मोदी सरकार को दूसरे देशों की सेना से भी खतरनाक नजर आते अन्नदाता और चाटुकारिता में व्यस्त गोदी मीडिया

अपने पूरे वजूद को मिटाकर सरकार के तलवे चाटने वाली मीडिया तो पूरी दुनिया में भारत को छोड़कर कहीं नहीं है, यहाँ तक कि चीन और हांगकांग में भी नहीं। अब तो सभी गंभीर आन्दोलनों से इन्हें खदेड़ कर भगाया जा रहा है....

Update: 2020-12-03 11:24 GMT

किसान आंदोलन पर वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। प्रधानमंत्री, सभी मंत्री, बीजेपी के नेता और अपना अस्तित्व खो चुकी मेनस्ट्रीम मीडिया लगातार यह भ्रम पाले बैठे हैं कि किसान भ्रम में हैं। इस गिरोह ने पिछले साल शाहीन बाग के आन्दोलन को भी इसी नजरिये से देखा था, पर इस आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए केंद्र सरकार को कोविड 19 के नाम पर देशव्यापी लॉकडाउन लगाना पड़ा था।

अपने पूरे वजूद को मिटाकर सरकार के तलवे चाटने वाली मीडिया तो पूरी दुनिया में भारत को छोड़कर कहीं नहीं है, यहाँ तक कि चीन और हांगकांग में भी नहीं। अब तो सभी गंभीर आन्दोलनों से इन्हें खदेड़ कर भगाया जा रहा है, शाहीन बाग में यही किया गया था और अब किसान भी इन्हें भगा रहे हैं। भ्रम पर सबसे सटीक जवाब एक किसान ने ही दिया था।

इनके अनुसार, "प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री और बीजेपी के सभी नेता प्रचारित करते हैं कि वे किसान पुत्र हैं, तो फिर ये लोग बताएं कि जब पुत्र को भ्रम नहीं है तो फिर उनके बाप को भ्रम कैसे हो गया?"

दिल्ली और इसकी सीमाओं पर जहां किसान एकत्रित हैं आय फिर जहां से और किसान आ सकते हैं, वहां देखते हुए यही लगता है कि सरकार इन्हें दूसरे देशों की सेनाओं से भी खतरनाक समझ रही है। पुलिस और सशस्त्र अर्धसैनिक बलों की तादात ही यह बता देती है कि सरकार कितनी डरी हुई है। जहां अधिक संख्या में किसान हैं, वहां तो पुलिस और अर्धसैनिक बलों की चौकसी ऐसी है मानो किसी युद्ध का बिगुल बज गया हो।

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दिल्ली के बुराड़ी ग्राउंड में बहुत कम किसान ठहरे हैं, और वहां निश्चित तौर पर पुलिस और सुरक्षाकर्मियों की संख्या किसानों से बहुत अधिक है। इस ग्राउंड के चारों तरफ बाहर सशत्र बालों का पहरा है, ग्राउंड में जाने के लिए दिल्ली पुलिस हरेक के नाम और मोबाइल नंबर रागिस्टर पर नोट करती है, पार्किंग ने सामान्य गाड़ियां तो शायद ही रहती हैं, पर पार्किंग पुलिस की गाड़ियों से भरी रहती है, जहां भी कुछ किसान आपस में विचार-विमर्श करते हैं वहां सादी वर्दी में पुलिस वाले खड़े मिलेंगें, यही नहीं ड्रोन भी बीच-बीच में निगरानी के लिए आ जाते हैं।

ऐसा लगता ही नहीं कि सरकार किसानों को अपने ही देश का नागरिक समझ रही है। किसानों की एकजुटता से परेशान सरकार लगातार इन्हें बांटने की कोशिश कर रही है। लगभग सारे देश से आये किसानों को लगातार पंजाब का किसान बताने का प्रयास किया जा रहा है, यही नहीं 1 दिसम्बर की वार्ता के लिए भी केवल पंजाब के किसान नेताओं को न्यौता दिया गया। यह एक सरकारी साजिश है, जिसके तहत पंजाब के किसान नेताओं के प्रति बाकी राज्यों के किसान नेताओं में नफरत पैदा की जा सके। किसानों के बंटवारे का काम तो हरेक स्तर पर किया जा रहा है 

आंसू गैस और वाटर कैनन के साथ ही सडकों पर तमाम अवरोध के बाद भी जब किसान दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डर पर पहुँच गए, तब उन्हें दिल्ली में प्रवेश करने नहीं दिया गया। किसान दिल्ली के रामलीला ग्राउंड या फिर जंतर मंतर तक जाना चाहते थे, पर अगले दिन अचानक उन्हें केवल बुराड़ी ग्राउंड तक जाने की इजाजत दी गई।


सरकार भी यह जानती थी कि अधिकाँश खुद्दार किसान इस प्रस्ताव को नहीं मानेंगें। सरकार ने सोचा तो यही था कि इससे किसानों में फूट डालना आसान होगा, पर ऐसा हो नहीं पाया। जो किसान बुराड़ी ग्राउंड पर सरकार के इंतजामों का उपयोग कर रहे हैं, वे तो आन्दोलनकारी किसानों से लगभग अलग हो गए। दूसरी तरफ अलग-अलग बॉर्डर पर जुटे किसान नेता एक दूसरे से आमने-सामने बैठ कर विचार विमर्श नहीं कर पा रहे हैं। सरकार यही चाहती है कि सभी संगठन और सभी राज्यों के किसान एक जगह पर इकट्ठा न हो पायें, इनके बीच दूरियां बनी रहें। दूरियाँ बने रहने पर विचारों में मतभेद की संभावनाएं अधिक है।

ऐसी ही सोच एक समिति बनाने की भी है, जिसमें महज तीन-चार किसान नेता ही रहें, जिससे उन्हें धमकाना और फिर साधना आसान रहे। खैर, यह सब सरकार और प्रधानमंत्री का भ्रम है, इस बात किसानों को चौतरफा समर्थन मिल रहा है और दूसरे राज्यों के किसान भी अब दिल्ली चलो की तैयारी कर रहे हैं।

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ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन ने भी चक्काजाम का ऐलान कर दिया है, और खिलाड़ी अपने पुरस्कार वापसी का ऐलान कर रहे हैं। लगता नहीं कि इस बार किसान किसी बहकावे में आने वाले हैं। जाहिर है सरकार के पास सेना द्वारा दमन या फिर कोविड 19 के आंकड़ों में उछाल लाकर लॉकडाउन का विकल्प ही रह गया है, क्योंकि इस तानाशाह सरकार से किसी भी समस्या के समाधान की उम्मीद बेकार है।

जहां अडानी-अम्बानी के भले की बात हो, वहां तो सरकार एकतरफा रुख शुरू से अपनाती रही है। सारे उद्योग, खनन, जंगल, हवाई अड्डे, रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर तो सरकार अडानी-अम्बानी को उपहार में दे चुकी है, अब उपजाऊ भूमि और फसल की बारी है।

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