टोयटा प्रकरण से समझिए भारत में विदेशी निवेश में कितनी चुनौतियां हैं?
टोयटा समूह हाल में पहले भारत से निवेश खींचने और फिर डैमेज कंट्रोल के बाद 2000 करोड़ रुपये का और निवेश करने को लेकर चर्चा में रहा। इस प्रकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश की चुनौतियों को सामने ला दिया है। भारत दुनिया में कारों पर और कारों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन पर सबसे अधिक टैक्स लेने वाले देशों में भी गिना जाता है।
अबरार खान की टिप्पणी
जनज्वार। भारत के बिलीयन डॉलर्स के बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट से जापान सरकार द्वारा हाथ खींचने के बाद जापानी कंपनी टोयोटा ने भी भारत में और अधिक निवेश करने से पहले इनकार कर दिया और इस पर हाय तौबा मचने और डैमेज कंट्रोल के बाद कंपनी की ओर से यह कहा गया कि वह 2000 करोड़ रुपये का निवेश भारत में कर रही है। इस प्रसंग से भारत में निवेश की दिक्कतों को समझा जा सकता है। मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर में विदेशी निवेश के बिना विकासशील अर्थव्यवस्थाएं आगे नहीं बढ सकती हैं। इसलिए टोयटा प्रकरण को विस्तार से समझने की जरूरत है।
टोयोटा किर्लोस्कर के भारतीय हेड शेखर विश्वनाथन ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी, उन्होंने बताया भारत में कारों पर लगने वाला कर बहुत अधिक है जिसके कारण लोग कार नहीं खरीद पाते । कारों की बिक्री न होने के कारण हम अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहीं कर पाते, क्षमता अनुसार उत्पादन न होने से कंपनी को घाटा होता है ।
क्षमता अनुसार उत्पादन न होने पर घाटा किस तरह होता है इसे समझने के लिए आप ही यूं मान लें कि आप समोसा बनाने का कारोबार करते हैं आपकी समोसा उत्पादन की क्षमता 10 पीस है, और 10 समोसा बनाने का फिक्स्ड कॉस्ट है 50 रुपया, जब 10 समोसे आप ₹10 के हिसाब से बेजते हैं तब आपको प्राप्त होते हैं कुल ₹100 जिसमें से ₹50 फिक्स्ड कॉस्ट के निकालकर आप का शुद्ध मुनाफा होता है ₹50 । परंतु इसी सिक्स कॉस्ट में आप मात्र चार समोसे का उत्पादन करते हैं और उसे भी ₹10 के हिसाब से ही बेचते हैं तब आपके हाथ आता है मात्र ₹40 । इस तरह मुनाफे के बजाय आपको ₹10 का घाटा होता है। इसी तरह प्रत्येक कंपनी की उत्पादन क्षमता होती है और एक तयशुदा ख़र्च होता है, उसी के अनुरूप उसमें लेबर होते हैं परंतु जब उत्पादन क्षमता के अनुरूप नहीं होता तब लेबर कॉस्ट,मशीनरी कॉस्ट,इलेक्ट्रिसिटी कॉस्ट, लैंड कॉस्ट इत्यादि तो उतना ही रहता है पर कंपनी का प्रॉफिट घट जाता है ।
दुनिया में भारत कारों का चौथा सबसे बड़ा बाज़ार है इसी कारण ऑटोमोबाइल कंपनियों का चाहीता भी है परंतु भारत दुनिया में कारों पर और कारों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन पर सबसे अधिक टैक्स लेने वाले देशों में भी गिना जाता है । कारों की बात करें तो साधारणतया कारों पर 28% कर लगता है जो कि जीएसटी का हाईएस्ट है, इसके अतिरिक्त लग्ज़री कारों पर 22 प्रतिशत तक एडिशनल लिवाइस लगता है । टोयोटा जैसी कंपनियां जिस तरह की कार बनाती हैं उन पर 50% तक कर जनता को देना पड़ता है । टोयोटा कार कंपनी अमूमन यूटिलिटी मोटर व्हीकल या फिर स्पोर्ट्स मोटर व्हीकल बनाती है जिनकी साइज़ 4 मीटर से अधिक होती है जिनके इंजन 1500 सौ सीसी से अधिक होते हैं इसके कारण इन पर एडिशनल लिवाइस समेत कुल 50% का टैक्स लगता है । भारत में सिर्फ इलेक्ट्रिक व्हिकल पर मात्र 5% का टैक्स लगता है परंतु टोयोटा जैसी कंपनियां जो हाइब्रिड कारें भी बनाती हैं जिनमें इलेक्ट्रिक के साथ डीजल, पेट्रोल का