तो नोटबंदी पर अमल कर केंद्र ने लोकतंत्र को कमजोर किया!
केंद्र सरकार ने छह साल बाद ही सही, 17 नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी के फैसले के औचित्य पर हलफनामा दायर कर उसके परिणामों पर विचार करने का मौका दे दिया है।
Notebandi पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र के हलफनामे पर जनज्वार की एक रिपोर्ट
नई दिल्ली। विमु्द्रीकरण या नोटब्ंदी ( Demonetization ) जैसे अलोकप्रिय फैसले पर छह साल बाद ही सही केंद्र सरकार ( Modi government ) ने सुप्रीम कोर्ट ( Supreme court ) में हलफनामा ( Central Government affidavit ) दाखिल कर इस पर नये सिरे से बहस ( debate on Notebandi ) के साथ फैसले की वैधता और उसके परिणामों पर विचार करने का मौका जरूर दे दिया है। अब अदालत विभिन्न पहलुओं पर विचार कर ये फैसला सुना सकती है कि वास्तव में नोटबंदी ( Notebandi ) का फैसला सही था या गलत। हालांकि, इन फैसलों का अब व्यापक परिप्रेक्ष्य में औचित्य नहीं है। ऐसा इसलिए कि केंद्र के इस फैसले से आम जनता का जो नुकसान हुआ या देश की अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा उसकी क्षतिपूर्ति अब संभव नहीं है।
इसके बावजूद नोटबंदी इस बाद चर्चा में इसलिए है कि भारत सरकार ( Government of India ) ने 2016 में दायर विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपना हलफनामा दायर किया है। याचिकाकर्ता ने इस मामले में 8 नवंबर, 2016 को लागू की गई नोटबंदी की वैधता पर सवाल उठाया था। छह साल बाद ही सही इस मामले की सुनवाई शुरू हो गई है। ये बात अलग है कि छह साल के बाद सुनवाई शुरू होने से मामले की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। ऐसा इसलिए कि अब न तो विमुद्रीकरण और न ही इसके परिणामों को पलटा जा सकता है। अदालत का कोई भी फैसला बैंकों की कतारों में दुर्भाग्यपूर्ण मौतों या महीनों से अर्थव्यवस्था में मची उथल-पुथल को बदल नहीं सकता है।
क्या अब उस समय हुए आय के नुकसान के लिए मुआवजा, विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जो नुकसान हुआ, का भुगतान किया जा सकता है, और ऐसा हुआ भी तो किसके लिए? अब इस मामले का एकमात्र संभावित परिणाम यही हो सकता है कि सरकार ने छह साल पहले जो किया वह कानूनी था और संविधान की सीमा के भीतर था या नहीं, इस बात का पता चल जाएगा। ताकि वो आगामी सरकारों के लिए एक नजीर बन सके और भावी सरकार इस तरह का अहम फैसला लेने से पहले कई बार सोचे।
फिलहाल, केंद्र की ओर से हलफनामा दायर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट नोटबंदी के पूर्व और उसके बाद के विधायी कार्यों की कानूनी वैधता के संकीर्ण पहलू पर गौर कर सकता है। यहां पर अहम सवाल यह भी है कि क्या अदालत नोटबंदी के नैतिक के व्यापक पहलू पर फैसला सुना पाएगा? सरकार का रुख यह है कि नीतिगत मामलों में अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
कानूनी पहलू : हलफनामा नोटबंदी के परिणामों पर विचार करने का मौका
अब इस मामले में जो भी हो, केंद्र की ओर से दायर हलफनामा नोटबंदी के परिणामों पर फिर से विचार करने का मौका जरूरत देता है। हलफनामे में केंद्र सरकार ने न केवल विमुद्रीकरण पर अपना रुख स्पष्ट किया है बल्कि इसे करने के लिए औचित्य भी प्रदान किया है। केंद्र के तर्कों को कानूनी, सामाजिक और आर्थिक और अल्पकाल और दीर्घकालिक परिणाम के लिहाज से देखा जा सकता है। जहां तक कानूनी पहलू की बात है तो यह कई पेचीदा मुद्दे को उठाते नजर आते हैं। क्या सरकारी अधिसूचना 'भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 (1934 का 2) की धारा 26 की उप-धारा (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए जारी की गई थी। अधिसूचना में कहा गया थ्ज्ञा कि तय तिथि यानि आठ नवंबर 2016 से किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की कोई भी श्रृंखला वैध मुद्रा नहीं रहेगी। यहां पर सवाल यह है कि क्या 'कोई श्रृंखला' शब्द का अर्थ पूरे मूल्यवर्ग जैसे 1,000 रुपये के नोट पर लागू हो सकता है।?
