थप्पड़ मारने वाले कलेक्टर पर तुरंत एक्शन लेने वाले भूपेश बघेल में आदिवासियों के साथ न्याय करने की हिम्मत क्यों नही
लोगों का कहना है कि एक तरफ तो एक युवा को थप्पड़ मारने वाले कलेक्टर को तत्काल प्रभाव से स्थानान्तरित कर दिया जाता है लेकिन वहीं दूसरी ओर पिछले 10 दिनों से संघर्ष कर रहे आदिवासियों की कोई सुध तक नहीं ली जाती। 3 आदिवासी पुलिस की गोलीबारी में मार दिए जाते हैं लेकिन इन आदिवासियों की मौत से छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
जनज्वार ब्यूरो, नई दिल्ली। सीआरपीएफ कैम्प के खिलाफ चल रहे आदिवासियों के प्रदर्शन ने बड़ा रूप ले लिया है। 16 मई को पुलिस व अर्द्ध सैन्य बलों की गोलीबारी ने 3 आदिवासियों की जान ले ली थी। आपको बता दें छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के सुकमा जिले के सिलगर गांव के समीप पुलिस द्वारा अर्द्धसैन्य बल कैंप स्थापित कर दिया गया था। सम्बन्धित क्षेत्र के पांचवी अनुसूची संरक्षित क्षेत्र होने के बावजूद न तो स्थानीय ग्राम सभा से कोई अनुमति ली गई और ना ही इस मामले को लेकर स्थानीय ग्रामीणों से पूर्व में कोई बातचीत की गई थी। इससे नाराज क्षेत्र के सभी आदिवासी अपने क्षेत्र में जबरन पुलिस कैंप लगाने के विरोध में एकजुट होने लगे थे।
13 मई से आदिवासियों ने कैंप का विरोध शुरू कर दिया। देखते-देखते 16 मई तक आस-पास के 30 से अधिक गांव के आदिवासी कैंप के विरोध में प्रदर्शन करने इकठ्ठे हो गये थे। 16 मई को जब सैंकड़ों आदिवासी सिलगर गांव के समीप स्थित सैन्य कैंप पर अपना मांग पत्र सौंपने जा रहे थे तब पुलिस और सैन्य बलों ने अचानक अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी थी। आदिवासियों पर आंसू गैस के गोले छोड़ते हुए लाठीचार्ज भी किया गया था। इस गोलीबारी में पुलिस के आंकड़ों के अनुसार तीन आदिवासियों की मौत हो गई व 6 लोग घायल हुए। वहीं आदिवासियों के दावे के अनुसार इस गोलीबारी में उनके 9 ग्रामीण साथी मारे गए हैं और दर्जनों घायल हुए हैं। गोलीबारी में आदिवासियों को मारने के बाद पुलिस उन सभी मृतक आदिवासियों को हमेशा की तरह माओवादी बता रही है।
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत के दौरान एक ग्रामीण सुनील कोरसा ने कहा- हम स्वेच्छा से अपनी जमीन अस्पताल व स्कूल के लिए दे देते हैं। हमें सड़क निर्माण के लिए तैनात की जाने वाली सुरक्षा से भी कोई एतराज नहीं है। हम यहां एक कैंप नहीं चाहते। एक बार कैंप स्थापित हो जाने के बाद हमारे आंदोलनों से लेकर हमारे रीति-रिवाज तक हर चीज की जांच की जाएगी। हम नक्सलियों और पुलिस दोनों के डर से नहीं जीना चाहते।
19 मई को नागरिक अधिकार संगठन पीयूसीएल और भाकपा माले की छत्तीसगढ़ इकाई ने बयान जारी कर उक्त गोलीकांड की तीखी भर्त्सना की। छत्तीसगढ़ के कई नागरिक व मानवाधिकार संगठनों, वामपंथी दलों और सामाजिक जन संगठनों के साथ-साथ सर्व आदिवासी समाज समेत कई आदिवासी संगठन भूपेश बघेल सरकार के विरोध में खड़े हो गए हैं।
गोलीकांड के खिलाफ पूरे प्रदेश का आदिवासी समुदाय आक्रोशित है। सिलगर क्षेत्र के आदिवासियों ने साफ ऐलान कर दिया कि जब तक पुलिस कैंप नहीं हटेगा उनका विरोध जारी रहेगा। पूरा इलाका पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया है। पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं को घटनास्थल पर प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा।
