MGNREGA vs VB G RAM G: खेती के समय 60 दिन काम बंद रहने से बड़े किसान और जमींदारों के साथ ठेकेदार भी करेंगे मजदूरों का मनमाना शोषण !
मजदूर के पास सरकार द्वारा दिए जा सकने वाले काम का विकल्प नहीं रहेगा तो ठेकेदार भी इसका फायदा उठाएंगे और मजदूरों का शोषण करेंगे, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मोदी सरकार पूंजीपतियों के हित में ही काम करती है...
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मजदूर हितैषी मनरेगा योजना को खत्म करना एक मजदूर विरोधी काम कैसे हैं बता रहे हैं रत्नजा यादव और संदीप पाण्डेय
केन्द्र सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम की जगह विकसित भारत-रोज़गार एवं आजीविका मिशन की गारंटी- ग्रामीण अधिनियम लेकर आई है। मनरेगा, जो पूरे देश में लागू था, में मजदूर के काम मांगने पर काम दिए जाने का प्रावधान था। काम की मजदूरी का भुगतान एक हफ्ते में हो जाना चाहिए था और किसी भी हालत में दो हफ्ते से ज्यादा का विलम्ब नहीं होना चाहिए था। काम मांगने पर 15 दिनों तक काम नहीं मिलने पर मजदूर बेरोजगारी भत्ते का दावा कर सकते थे, जबकि नए अधिनियम के अंतर्गत सरकार तय करेगी कि कहां पर, कितना और किस तरह का काम, कितने मजदूरों को दिया जाए। मजदूर का अधिकार खत्म कर पहल सरकार ने अपने हाथ में ले ली है। यह योजना को मांग-आधारित से बदलकर आपूर्ति-आधारित बना देगा जहां मजदूर अब अपने अधिकार के बल पर काम लेने के बजाए सरकार की मर्जी पर निर्भर होगा।
मनरेगा में प्रत्येक मजदूर परिवार को 100 दिनों के काम की गारण्टी थी, जबकि नए अधिनियम में 125 दिनों की गारण्टी है, किन्तु ये बेमानी है, क्योंकि मनरेगा में किसी मजदूर परिवार को मुश्किल से ही 100 दिनों का काम मिलता हो। जब सौ दिन ही पूरे नहीं हो पाते थे तो आप गारण्टी सवा-सौ दिनों की दें अथवा 365 दिनों की, मजदूर को उससे क्या लाभ होने वाला है?
मनरेगा में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार का बजट में हिस्सा 90ः10 के अनुपात में था, जबकि नए अधिनियम में यह अनुपात 60ः40 होगा। गरीब राज्यों में कम बजट के कारण काम अपने आप कम मिलेगा और मजदूर पलायन करने को मजबूर होगा, जबकि मनरेगा कुछ हद तक पलायन रोकने में सफल हुआ था। महिलाओं को मनरेगा से काफी लाभ मिला था, क्योंकि घर के पास ही काम मिल जाता था।
खेती के समय नए अधिनियम के तहत 60 दिनों तक काम बंद रहेगा। इसकी वजह से बड़े किसान व जमींदार मजदूरों का मनमाना शोषण कर पाएंगे, क्योंकि मजदूर के पास सरकार द्वारा दिए जा सकने वाले काम का विकल्प नहीं रहेगा। ठेकेदार भी इसका फायदा उठाएंगे और मजदूरों का शोषण करेंगे। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मोदी सरकार पूंजीपतियों के हित में ही काम करती है।
मनरेगा को लागू करने में कई खामियां थीं। काम की गारंटी हरेक परिवार को सौ दिनों की थी तो सभी मजदूर परिवारों को, जो काम चाहते थे, सौ दिनों का न्यूनतम काम मिल जाना चाहिए था। लेकिन अधिकारियों ने सौ दिनों को अधिकतम सीमा मानकर सौ दिनों से कम ही काम दिया। औसत 30-40 दिन भी मजदूर परिवार को मिल जाए तो बड़ी बात थी। कोई खण्ड विकास अधिकारी 100 दिनों से ज्यादा का काम किसी मजदूर परिवार को दे दे तो उसे सजा मिलती थी।
कई बार काम मांगने पर काम नहीं मिलता था, काम मिल भी जाए तो मजदूरी का भुगतान समय से नहीं होता था। बेरोजगारी भत्ता तो अधिकारी देना ही नहीं चाहते थे। जहां मजदूरों के संगठन थे ऐसे एक-दो जगहों पर लड़ कर बेरोजगारी भत्ता लिया गया। नहीं तो अधिकारियों ने तय कर रखा था कि बेरोजगारी भत्ता तो देना ही नहीं है, जो कानून की भावना के खिलाफ था।