इस मसले पर भारत के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल ने 15 नवंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट में बहस करते हुए नोटबंदी और पुराने नोटों के कानूनी दर्जे को वापस लेने के बीच अंतर किया था। उन्होंने कहा था कि पुराने नोटों का कब्जा अवैध होगा, जबकि बाद के मामले में नोट अभी भी स्वामित्व में हो सकते हैं। चूंकि नोटबंदी कानूनी निविदा नहीं थे इसलिए सरकार को संसद के एक अधिनियम की आवश्यकता होगी। बाद वाले को नोट को राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से स्वामित्व में रखा जा सकता है।
जब अधिसूचना में विमुद्रीकरण शब्द का जिक्र ही नहीं तो सारे Note बैन क्यों हुए
8 नवंबर 2016 के विमुद्रीकरण की घोषणा एक राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से किया गया था। ये बात अलग है कि न तो भारत सरकार और न ही भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी अधिसूचना में 'विमुद्रीकरण' शब्द का इस्तेमाल किया। इसके बजाय अधिसूचना के जरिए ये कहा गया कि निर्दिष्ट बैंक नोट वैध मुद्रा नहीं रहेंगे, लेकिन परिणाम इसके उलट सामने आये। पहले दिन से ही यह साफ हो गया था कि पुराने नोटों को रखना गैरकानूनी होगा। इन्हीं पहलुओं को लेकर दायर किया गया हलफनामा आगे जाकर कहता है कि नोटबंदी को व्यापक आर्थिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बैंक नोट (दायित्वों की समाप्ति) अध्यादेश, 2016 के मुताबिक 30 दिसंबर, 2016 को जनता द्वारा पुराने नोटों को सरेंडर करने का अंतिम दिन तय किया था। इस अध्यादेश को वैध रूप देने के लिए एक विधेयक को 3 फरवरी, 2017 को लोकसभा में पेश किया गया जिसे 1 मार्च, 2017 को अधिसूचित किया गया। इस अधिनियम ने दस से अधिक पुराने नोटों को अपने पास रखने को अवैध बना दिया था। हलफनामे में कहा गया है कि अधिनियम पारित होने के बाद 8 नवंबर, 2016 की अधिसूचना को चुनौती मान्य नहीं है।
सरकार ने संसदीय गरिमा की उपेक्षा की
खास बात यह है कि सरकार ने गोपनीयता के आधार पर अध्यादेश के बजाय विमुद्रीकरण की अचानकता और राजपत्र अधिसूचना पर अमल के अपने फैसले को सही माना था। ऐसा इस बात को जानते हुए किया गया कि संसद 16 नवंबर से 16 दिसंबर, 2016 तक सत्र में थी, क्या सत्र के दौरान विधेयक नहीं लाया जा सकता था? इससे जनप्रतिनिधियों को इस कठोर कदम पर चर्चा करने और शायद संशोधनों का सुझाव देने में मदद मिलती। इसके बजाय पूरा सत्र अस्त-व्यस्त हो गया क्योंकि सरकार ने जवाब नहीं दिया। ऐसा लगता है कि इस महत्वपूर्ण नीतिगत कदम पर संसद को दरकिनार करने की पूरी मंशा थी।
आरबीआई से परामर्श का मतलब सहमति नहीं होता
सैद्धांतिक रूप से देखें तो विमुद्रीकरण काले धन पर रोक का कारगर जरिया नहीं है। न ही यह कालेधन के किसी भी महत्वपूर्ण हिस्से का पता लगा सकता है। इस बात का उल्लेख 1978 में तत्कालीन आरबीआई गवर्नर द्वारा लिखे गए पत्र में है। रिपोर्ट्स के मुताबिक 2016 में आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन की भी यही सलाह थी। इसलिए, सरकार के लिए हलफनामे में यह कहना कि कदम की घोषणा के आठ महीने पहले आरबीआई के साथ परामर्श शुरू किया गया था, ध्यान भटकाने वाला है। यहां पर ध्यान देने की बात ये है कि परामर्श का मतलब सहमति नहीं है। रघु राम राजन सितंबर 2016 तक आरबीआई के गवर्नर थे। सरकार की बात मानें तो ज्यादातर परामर्श उनके समय में ही होते रहे होंगे। हलफनामे में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि काले धन पर आधारित अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए नोटबंदी की उपयोगिता के बारे में आरबीआई की क्या सलाह थी?
