Ground Report : लोहे के खजाने में बेबस-मजबूर आदिवासी, बड़ी बड़ी खनन कंपनियों के CSR के दावे की पोल खोलती इनकी गरीबी
Ground Report : झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम इलाके में अंग्रेजों के समय शुरू हुआ खनन का खेल आज भी बदस्तूर जारी है, और स्थानीय आदिवासी समाज 75 सालों बाद भी बदहाली में जीवन जीने को मजबूर, उन्हें नालों का मलमूत्र मिला पानी पीना पड़ रहा है...
पश्चिमी सिंहभूम से अजय प्रकाश की रिपोर्ट
Ground Report : एक तरफ देश के चमचमाते महानगर दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में अपने देश के विकास की इबारत देखकर हम इतराते हैं, वहीं एक तस्वीर है उस इलाके की जहां के खजाने से हमारे देश के चमचमाते महानगरों के विकास की नींव रखी जाती है। जी हां, झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम (Paschim Singhbhum) इलाका जहां के लोहे से तमाम उद्योगपति (Industrialist) अमीरी में कीर्तिमान गढ़ रहे हैं, वहां के आदिवासी (Tribals) पीने के पानी के लिए तक मोहताज है।
'जनज्वार' की ग्राउंड रिपोर्ट के दौरान हमारी टीम एक ऐसे गांव में पहुंची, जहां नालेनुमा नदी से लोग प्रदूषित पानी पीने को विवश हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस इलाके में पीने के पानी का दूसरा कोई जरिया नहीं है। झारखंड (Jharkhand) का पश्चिमी सिंहभूम वही क्षेत्र है, जहां के लौह अयस्क और दूसरे खनिजों से दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों के विकास की नींव रखी जाती है, पर इसी क्षेत्र के मूलनिवासी आज बेबसी का जीवन जी रहे हैं। न उनके पास पीने का पानी उपलब्ध है और ना ही रोजगार का जुगाड़। दुर्दशा यह है कि ये मासूम आदिवासी नदी-नालों का गंदा पानी पीने को मजबूर हैं।
चुआं से गंदा पानी (Water Problem) पीने के लिए ले जाती एक महिला कहती है, हमारे लिए यही पानी उपलब्ध है, नहीं तो हम प्यासे मर जायेंगे। नल से कभी पानी नहीं आता, ये पानी नहीं पीयेंगे तो क्या करेंगे। ग्रामीण बताते हैं, हम नालों का गंदा पानी तब से पीने को मजबूर हैं जब से यहां माइंस बनी हैं। नालों का गंदा पानी नदी में मिल जाता है।
इलाके के अधिकतकर बच्चे कुपोषित हैं, जिनके भविष्य का कोई ठौर-ठिकाना नहीं हैं। कोई काम—धंधा या रोजगार उपलब्ध नहीं होने से परेशान लोग कहते हैं, हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे पेट भरने के लिए चोरी करें या डकैती। हमारे पास देश के महानगरों में पलायन कर मजदूरी करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। यानी यह कह सकते हैं यहां का हाल कुछ ऐसा है जैसे चिराग तले अंधेरा। यह हालात तब हैं जबकि लौह खनन करने वाली तमाम कंपनियां दावा करती हैं कि वह अपने CSR का बड़ा हिस्सा यहां के आदिवासियों के लिए खर्च करती हैं।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के बड़ा जामदा स्टेशन के आसपास के इलाके के गांवों में तकरीबन हर बड़ी कंपनी चाहे वह टाटा हो, रुंगटा हो फिर भारत सरकार की कंपनी स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया, सभी इस क्षेत्र से लौह अयस्क निकाल कर उसे बेचकर बेहिसाब मुनाफा कमा रही हैं, पर यहां के लोगों को उस मुनाफे से कुछ भी हासिल नहीं हो पा रहा है। उनके हिस्से बस आता है लाल धूल भरी मिट्टी और गंदा पानी, जो उन्हें बीमार कर वक्त से पहले ही बूढ़ा होने पर मजबूर कर रहा है।
