कोरोना महामारी के दौर में मजदूरों की दुर्दशा पर राजनीतिक बहसों का रुख मोड़ते मंजुल भारद्वाज
जहां मध्य वर्ग इस बात पर सहमत था कि थाली और ताली पीटकर, दीये जलाकर सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा, वहां सरकार मजदूरों के पहल से हिल गई। मजदूरों ने सरकार को जवाबदेही के लिए मजबूर किया...
सायली पावसकर, रंगकर्मी
जनज्वार। आपदा मनुष्य को एक नयी पहचान देती है। आज की विकट स्थिति ने समाज, मानव प्रकृति और व्यवस्था के असली चेहरे को उजागर किया है, ऐसी स्थिति आमतौर पर हमारे सामने नहीं आती और यह दुनिया के इतिहास में पहली बार है, जहां सत्ता, संविधान, व्यवस्था, सामाजिक स्थिति, मानवीय प्रवृत्ति के विभिन्न पहलू सामने आ रहे हैं।
आज पूरे विश्व के सामने प्रकृति में हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप, 'कोरोना' यह आपदा हमारे सामने है। इस आपदा ने पूरी दुनिया में एक बड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक तबाही का प्रभाव डाला है। यह तबाही बिना किसी भेदभाव के सभी को प्रभावित कर रही है। जीवन बचाने का संघर्ष सभी का अनवरत जारी है।
इस आपदा के कारण समाज में सभी लोग जिम्मेदारी से काम कर रहे हैं। स्वास्थ्यकर्मी जान बचाने के लिए काम कर रहे हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए सेवार्थी संगठन कार्य कर रहें हैं, लेकिन मौलिक मानवी अधिकारों के लिए कौन लड़ रहा है? जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसकी जड़ में कौन जा रहा है? उसका निष्पक्ष विश्लेषण कौन कर रहा है?
फासीवादी शासन और उनका शासक, लोकतंत्र का भीड़तंत्र में परिवर्तन होना, धार्मिक रंगों के साथ समाज को लगातार विभाजित करती पूंजीवादी दलालों की मीडिया, समाज संवेदनहीन हो रहा है, वहाँ "मानवता" अपनी अंतिम सांसे ले रही है। इन आपदाओं से निपटने के दौरान हमारी व्यवस्था की खामियां हमारे सामने आयी हैं। अब मुख्य मुद्दा यह है कि क्या इन खामियों को नजरअंदाज किया जाए या उन्हें महत्वपूर्ण बिंदुओं के रूप में प्रस्तुत किया जाए। इस तरह के और कई मुद्दे सामने आने हैं, लेकिन वे सामने नहीं आ पाते।
ऐसे समय में, कलाकार, रचनाकार, नाटककार और साहित्यकार इनकी विशेष भूमिका है, जहाँ वे अपनी कला को माध्यम बनाते हुए अपने साहित्य रचनाओं के माध्यम से हेतुपूर्ण मौलिक प्रश्न, मौलिक अधिकार और उद्देश्य प्रस्तुत करेंगे। इसी भूमिका के लिए रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज प्रतिबद्ध हैं।
मजदूरों के साथ हो रहे इस घातक प्रकरण के बारे में सभी को सहानुभूति है। आज के परिस्थिति में भी मजदूरों के मुद्दे, उनके प्रश्न विकास के जुमलों में फंसे हैं। पहले ही मजदूरों कि यह हालत, उसपर उनके मौलिक अधिकारों का हनन, इससे यह स्पष्ट होता है कि, मजदूरों का इस यंत्रणा में कोई स्थान नहीं।
मंजुल भारद्वाज के अंदर बेचैनी थी, उनके अंदर का एक हिस्सा जहां विश्वास था, आस्था थी। उन्होंने इस तबाही में संसद, न्यायपालिका, इनके संवेदनहीनता को महसूस किया। सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए। लॉकडाउन में प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, परिवर्तनवादी, मध्यम वर्ग सभी घर में तालेबंद हैं, लेकिन ये मजदूर जहां मार्ग दिखा, उस दिशा में चल रहे हैं, तेज धूप में भोजन और पानी के बिना। क्योंकि वे सरकार की शर्तों पर जीने को तैयार नहीं हैं। वे जानवरों की तरह नहीं रहना चाहते। वे नए तरीके खोज रहे हैं और यह उनका एक सचेत आंदोलन है। यह नयी, अनोखी, अलग दृष्टि मंजुल जी की कविता से व्यक्त होती है।
जहां मध्यम वर्ग इस बात पर सहमत था कि थाली और ताली पीटकर, दीये जलाकर सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा, वहां सरकार मजदूरों के पहल से हिल गई। मजदूरों ने सरकार को जवाबदेही के लिए मजबूर किया।