भी ऑप्शन होता है उन पर भी 43% का टैक्स लगता है । इतना अधिक टैक्स लगने के कारण जो कार अमूमन दस लाख में मिल जानी चाहिए उसकी कीमत बीस लाख से अधिक हो जाती है । रही सही कसर डीज़ल पर लगने वाले टैक्स से पूरी हो जाती है । ऑटोमोबाइल और पेट्रोप्रोडक्ट्स पर लगने वाला यह अंधाधुन टैक्स उपभोक्ताओं की कमर तोड़ देता है और वह कार ख़रीदने की हिम्मत नहीं कर पाते । जिस देश में उपभोक्ता ही न हों उनमें क्रय की क्षमता ही न हो तो फिर पूंजी निवेश देशी हो या विदेशी हो वह नहीं आएगा, जिस देश में निवेश नहीं होगा वह विकास नहीं कर पाएगा ।
इसके पहले अमेरिकन कार कंपनी जनरल मोटर्स ने भी भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटा और लौट गई । इतना ही नहीं फोर्ड कार कंपनी जिसका सपना था 2020 तक भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी बनने का उसने भी अपना बोरिया बिस्तरा भारत से समेट लिया और अपने एसेट्स को बचाने के लिए महिंद्रा एंड महिंद्रा के साथ टाइअप कर लिया ।
अगर आप सोच रहे हैं कि टोयोटा कंपनी विदेशी थी उसका चले जाना देश हित में है तो आप गलत हैं क्योंकि मेक इन इंडिया के तहत भारत की जो सोच है वह यही है कि विदेशों की पूंजी आए देश में लगे, देश में उत्पादन हो, देश के लोगों को रोज़गार मिले और देश का विकास हो । और इसी सोच के साथ है मोदी ने आपदा को अवसर में बदलने की बात कही थी कि चाइना से भाग रही तमाम कंपनियां भारत आएंगी पूंजी लगाएंगी, यहां उत्पादन करेंगी और दुनिया भर के बाज़ारों में बेचेंगी भारत को टैक्स मिलेगा भारत के लोगों को रोज़गार मिलेगा ।
इस खबर का मतलब ऐसा भी नहीं है कि टोयोटा कंपनी राहुल गांधी अथवा विपक्ष से मिलकर के मोदी जी की छवि खराब करने के लिए इस तरह का बयान दे रही है । वाकई में टोयोटा कंपनी घाटे में जा रही है उसकी बिक्री में भारी गिरावट आई है, 2019 तक भारतीय ऑटोमोबाइल बाज़ार में उसकी भागीदारी पिछले साल 5% की थी परंतु फिलहाल उसकी भागीदारी घटकर मात्र 2.6% ही रह गई है । भारतीय बाज़ार के बारे में विदेशी कंपनियों की यह सोच और उनके इस तरह के बयानात भारत के हितों को भारी नुकसान पहुंचाएंगे। इसका खामियाजा यह होगा कि विदेशी पूंजी आने के बजाय वापस जाने लगेगी, हमारे देश का मैन पावर तेजी से बेरोज़गार होगा और पहले से ही गर्त में जा चुकी अर्थव्यवस्था के लिए यह ठीक नहीं होगा । जब देश के लोगों के हाथ को काम नहीं होगा तो वह अपनी रोजमर्रा की ज़रूरतों में भी कटौती करेंगे ख़र्च नहीं करेंगे, जब लोग ख़र्च नहीं करेंगे तो जीएसटी के रूप में मिलने वाला सरकार को टैक्स नहीं मिलेगा, सरकार को टैक्स नहीं मिलेगा तब सरकार द्वारा चलाए जा रहे तमाम उपक्रम ठप पड़ जाएंगे । यहां तक कि सेना के लिए हथियारों की कम, सैनिकों की सैलरी में कमी या देरी भी होगी । सैन्य ख़र्च में कटौती होने पर हमारी सीमा की सुरक्षा हमारी संप्रभुता भी ख़तरे में पड़ जाएगी ।
टोयोटा किर्लोस्कर कंपनी के हेड शेखर विश्वनाथन के ट्वीट की खबर मीडिया में पहुंचते ही जहां एक तरफ मीडिया को मसाला मिल गया वहीं दूसरी तरफ सरकार के भीतर हड़कंप मच गया । इसके बाद शुरू हुआ लीपापोती का खेल, सबसे पहले सामने आए प्रकाश जावड़ेकर उन्होंने ट्वीट करके इस खबर का खंडन किया । हालांकि जब प्रकाश जावड़ेकर खंडन कर रहे थे तब तक तक शेखर विश्वनाथन का ट्वीट पूरी दुनिया में वायरल हो चुका था, मेंस्ट्रीम मीडिया की अपेक्षा भारत की सोशल मीडिया जिनमें यूट्यूब चैनल और बहुत सी न्यूज़ वेबसाइट ने इस पर काफी कुछ विस्तार से लिखा । और फिर वही हुआ जो इसके पहले ऐसे मामलों में होता आया है टोयोटा कंपनी ने भी इन ख़बरों का खंडन किया उसी तरह जिस तरह 1 साल पहले वोडाफोन ने अपने बयान को वापस ले लिया था । मगर बयान वापस ले लेने से यथा स्थिति में बदलाव नहीं आएगा, चीजें बिगड़ चुकी है उसे स्वीकारना पड़ेगा । जब तक समस्या को स्वीकार नहीं किया जाएगा तब तक उसका समाधान नहीं होगा, हमारी सरकार की सबसे बड़ी खामी यही है कि वह समस्या को स्वीकार नहीं करती।