आदिवासियों के मुद्दे पर मौन भूपेश बघेल की हो रही आलोचना-
इस मामले में छत्तीसगढ़ की प्रदेश सरकार के रुख की काफी आलोचना हो रही है। राज्य में भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल में आदिवासियों के दमन के विरोध स्वरूप राज्य के लोगों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार को चुना था। सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से लगातार सवाल पूछे जा रहे हैं।
लोगों का कहना है कि एक तरफ तो एक युवा को थप्पड़ मारने वाले कलेक्टर को तत्काल प्रभाव से स्थानान्तरित कर दिया जाता है लेकिन वहीं दूसरी ओर पिछले 10 दिनों से संघर्ष कर रहे आदिवासियों की कोई सुध तक नहीं ली जाती। 3 आदिवासी पुलिस की गोलीबारी में मार दिए जाते हैं लेकिन इन आदिवासियों की मौत से छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
आदिवासियों के मसले पर मौन साध लेने वाले मध्यवर्ग पर निशाना साधते हुए पत्रकार अविनाश चंचल कहते हैं-
छत्तीसगढ़ में कलेक्टर के थप्पड़ मारने की वीडियो पूरे देश में वायरल हो गई, पूरा मिडिल क्लास विरोध में उतर आया। सरकार ने भी तुरंत दिखावटी एक्शन ले लिया लेकिन यही मिडिल क्लास बस्तर में निहत्थे आदिवासियों पर चली गोली के खिलाफ चुप है।
छत्तीसगढ़ से वकील व मानवाधिकार कार्यकत्री प्रियंका शुक्ला कहती हैं-
दरअसल लोगो को मसाला चाहिए, और आदिवासी संघर्ष को समझने और सुनने के लिए धैर्य चाहिए होता है। सीधी सादी ज़िन्दगी जीनेवाला आदिवासी, कथित मुख्यधारा वालों को मसाला नही दे पाते।
उनकी बेटियों के साथ बलात्कार भी हो जाये, तो वो हम कथित संवेदनशील लोगों की तरह रियेक्ट नही कर पाते।
रियेक्ट करे भी तो कैसे, ये हम बताते है।
क्योंकि उनका अपना रियेक्ट करने का तरीका, हम कथित प्रगतिशील लोगो को, नेचुरल नही लगता।
सही है, हमारे घर का एक व्यक्ति बीमारी से भी मर जाये, तो हम दहाड़े मारकर रोते है, महीनों सब काम भूल जाते है।
पर ये आदिवासी किसान भाई, बहने है कि हमारे तरह कथित नेचुरल व्यवहार करने के बजाय, घर वापस जाने के बजाय, तेरहवीं और दशगात्र पर रिश्तदारों को इकट्ठा करके खाना खिलाने के बजाय, कैम्प का विरोध करने में अभी भी लगे है।
मारे गए लोगो की हत्या की जांच की मांग कर रहे है।
सही है, जब हमारे तरह व्यवहार नही करते, हमारे तरह दुख प्रकट नही कर पाते, तो आखिर क्यों हम उनके साथ खड़े हो......
सही, चुप ही रहिये, मरने दीजिये, आप तो बस दिल्ली से देश देखिये।।
समझते रहिये कि आपके कहने से , फलाना पर हटा दिया गया।
पर बता दूं, कि कार्यवाही तो उस पर भी नही हुई है।
गोलीकांड में मारे गए 3 आदिवासियों की जान की कीमत 30 हजार लगाई छत्तीसगढ़ सरकार ने-
छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने मारे गए 3 आदिवासियों के परिजनों को 30000 रूपये की आर्थिक सहायता भेजी है। जिसे आदिवासियों ने वापस सरकार को लौटा दिया है। वे अपनी जमीन से सेना के कैंप को हटाने व अपने साथियों की हत्या की जांच की मांग को लेकर डटे हुये हैं।