एकांत की परिधि को भेदते हुए यह कवि अपने जीवित होने का अर्थ तलाश रहा है। वह मानवीय प्रवृत्ति, यथार्थ, संवेदनाओं, पाखंडी सत्ता और मृत्यु का वर्णन अपनी काव्य रचनाओं में उजागर करता है। अपनी एक कविता 'अपने ज़िंदा होने पर शर्मिंदा हूँ!' में मंजुल भारद्वाज लिखते हैं,
आजकल मैं श्मशान में हूँ
कब्रिस्तान में हूँ
सरकार का मुखिया हत्यारा है
सरकार हत्यारी है
अपने नागरिकों को मार रही है
सरकारी अमला गिद्ध है
नोच रहा है मृत लाशों को
देश का मुखिया गुफ़ा में छिपा है
भक्त अभी भी कीर्तन कर रहे हैं
इस त्रासदी पर
देश की सेना पुष्प वर्षा कर रही है
बैंड बजा रही है
मैं हूँ जलाई और दफनाई
लाशें गिन रहा हूँ
मजदूरों के सत्याग्रह ने जीवन संघर्ष की मशाल जलाई। इसने मृत लोकतंत्र को पुनर्जीवित किया। आज, उन्होंने अपनी विवशता को अपना हथियार बना लिया है, मौत से लड़ रहें हैं। जीने के लिए, मानवता को जिंदा रखने के लिए। दूसरी कविता में मंजुल लिखते हैं,
भारतीय समाज और व्यवस्था का
अंतिम व्यक्ति चल रहा है
वो रहमो करम पर नहीं
अपने श्रम पर
ज़िंदा रहना चाहता है
व्यवस्था और सरकार
उसे घोंट कर मारना चाहती है
अपने टुकड़ों पर आश्रित करना चाहती है
उसे खोखले वादों से निपटाना चाहती है
अंतिम व्यक्ति का विश्वास
सरकार से उठ चुका है
उसे अपने श्रम शक्ति पर भरोसा है
गांधी ने कहा था, गांव की ओर चलो। इन शब्दों को आज मजदूरों ने सार्थक किया है। गांधी का विचार है कि देश की वास्तविक प्रगति ग्रामीण विकास पर आधारित हो। मजदूरों के इस सत्याग्रह ने बताया कि आत्मनिर्भरता की असली जड़ गांव में है। यदि गांवों में शाश्वत विकास की जड़ें मजबूत होती, तो मजदूरों को अपने गांवों, घरों और परिवारों को छोड़कर परजीवी शहरों में आने की आवश्यकता ही नहीं होती।
आज के इस दौर में जहां बाजारवाद, भूमंडलीकरण लोकतंत्र के मूल्यों को नष्ट कर रहा है, जहां समाज असंवेदनशील होकर तालियां और थालियां बजा रहा है, जहां जनप्रतिनिधि बुनियादी, कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करने के बजाय केवल घोषणा कर रहे हैं, वहां मजदूर गांधी के अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर रहें हैं। इस विचार को ध्यान में रखते हुए, मंजुल भारद्वाज जैसे रचनाकार अपने कार्यों से न्याय, समता और समानता के मूल्यों को भारतीय लोकतंत्र के जड़ों से जोड़ कर नए राजनैतिक सूत्रपात को प्रस्थापित कर रहे हैं।
इन मुद्दों का यहां पूरी तरह से विश्लेषण हो कि जिन मजदूरों के नाम पर इतने सारे ट्रेड यूनियन और मजदूर यूनियन खड़े हैं, वे श्रमिकों में इस दृष्टि को जागृत करने और उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराने में सक्षम नहीं हो पाए। "यूनियन" मालिकों और सरकार से लड़ती है। मजदूर यूनियन पेंशन और अधिकारों के लिए लड़ती है। पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की थी। घर जाने की उनकी प्रतिबद्धता, यह उनके होने की और उनके सुरक्षा की प्राथमिकता थी। इसीलिए ये मजदूर बिना किसी आंदोलन या मोर्चा के संगठित हुए।
भारत आत्मनिर्भर था जब गांव समृद्ध थे। गांव के किसान आज भी विश्व के पोषणकर्ता हैं। राजनैतिक वर्चस्ववाद ने, अपने विकास को बेचने के लिए नव उदारवादी विचारों से शहर निर्माण किए। परजीवी शहरों ने भूमंडलीकरण के बाजारों को सींचा। आज भी अपने गांव स्वावलंबी हैं। हमारे सत्ताधीश जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं, उनका खोखलापन और भाषणबाजी की निरर्थकता को दर्शाने वाली एक कविता क्रूर मजाक और मौन भारत में मंजुल लिखते हैं—
थोथा चना बजा घना
मज़दूरों की मौत
मज़दूरों का पलायन
और
'आत्म निर्भर भारत'
मोदी का क्रूर मज़ाक!