लोहे की खदानों से ग्रामीणों को रोजगार भी नहीं मिलता है। टाटा स्टील के खनन क्षेत्र में फिलहाल सिर्फ स्पंज और कोयला अनलोडिंग का काम चलता है। माल को लोड अनलोड करने के लिए मजदूर को महज सौ से डेढ़ सौ रुपए का भुगतान किया जाता है, वह भी काम रोजाना नहीं मिल पाता है। एक महिला कहती है, 'किसी को पंद्रह तो किसी को दस दिन के अंतराल पर काम मिलता है, जो थोड़ा काम कंपनियों की ओर से होता है उसकी मजदूरी भी बाहर के ठेकेदार नेता खा जा रहे हैं। मजबूरी में कोई लकड़ी बेचता है तो कोई दातून।
लौह खदान में काम करने वाली एक महिला आक्रोशित होकर कहती है, हमने अपनी पूरी जिंदगी यहां काम करके बीता दी और अब ठेकेदार कहता है कि तुमसे काम नहीं हो पायेगा।
सानोसाई गांव में बालाजी नाम की कंपनी टाटा स्टील के मातहत खनन का काम करती है जहां पानी के लिए लोगों को बहुत तकलीफ से गुजरना पड़ता है। गांव की एक महिला बताती है कि महिलाओं को पीने का पानी 2 किलोमीटर दूर से लाना पड़ता है। गांव में केवल एक ही नल है वहां पानी के लिए लंबी लाइन लगती है। एक बाल्टी पानी भरने में तीन से चार घंटे का समय लगता है। सुबह सात बजे पानी के लिए लाइन में लगते हैं तो पानी लेने में 11 तो कभी—कभी 12 भी बज जाते हैं। पानी लेने के दौरान विवाद भी होता रहता है। बिजली अगर चली गयी तो उसमें भी पानी नहीं आता है। मजबूरी में दो से तीन किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता है।
एक अन्य महिला पानी की समस्या पर बोलते हुए कहती है कि कपड़ा धोने और नहाने के लिए तालाब का इस्तेमाल करना पड़ता है। तालाब भी भी गंदा है, कचड़े से भरा पड़ा है पर गांव की महिलाओं के पास इसका इस्तेमाल करने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है। प्रधानमंत्री के हर घर नल योजना के बारे में पूछने पर गांव की महिलाएं बताती हैं कि इस योजना की कोई सुविधा हमें तो नहीं मिल पा रही है। यह सब झूठ है।
यहां के नल की हालत देखकर यहां के विकास का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। टाटा स्टील की ओर से गांव में लोगों के रहने खाने या रोजगार के मामले में लोगों को कंपनी की ओर से कोई मदद नहीं मिलती है। पूरे सानोसाई गांव में सिर्फ दो शौचालय हैं, उनकी भी हालत ऐसी है कि कोई जा नहीं सकता है। टूटे—फूटे घर देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंदिरा आवास के तहत एक भी घर नहीं बना है।
गांव में सिर्फ एक नल है। यही एक जगह है जहां से पूरा गांव पानी भरता है। बिजली चल गयी तो पूरे गांव को दो किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है। यहां के गांवों में बच्चों की शिक्षा के लिए भी ना ढंग का स्कूल है ना लोगों के लिए कोई बढ़िया अस्पताल ही है। गांव के बच्चों का भविष्य भी अधर में लटका हुआ है।
गौरतलब है कि वर्ष 2020 में रुगटा माइंस का लीज खत्म होने के बाद कंपनी ने यहां खनन बंद कर दिया है, पर लोगों की मजदूरी का पूरा भुगतान आज तक नहीं किया गया है। लोगों ने लेबर कमिश्नर के यहां अपील की है, पर अभी कोई समाधान नहीं निकला है। यहां लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए कंपनी का कोई अधिकारी या कर्मचारी मौजूद नहीं हैं।