मनरेगाा में मशीन और ठेकेदार प्रतिबंधित थे, किंतु समय के साथ इसका भी उल्लंघन होने लगा था। मशीनों और ठेकेदारों के काम करा मजदूरों के जाॅब कार्ड पर फर्जी मजदूरी चढ़ाकर, मजदूर को अपने साथ मिलाकर, उनकी मजदूरी उनके बैक खातों से निकाल ली जाती थी। इस भ्रष्टाचार के कारण मनरेगा काफी बदनाम भी हुई। किंतु भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए योजना को ही खत्म कर देना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं कहलाएगा। भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल मजदूरों को जटिलताओं में फंसाने के लिए नहीं बल्कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों पर लगाम कसने के लिए होना चाहिए। एक ऐप के माध्यम से हाजिरी और आधार आधारित भुगतान की पेचीदगियों ने मजदूर की मुसीबत को और बढ़ा दिया है जिससे अक्सर उसकी मेहनत की कमाई तकनीकी कारणों से अटक जाती है।
कार्यस्थल पर छाया, पीने के पानी, प्राथमिक उपचार का डिब्बा रहने का प्रावधान था, किन्तु प्रायः ये नहीं होते थे। बल्कि एक मजदूर को तो पानी ही पिलाने की मजदूरी मिलने का प्रावधान था। काम दिए जाने में 33 प्रतिशत महिला के साथ 3 प्रतिशत विकलांग जनों हेतु आरक्षण था। किसी विकलांग से पानी पिलाने का काम लिया जा सकता था। कार्यस्थल पर अपनी मां के साथ आए कम से कम पांच छोटे बच्चों के होने पर कार्यस्थल पर ही बालवाड़ी संचालन का प्रावधान था जिसे चलाने के लिए एक महिला को पूरी मजदूरी दी जा सकती थी। किंतु शायद ही कहीं ऐसा देखने को मिला होगा। कहने का मतलब कि योजना बहुत सोच-समझ कर मजदूरों के हित के लिए बनाई गई थी किंतु आमतौर पर भारत में क्रियान्वयन में इच्छा शक्ति की कमी दिखाई पड़ती है।
मनरेगा के तहत भारत में पहली बार जनता को यह अधिकार दिया गया था कि वह योजना का सामाजिक अंकेक्षण, जिसे सरल भाषा में जनता जांच भी कह सकते हैं, ग्रामसभा के स्तर पर कर सकती थी। यह काम भी जहां मजदूरों के संगठन मजबूत थे वहां तो कुछ जगहों पर हुआ नहीं तो कहीं देखने को नहीं मिला। किंतु इस तरह के जनता के सशक्तिकरण के प्रावधानों से मजदूरों में नए उत्साह का संचार तो जरूर हुआ था। मजदूरों के हाथ में बिना बाहर गए पैसा आ गया तो उनकी कई जरूरतें पूरी होने लगीं जिसके लिए वे दूसरों के मोहताज रहते थे।
सिर्फ मजदूरी की ही बात करें तो उत्तर प्रदेश में 2006 में जब मनरेगाा लागू हुआ तो निजी कामों में ग्रामीण इलाकों में पुरुष को रुपए 40 व महिला को रुपए 30 प्रतिदिन की मजदूरी मिल पाती थी। मनरेगा में चूंकि न्यूनतम रुपए 60 प्रति दिन मिलने लगे तो निजी कामों में भी मजदूरी की दर बढ़ गई। इसमें कोई दो राय नहीं कि मनरेगा से मजदूर की सामाजिक-आर्थिक हैसियत बढ़ गई थी।
होना तो यह चाहिए था कि मनरेगा को और मजबूत किया जाता। काम की गारंटी के दिनों को 200 तक बढ़ाए जाए और इसे न्यूनतम माना जाए। अधिकतम पूरे साल का काम दिए जाए। मजदूरी की दर रुपए 800 प्रतिदिन की जाए। किसान के निजी खेत पर भी जो काम मजदूर करते हैं उनका मजदूरी का भुगतान मनरेगा के तहत कराया जाए, ताकि बढ़ी हुई मजदूरी का भार किसान पर न पड़े। यदि ग्रामीण इलाके में कोई अपनी आजीविका के लिए कुछ करना चाहता है और उसमें मजदूर लगते हैं तो इन मजदूरों की मजदूरी भी मनरेगा से दी जाए। मनरेगा में भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक लगाई जाए और बकाया मजदूरी का भुगतान तय समय के अंदर किया जाए। बेरोजगारी भत्ते का भुगतान ईमानदारी से किया जाए। ठेकेदारों और मशीनों पर प्रतिबंध के प्रावधानों का कड़ाई से पालन किया जाए।
मनरेगा जैसा अधिनियम राष्ट्रीय स्तर पर सभी जगहों के पढ़े-लिखे बेरोजगारों के लिए भी लाया जाना चाहिए और 200 दिनों के काम की गारंटी उसमें भी दी जानी चाहिए। उद्देश्य होना चाहिए कि प्रत्येक बेरोजगार युवक-युवती के खाते में सालाना काम करके या बेरोजगारी भत्ते के रूप में एक लाख रुपए पहुंच जाएं। बहुत सारे ऐसे काम हैं, जैसा सर्वेक्षण, चुनाव कराना, परीक्षा कराना, जो उन सरकारी कर्मचारियों से कराए जाते हैं जिनका मुख्य काम कुछ और है। ऐसे सारे काम बेरोजगार युवक-युवतियों से कराए जा सकते हैं। कुल मिला कर रोज़गार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने का समय आ गया है।