सच हमेशा कड़वा होता है इसलिए सच्चाई को सवालों के स्वरूप में सामने रखना पड़ता है, जिसकी आज जरूरत है। आज व्यवस्था के खोखलेपन पर प्रश्न उठाना आवश्यक है, क्योंकि यदि इन प्रश्नों का अब हल नहीं निकाला, तो वे अधिक भयानक रूप में सामने आएंगे। मंजुल भारद्वाज अपनी कविताओं के माध्यम से पूछते हैं कि कि हम इन सवालों में, यथार्थ में, न्याय और समता के कलात्मक रंगकर्म में और मजदूरों के संघर्ष में कहां हैं?
रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज ऐसे नाटककार हैं जो प्रश्न उपस्थित करते हैं और सभी को उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करते हैं। पैदल चलते श्रमिकों ने अपने कृति के माध्यम से कई सवाल उठाए हैं। उन्ही प्रश्नों के माध्यम से व्यवस्था को जगाने के लिए वे निरंतर कार्यरत हैं।
'मज़दूरों को पूछना चाहिए था!' कविता में मंजुल भारद्वाज लिखते हैं—
मज़दूर और गरीब अपने आप
निर्णय नहीं ले सकते
उन्हें अपने मालिकों से
पूछना चाहिए था
मालिक से नहीं तो
अपनी चुनावी रैली में
ट्रकों और बसों में बिठाकर
भीड़ बनाने वाले नेताओं से
पूछना चाहिए था...'
पैदल चलने वाले मजदूरों ने बुद्धिजीवियों और परिवर्तनवादियों के अहंकार को धराशाही कर दिया। नैतिक-सभ्य, सुसंस्कृत समाज को मानवीय भावनाओं से अवगत कराया, मृत समाज की आत्मा को जगाया। घर के पिंजरे में फंसे व्यक्ति को मानव होने का एहसास दिलाया। यह तय है कि कवि की कविता ने एक राजनीतिक सूत्रपात प्रस्थापित किया है जिस पर आज समाज चल रहा है।
रंगकर्म, कला और राजनीति का सीधा संबंध है। मूल रूप से, कला और कलाकार विद्रोही है। रंगकर्म मूल रूप से एक राजनैतिक कर्म है। यहाँ कवि ने रचनाकार एवं नाटककार की भूमिका स्पष्ट की है। रंगकर्म सत्याग्रह है, सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध है।
सांस्कृतिक चेतना का दिया जलने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह जैसे आज की घड़ी में मजदूर कर रहें हैं। राज्य प्रणाली नीतियों और नियमों को बनाती है और कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है। रंगकर्मी, रचनाकार, साहित्यकार सत्ता द्वारा दी गई अवधारणाओं को स्वीकार करते हैं और रंग दृष्टि अवधारणाओं को तोड़ती है। रंगकर्म की भूमिका क्या है, वो मंजुल भारद्वाज की इन पंक्तियों में दृष्टिगत होता है—
कला आत्म उन्मुक्तता की सृजन यात्रा
राजनीति सत्ता, व्यवस्था की जड़ता को
तोड़ने का नीतिगत मार्ग
कला मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया
राजनीति मनुष्य के शोषण का मुक्ति मार्ग
कला अमूर्त का मूर्त रूप
राजनीति सत्ता का स्वरूप
देश की सरहद पर दुश्मनों को खत्म करने वाले, सीमा पर अपना लहू बहाने वाले जवान और लहूलुहान कदमों से भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाले, देश के भीतर के शत्रु को राष्ट्रहित का पाठ पढ़ाने वाले, दमनकारी सत्ता के खिलाफ लड़ने वाले मजदूर एक समान हैं। इसे मंजुल की कविता 'सरहद पर सैनिक और सड़क पर चलता मज़दूर' की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है—
दर्द की चाशनी में पगी
कविता लिखी जा रही है
खूब पढ़ी जा रही हैं
आभासी पटल पर वायरल हैं
पढने वाले दर्द से व्याकुल हो
खूब रो रहे हैं
कवि अभिभूत हैं!
मंजुल भारद्वाज की काव्यरचना भारतीय लोकतंत्र और राजनीति के परिपेक्ष में गहरा प्रभाव डाल रही है, जिससे संविधान की जड़ें और मजबूत बनेंगी यह सुनिश्चित है।