पीड़ित जनता कहती है, कंपनी काम कराने के बाद भुगतान के समय कह देती है कि हम नहीं जानते हैं। गरीब आदिवासियों को नहीं पता कि उनकी मजदूरी का पैसा कहां से मिलेगा। यहां तक कि इन्हें इस बात का संदेह भी है कि उन्हें खनन कंपनियों की ओर से यहां से उजाड़ा भी जा सकता है।
इसके बाद जनज्वार टीम बड़ाईबुरु गांव पहुंची, जिसे सेल कंपनी ने गोद लिया है। यहां मॉडल स्टील विलेज का बड़ा सा बोर्ड लगा है। इस गांव को 28 अगस्त 2008 को सेल ने गोद लिया था, पर इस गांव मे जमीनी हालात कुछ अलग ही बानगी कहते हैं। गांव के लोग अपनी बदहाली के बारे में बात करने से भी कतराते हैं, यहां तक कि जब हमने लोगों से बात करने की कोशिश की तो वो भागने लगे।
कैमरे बंद करने पर कुछ ग्रामीण कहते हैं उन्हें डर है कि वे अगर कंपनी के खिलाफ कुछ बोलते हैं तो कंपनी उन्हें काम छीनकर घर बैठा देगी या गांव से बाहर कर देगी। यहां कंपनी ने एक बड़े गांव में सिर्फ 24 घरों को गोद लिया है और बाकी गांव को अपने हाल पर छोड़ दिया है।
सेल द्वारा गोद लिये गये गांव का भी हाल यह है कि यहां के घरो में गैस नहीं है, शौचालयों की हालत बदहाल है, बच्चों को गांव से डेढ़ किलोमीटर दूर पैदल चलकर पढ़ने जाना पड़ता है। वीडियो में दिख रहे खस्ताहाल शौचालय गांवों की तस्वीर बयां कर रहे हैं। पानी के लिए हैंडपंप लगा है पर उसमें पानी नहीं आता है।
आदिवासी गांव की बदहाली पर जब जनज्वार ने सेल प्रबंधन का पक्ष जानने के लिए पत्र लिखा तो कोई जवाब नहीं मिला।
ग्रामीण कहते हैं कंपनियां बाहर के लोगों को काम दे रही है, पर जिनका ये गांव है उन स्थानीय लोगों के लिए इनके पास कोई काम नहीं है। इस बारे में में अखिल भारतीय क्रातिकारी आदिवासी महासभा के अध्यक्ष जॉन मिरान मुंडा कहते हैं, बडीह से किरुबुरु तक टाटा, रुंगटा, सेल और बड़े—बड़े पूंजीपतियों की खदानें हैं, पर आज भी इस क्षेत्र में अंग्रेजों के लूट का इतिहास जिंंदा है। इलाके में लोग मलेरिया से मर रहे हैं।
अगर पेशा कानून को सही ढंग इस क्षेत्र में लागू किया जाता तो इस क्षेत्र में विकास होता है, पर यह कानून केवल किताबों में ही रह गया है। लोगों को इससे कोई फायदा नहीं मिल पाया है। जो लोग इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें भी प्रशासन की ओर से दबा दिया है। ये कंपनियां गरीबों का मेहनत का पैसा बेईमानी से खा रहे हैं आज भी झारखंड का यह क्षेत्र नव उपनिवेशवाद का शिकार बना हुआ है।'
कुल मिलाकर जिस देश में सरकारें गरीबी दूर करने और जनकल्याण के तमाम दावे करती हैं, उसी देश में आदिवासी समाज की यह दयनीय स्थिति असहज सी प्रतीत होती है। झारखंड से खनिजों का खनन कर अरबों बटोरने वाली कंपनियां और सरकारें आज भी उस समाज को उपेक्षित रखने की दोषी जान पड़ती हैं, जिनकी जमीन से ही लोहा, कोयला और दूसरे खनिज निकालकर देश के विकास का दावा किया जाता रहा है। दर्द तब और अधिक बढ़ जाता है, जबकि प्रदेश में फिलहाल एक आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन शासन कर रहे हैं।
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