श्मशान गृहों में मची है लूट, अंत्येष्टि के लिए चाहिए 25 हजार, सड़क के फुटपाथ तक पर सजी हैं चिताएं
लाश के साथ आए व्यक्ति से श्मशान प्रबंधक ग्यारह हजार रुपए देने के लिए कहता है, साथ में यह जोडना नहीं भूलता कि यदि रुपए नहीं है तो लाश कहीं और ले जाओ....
अमित प्रकाश सिंह की टिप्पणी
जनज्वार। अंग्रेजी का एक अखबार है टाइम्स आफ इंडिया। अपने अठारह अप्रैल 2021 के अंक में इसने एक खबर छापी है। यह है श्मशान केंद्रों पर मची लूट पर। किस तरह लाश के साथ आए व्यक्ति से श्मशान प्रबंधक ग्यारह हजार रुपए देने के लिए कहता है। साथ में यह जोडना नहीं भूलता कि यदि रुपए नहीं है तो लाश कहीं और ले जाओ!
इस खबर से मुझे याद आया बरसों पहले, जयपुर में नवभारत टाइम्स और कोलकाता में जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहे श्री श्याम आचार्य ने एक बार श्मशान गृहों में व्यवस्था और लूट पर एक नियमित लेख श्रृंखला अपने संवाददाताओं से शुरू कराई थी। ये लेख तब कुलीन, भद्र और बेहद आस्थावान बुद्धिजीवियों को बहुत खराब लगते थे । उनकी शिकायत थी कि इस खबर से सुबह सुबह जायका बिगड़ जाता है।
मुहावरा है कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का, लेकिन सबसे ज्यादा संपन्न, बेहद ताकतवर व्यक्ति, परम दयालु और सर्वमान्य बुद्धिजीवी भी मौत के बाद श्मशान घाट जब पहुंचता है उस शव की अंत्येष्टि जल्द कराने की बजाए उसके पहले परिचय के साथ ही पंजीकरण शुल्क देना पडता है। फिर लकड़ी, घी, सुगंध, पुरोहित और डोम आदि की अपनी दरें मांग के अनुसार बढ़ती जाती हैं। यदि कहीं किसी की नाराजगी हुई तो अंत्येष्टि में और भी देर। कमाई के इन तरीकों को अपना कर बड़ी हुई हस्तियों पर देश का आयकर लगता है या नहीं, यह नहीं पता। यह जरूर सुना है कि मृतक के घर वाले जरूर हर तरह से बेधे जाते हैं।
देश में कोरोना का लगातार दूसरे साल भी प्रकोप जारी है। इसका अंदेशा सबको ही था। देश में केंद्र को संभाल रही पार्टी को लगा कि इसी बहाने पूरे देश में जिन राज्यों में उसकी सरकार नहीं है, उन राज्यों में भी अपना झंडा फहराया जाए। सरकार के सहयोग से चुनावी रणनीति भी बनी। तभी हरिद्वार में कुंभ स्नान का महत्व भी सबके जेहन में आया।
मेट्रो, ट्रेनों, पोस्टरों, होर्डिंग और निजी व सरकारी टीवी चैनल पर सरकारी उपलब्धियों के बखान के साथ दिखाया जाने लगा। कोरोना गाइडलाइंस के पालन के साथ भव्य कुंभ स्नान और चुनावी रैलियों की खूब धूम रही। उधर केंद्र में तीन चौथाई मतों को जीतकर सरकार चला रही पार्टी ने संकट को सुअवसर मान कर चुनाव प्रचार शुरू किया। जीत हो इसलिए चुनाव अवधि लंबी रखवा ली गई । केंद्र में सरकार चलाने वाले मंत्रालयों में बैठे, वोट दिलाने के विशेषज्ञ मंत्री भी अपना काम छोड़कर चुनाव प्रचार में जुट गए। जिन राज्यों में चुनाव होने थे उन राज्यों में जीत के बडे बडे दावे पार्टी और केंद्र सरकार करने लगी।
कुंभ स्नान से लौटे तीर्थयात्रियों और चुनाव प्रचार के लिए रैलियों में पहुंचे लोगों से कोरोना-19 के कई प्रकार और म्यूटेंट इस तेजी से फैले कि विभिन्न राज्यों मे देखते ही देखते कोरोना के मरीजों की तादाद हजारों में आ गई। सबको स्वास्थ्य की बात करने वाली सरकार पर भरोसा कर रही जनता को आश्चर्य तब हुआ कि साल भर से कोविड महामारी की वापसी की चर्चा कर रहे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव हालात बिगड़ने पर अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सके। इस मुद्दे पर हर गली में विवाद हो रहे हैं आगे भी होते रहेंगे।
मुद्दा यह है कि दूसरे की परेशानी में मुनाफा कमाने की नीयत का विरोध क्या होना नहीं चाहिए। आज यदि एक लाश की अंत्येष्टि में अनुमानित तौर पर लगभग पच्चीस हजार रुपए लगते हैं तो क्या यह राशि सहज है। यह तय कौन करेगा। क्या देश में हर कहीं ऐसा सहयोग आपस में नहीं होना चाहिए, जिससे परेशानी में एक का दूसरे में भरोसा बढ़े।
आज श्मशान केंद्रों के बाहर हर कहीं गंदगी का अंबार है। बाहर सड़क के फुटपाथ तक पर चिताएं सज रही हैं। यह स्थिति पर्यावरण के लिहाज से उपयुक्त नहीं है। इसे किसे देखना चाहिए। श्मशान केंद्रों पर जो लूट मची है उस पर कैसे नियंत्रण हो, यह सुशासन का दावा करने वाले अधिकारियों और जनता को ही मिलकर तय करना चाहिए। जनता जब बोलेगी प्रशासन शायद तभी कुछ करे।