एक विश्लेषक के तौर पर यदि बाद में किए गए खंडन को मैं स्वीकार भी लूं तब भी यह प्रश्न उठता है कि आख़िर इस तरह का बयान या ट्वीट कंपनी के मुख्य अधिकारी की तरफ से क्यों किया गया? यदि समस्या नहीं है तो क्या सरकार पर दबाव बनाने के लिए यह हरकत की गई थी ? यदि ऐसा है तो सरकार को भी जवाब देना चाहिए कि वह उस कंपनी की जवाबदेही तय करे कि वह ब्लैकमेल क्यों कर रही है ? इस तरह की बयानबाजी करके हमारे देश की छवि ख़राब क्यों कर रही है ? परंतु सरकार ऐसा तब कर पाएगी चीजें सही होंगी और आरोप ग़लत होंगे, पर यहां ऐसा कुछ नहीं है यह उसी तरह है जैसे आपके घर का सदस्य बीच सड़क पर जा कर रोने लगे और जब घर का सारा मामला चौराहे पर आ जाए तब वह कहे कि मैं अपना बयान वापस लेता हूं यह मेरे घर का मामला है ।
सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा उसे सोचना होगा जब उसके देश का उपभोक्ता मजबूत होगा तो किसी भी देश की कंपनी भारत में निवेश करने से खुद को रोक नहीं पाएगी । परंतु हमारी सरकार उपभोक्ताओं के हित में कोई निर्णय कभी नहीं लेती वह या तो अधिक से अधिक टैक्स वसूलने के बारे में सोचती हैं या फिर अपने कारपोरेट मित्रों को फायदा पहुंचाने के बारे में ही सोचती है और उसी की बुनियाद पर नीतियों का निर्धारण करती है यही कारण है कि पिछले 6 साल में देश का उपभोक्ता कंगाल हो गया । उपभोक्ता की जेब में पैसे नहीं है वह खरीदारी नहीं कर रहा है इसलिए दिमाग नहीं है जब दिमाग नहीं है तो कंपनियों में उत्पादन नहीं है और जब कंपनियों में उत्पादन नहीं होगा तो नया निवेश आने से रहा बल्कि अब तक जितनी एफडीआईआई है उनके ऐसैट्स भी खतरे में हैं ।
1 साल पहले जब मीडिया ने लगातार तीन-चार दिन तक मंदी पर कवरेज की थीतब श पूरे देश में मंदी एक बड़ा मुद्दा बनी थी, उस समय ऑटोमोबाइल सेक्टर की सबसे ज़्यादा चर्चा हुई थी । तब हमारी सरकार ने 1 लाख 45 हजार करोड़ रुपए की राहत देने की घोषणा की थी । मगर अफसोस यह 145000 करोड रुपए कारपोरेट टैक्स के रूप में माफ़ किए गए थे, इसका फायदा मात्र कुछ गिनी चुनी बड़ी कंपनियों को ही हुआ था और उन्होंने यह सारा पैसा अपनी जेब में रख लिया । कंपनियों ने उस पैसे का कहीं निवेश नहीं किया, उस पैसे से एंप्लॉयमेंट नहीं किया, अपने एंप्लाइज की सैलरी बढ़ाने या उन्हें बोनस देने का काम नहीं किया । यदि यही एक लाख 45 हजार करोड़ रूपया उपभोक्ताओं को दिया जाता टैक्स में राहत के रूप में, नकदी के रूप में, सब्सिडी के रूप में तब यह पैसा बाज़ार में रन करता । जिससे उत्पादों की डिमांड बढ़ती, डिमांड के बढ़ने से उत्पादन बढ़ता, उत्पादन बढ़ाने के लिए निवेश किया जाता, रोज़गार बढ़ता और देश विकास करता । मगर अफसोस ऐसा नहीं हुआ, उल्टा सरकार ने उपभोक्ताओं को मिलने वाली तमाम तरह की सब्सिडी बंद कर दी या कम कर दी । जिसका खामियाजा यह हुआ उपभोक्ता अपने पैसों को खर्च करने से डरने लगा वह बचाने लगा जिसके कारण डिमांड कम होते होते ख़त्म हो गई । डिमांड खत्म होते ही उत्पादन ठप हो गया और उत्पादन ठप होते ही कंपनियों के आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और वह शेखर विश्वनाथन की तरह बयान देने को बाध्य हो गई ।ख़र्च में कटौती होने पर हमारी सीमा की सुरक्षा हमारी संप्रभुता भी ख़तरे में पड़ जाएगी।