क्या नोटबंदी मकसद पूरा हुआ, बाजार में Cash तो पहले से ज्यादा अब है
इन पहलुओं को छोड़ भी दें तो क्या सभी विमुद्रीकृत नोट बैंकों में वापस आ गए, तो क्या उद्देश्य पूरा हुआ? यदि काले धन का जमावड़ा था, तो वे नए नोटों में परिवर्तित हो गए और वैध हो गए। अब ये बातें बेमारी हो गई हैं। ऐसा इसलिए कि विमुद्रीकरण के जरिए पुराने नोटों को नए नोटों में बदलने के लिए काली कमाई का उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया। अगर काली कमाई के लिए उच्च मूल्यवर्ग के नोटों को दोषी ठहराया जाता है तो 2,000 रुपये के बड़े नोटों को क्यों जारी किया जाए? इतना ही नहीं, जब यह स्पष्ट हो गया कि बैंकों में नकदी तेजी से आ रही है और नए नोटों से बदली जा रही है, तो गोलपोस्ट को दो सप्ताह के भीतर काली अर्थव्यवस्था के नियंत्रण से अर्थव्यवस्था को नकदी रहित बनाने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया। क्या इससे अर्थव्यवस्था में कैश-टू-जीडीपी अनुपात कम हुआ? हकीकत यह है कि ऐसा नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था में कैश का हिस्सा 2016 की तुलना में अब अधिक है। और वह भी तब जब इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन तेजी से बढ़ा है। जाहिर है 2016 की तुलना में अब अधिक नकदी रखी जा रही है।
Notebandi कितना विवेकपूर्ण फैसला
क्या यह कदम किसी भी तरह से उचित था? कानूनी बोलचाल में यह कहा जाता है कि एक कानून की तर्कसंगतता और उसके तत्काल प्रभाव के बीच एक संबंध' होना चाहिए। हकीकत यह है कि नोटबंदी से काली अर्थव्यवस्था पर अंकुश नहीं लगा है, नकदी का जमाव बढ़ा है और अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई है। प्रतिकूल प्रभाव केवल अल्पकालिक नहीं बल्कि दीर्घकालिक है, इसलिए यह कदम उचित या वांछनीय कैसे हो सकता है? फैसले की तार्किकता की जड़ें तो उस समय हिल गईं जब यह सामने आया कि नोटबंदी की घोषणा के बाद होने वाले अफरातफरी के लिए अधिकारी तैयार नहीं थे। इसके बावजूद हलफनामे में कहा गया है कि तैयारी चल रही थी। अगर ऐसा है तो पुरानी करेंसी बदलने के नियम बार-बार क्यों बदले गए? जनता को दिए गए कुछ आश्वासन अचानक वापस क्यों ले लिए गए? 31 दिसंबर 2016 तक 51 दिनों में 114 अधिसूचनाएं जारी क्यों हुईं। इसके अलावा हलफनामे में कहा गया है कि नए नोटों की छपाई के लिए पहले से तैयारी थी लेकिन फिर उनके पास सितंबर में आरबीआई के गवर्नर बने उर्जित पटेल के हस्ताक्षर क्यों हैं, तत्कालीन गवर्नर राजन के क्यों नहीं हैं?
RBI की सिफारिश वाला दावा भी गलत
केंद्र के हलफनामे में यह भी कहा गया है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने सरकार को एक विशिष्ट सिफारिश की थी जो उठाए गए कदम का आधार था। इस मामले में सच यह है कि सरकार ने ही आरबीआई से घोषणा से एक दिन पहले उठाए गए कदमों की सिफारिश करने को कहा था। यह एक फरमान जैसा था, क्योंकि आरबीआई बोर्ड की सिफारिश मामले पर विस्तृत विचार-विमर्श पर आधारित नहीं थी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि बोर्ड के कितने सदस्य इस महत्वपूर्ण बैठक में शामिल हो सकते हैं और सलाह दे सकते हैं।
कालेधन वाले तो सेफ गेम खेल गए
एक और आलोचना यह है कि रातों-रात देश की 86% मुद्रा को खत्म करने से बड़ी संख्या में लोगों को परेशान किया गया और काम का नुकसान हुआ, खासकर असंगठित क्षेत्र में, जिसमें कृषि भी शामिल है। क्या यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत किसी भी नागरिक को कोई भी पेशा अपनाने की अनुमति देने वाले मौलिक अधिकार का उल्लंघन है? ऐसा नहीं है कि इस कदम का असर केवल काले धन वाले लोगों पर पड़ा है। सच तो यह है कि कालेधन ( black money ) वाले इस संकट से चुपचाप बाहर निकलने में कामयाब हो गए।
लगता है सरकार की मंशा ही ठीक नहीं
क्या यह अनुचित नहीं है कि कुछ लोगों को नीचा दिखाने की कोशिश करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोगों को संकट में डाला गया। खासकर जब अन्य उपाय उपलब्ध थे। इस बात की भी जानकारी थी कि अतीत में नोटबंदी जैसा फैसला अर्थव्यवस्था से कालेधन को बाहर करने में विफल साबित हुई। थीं। कहने का मतलब यह है कि केंद्र सरकार ने विधायिका को दरकिनार किया। सेंट्रल बैंक ने दबाव में आदेश दिया और अदालतों ने समय पर कार्रवाई नहीं की। क्या यह लोकतंत्र को कमजोर नहीं करता? केंद्र के फैसले से यही तय हो सकता है। बाकी नोटबंदी से जो हुआ, उसकी भरपाई अब अदालती फैसले से भी संभव नहीं है।
( यह लेख जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार की पुस्तक डिमोनेटाइजेशन एंड द ब्लैक इकोनॉमी पर आधारित है। )