास्त्री अरुण कुमार का विश्लेषण
जनज्वार। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के दिन क्या अब लद गए हैं? क्या आने वाले समय में देश का भविष्य निजी हाथों में है? या, हम ऐसे किसी मध्यमार्ग का गवाह बन सकते हैं, जिसके हमराह बनकर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मिलकर देश की तरक्की को साकार कर सकेंगे? ये सवाल इसलिए, क्योंकि बीते बुधवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निजी क्षेत्र की भूमिका की जमकर सराहना की। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र जरूरी है, लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। आज भारत मानवता की सेवा इसलिए कर रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र का भी सहयोग मिला।
अपने यहां निजी क्षेत्र की अब तक की यात्रा प्रधानमंत्री की बातों को कुछ हद तक सही बताती हैं, लेकिन पूरा सच सिर्फ यही नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका आज भी देश में कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। कोरोना महामारी का हमारा अनुभव भी इसकी तस्दीक करता है। हमने देखा है कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए यह किस कदर तत्पर रहा। कोरोना मरीजों की तीमारदारी हो या विदेश में फंसे भारतीयों को वापस लाना, सरकारी उपक्रम ही आगे रहे। आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में भी सरकारी क्षेत्र की कंपनियों ने ही देश की बुनियाद तैयार की, जबकि निजी क्षेत्र पूंजी की कमी का रोना रोते रहे।
सवाल यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की छवि आज इतनी खराब क्यों हो गई है? आखिर क्यों यह माना जाता है कि सरकारी नौकरी में आने के बाद लोगों में आरामतलबी बढ़ जाती है? दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र 'क्रोनी कैपिटलिज्म' से जूझ रहा है। इसका अर्थ है कि उद्योगपति सत्तारूढ़ नेताओं और नौकरशाहों से सांठगांठ करके अपना हित साध लेते हैं। जैसे, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में विजय माल्या नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य भी थे और अपनी विमानन सेवा भी शुरू कर चुके थे। नतीजतन, माना यही जाता है कि अपने फायदे के लिए ही उन्होंने किंगफिशर के स्लॉट एअर इंडिया से 10 मिनट पहले तय करवाए, जिसका नुकसान सरकारी विमानन सेवा को उठाना पड़ा।
जानी-मानी अर्थशास्त्री जून रॉबिन्सन ने काफी पहले कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ यदि निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया जाएगा, तो सार्वजनिक क्षेत्र कतई सफल नहीं हो सकता। हमारा अब तक का अनुभव ऐसा ही रहा है। जहां-जहां निजी क्षेत्र का दखल हुआ, वहां-वहां से सार्वजनिक क्षेत्र को बाहर करने की कोशिशें तेज होने लगीं। संभवत: इसीलिए 1993 में वैकल्पिक बजट बनाते समय करीब 20 सांसदों के साथ जब हमारी बैठक हुई, तब पूर्व उद्योग मंत्री अजीत सिंह ने साफ-साफ कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र को भी निजी क्षेत्र की तरह चमकदार बनाया जाना चाहिए। उस बैठक में कमोबेश सभी इससे सहमत थे कि निजी क्षेत्र की कंपनियां सांठगांठ करके अपने काम निकालती हैं, जिसका नुकसान अंतत: सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को उठाना पड़ता है।
दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र को जान-बूझकर महत्वहीन बनाया जाता रहा, जबकि सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में यह क्षेत्र कितना आगे है, यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) का ही उदाहरण लें। इसने पिछड़े क्षेत्र को भी खूब संवारा है। हरिद्वार में ही जब भेल का संयंत्र लगाया गया, तो रेल पटरियों को खासा मजबूत बनाया गया। न सिर्फ वहां संयंत्र शुरू हुए, बल्कि टाउनशिप भी बसाई गई। कुल मिलाकर, एक पूरा सामाजिक ढांचा तैयार किया गया। निजी क्षेत्र की कंपनियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे से मतलब होता है। पिछली सदी के 90 के दशक के बाद नीतियां इसी तरह से बनाई गईं कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां घाटे में जाती रहीं और फिर उनको निजी हाथों में बेचा जाता रहा।;
सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को आरामतलबी से जोड़ने के पीछे भी यही मकसद है। इससे कर्मचारियों के मनोबल को तोड़ने की कोशिश की जाती है। आज भी जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी निजी क्षेत्र के किसी भी मैनेजर से कम काम नहीं करते। सुबह से लेकर देर शाम तक वे मेहनत करते हैं। फिर भी, बाबूगीरी का दाग उन पर थोप दिया गया है। बेशक कई सरकारी संस्थान हैं, जहां काहिली पसरी हुई है। मगर टूटे हुए मनोबल से यदि कर्मचारियों से काम लिया जाए, तो निजी क्षेत्र की कंपनियां भी फायदा नहीं कमा सकतीं। ऐसे में, मध्यमार्ग कहीं बेहतर जान पड़ता है।
सार्वजनिक उद्यमों की हमें उन इलाकों में खासतौर से जरूरत है, जहां गरीबी पसरी हुई है। लिहाजा सरकारी संस्थानों में पारदर्शिता लानी चाहिए और उनको जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। तभी वे सही तरीके से काम कर सकेंगे। रही बात निजी क्षेत्र की, तो इसे भी अवश्य तवज्जो मिलनी चाहिए, लेकिन उन जगहों पर, जहां धनाढ्य वर्गों का वास्ता ज्यादा हो। निजी क्षेत्र को खुश करने की परंपरा बंद होनी चाहिए।
सामाजिक-आर्थिक सर्वे के मुताबिक, 90 प्रतिशत दिल्ली वाले प्रतिमाह 25 हजार से भी कम रुपये अपने परिवार पर खर्च करते हैं। इसका साफ मतलब है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं है, इसलिए उन्हें निजी बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता। सार्वजनिक क्षेत्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह बाजार में संतुलन बनाए रखता है और निजी क्षेत्र को मनमानी नहीं करने देता। एम्स यदि कोई ऑपरेशन एक लाख रुपये में करता है, तो निजी अस्पताल चाहकर भी उसके लिए 10 लाख रुपये नहीं मांग सकते। उन्हें अधिक से अधिक तीन-चार लाख में ही उस ऑपरेशन को करना होगा। दूसरे देशों से भी हम अपनी तुलना नहीं कर सकते। विशेषकर विकसित देशों में बेशक निजी कंपनियों का बोलबाला है, लेकिन इसकी वजह यही है कि वहां गरीबी कम है।
अगर हमने अपने यहां निजी क्षेत्र को सबकुछ सौंप दिया, तो हमारे गरीबों का जीना मुहाल हो सकता है। बाजारीकरण की नीतियों ने देश में खासा असमानता बढ़ाई है। एक तरफ हम कम आमदनी वाले देशों में शामिल हैं, तो दूसरी तरह अरबपतियों की संख्या के मामले में दुनिया में चौथे पायदान पर हैं। निजी क्षेत्र को अधिक महत्व देने से यह असमानता और बढ़ती जाएगी।
(सुविख्यात अर्थशास्त्री अरुण कुमार का यह लेख पहले दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित।)