बिहार चुनाव में मूलभूत समस्याओं की कोई चर्चा नहीं, घिसे-पिटे बयानों के दम पर ही सज रही चुनावी बिसात
बिहार में राजनैतिक दलों की चुनावी तैयारियों के बीच जनसरोकार के मुद्दे फिर नेपथ्य में चले गए हैं। सत्तापक्ष के लिए लालू-राबड़ी का शासनकाल ही मुद्दा बन रहा है तो विपक्षी दल भी भटके नजर आ रहे हैं।
जनज्वार ब्यूरो, पटना। बिहार में विधानसभा चुनावों जी तिथि अभी अधिकृत रूप से घोषित नहीं हुई है पर राजनैतिक दल चुनावी समर में उतर चुके हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों जनता के बीच आ चुका है। वर्चुअल और डिजिटल सभाएं हो रहीं हैं। शीर्ष नेता अपने दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को टिप्स दे रहे हैं,रोज बयानों के तीर भी चल रहे हैं। सत्ता पक्ष विपक्ष को तो विपक्षी दल सत्ताधारी पार्टी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। पर इन सबके बीच जनसरोकार के मुद्दे कहीं छिप से गए हैं। जिस जनता के वोट के लिए ये सारी कवायदें की जा रहीं हैं उस जनता की मूलभूत समस्याएं अबतक किसी भी दल के एजेंडे में नहीं दिखा है।
बिहार एक पिछड़ा राज्य है। कल-कारखानों का अभाव, आधुनिक तरीके से कृषि के न होने, गांवों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता,बाढ़-सुखाड़ आदि की समस्याएं बिहार में चिरकालीन हैं। कोरोना संकट के कारण प्रवासियों के आगमन के कारण बिहार में बेरोजगारी की स्थिति खुलकर सामने आ गई है।
सरकारी आंकड़े के अनुसार अधिकृत रूप से अबतक 20 लाख से ज्यादा प्रवासी बिहार में आ चुके हैं जबकि माना जा रहा है कि वास्तविक आंकड़ा इससे काफी ज्यादा है। अनुमान लगाया जाता है कि बिहार के लगभग 40 से 50 लाख लोग दूसरे प्रदेशों में काम करते हैं। लब्बोलुआब यह कि काम करने योग्य बिहार की एक बड़ी आबादी दूसरे प्रदेशों में काम करने को विवश है।
जाहिर है कि बिहार में रोजगार का घोर संकट है। बिहार को एक कृषि प्रधान राज्य माना जाता है लेकिन कृषि और किसानों पर भी घोर संकट है। कृषि कार्य मौसम के भरोसे होता है तो कृषकों को फसल के लिए बाजार और वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता। गांवों की कौन कहे शहरों में भी स्वास्थ्य सुविधाएं बदहाली की स्थिति में हैं। स्कूल-कॉलेजों की स्थिति भी वही है। प्राइमरी,मिडिल और हाईस्कूलों में पठन-पाठन रामभरोसे है तो उच्च शिक्षण संस्थान महज नामांकन-परीक्षा और डिग्री देने के केंद्र बने हुए हैं।
ऐसी परिस्थितियों में बिहार में चुनाव होने वाले हैं। आम समझ तो यही कहती है कि जनसरोकार के ये मुद्दे सीधे जनता से जुड़े हुए हैं और चुनाव के बड़े मुद्दे हो सकते हैं। पर संभवतः राज्य के राजनेताओं की समझ में ये मुद्दे हैं ही नहीं। अभी से ही राजनैतिक दलों का ज्यादा जोर जातिगत समीकरण, एक-दूसरे की खामियां गिनाने और आक्रामक बयानबाजी में जुट गए हैं। माना जा रहा है कि चुनाव तक यही सब चलता रहेगा और जनसरोकार के मुद्दे फिर से नेपथ्य में चले जाएंगे।
सत्ताधारी दल लालू-राबड़ी के 15 वर्षो के शासनकाल को जंगलराज बता कर निशाना साध रहा है तो विपक्षी दल एनडीए के 15 वर्षों के शासनकाल को जंगलराज बता रहा है। वैसे एनडीए ने पिछले चुनाव में शुरुआत विकास के मुद्दे के साथ की थी पर इस बार बात घूम-फिरकर लालू-राबड़ी के कथित कुशासन पर ही आ जा रही है। 7 जून को गृहमंत्री अमित शाह ने वर्चुअल मीटिंग में कई बार लालू-राबड़ी के कथित कुशासन की चर्चा की।
7 जून को ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से जदयू जिलाध्यक्षों के साथ हुई मीटिंग में लालू-राबड़ी के 15 साल के शासनकाल को जनता को याद दिलाने को कहा।विपक्षी दल राजद,कोंग्रेस,रालोसपा,हम आदि अबतक कन्फ्यूज लग रहे हैं और मुद्दा पकड़ने की कोशिश में ही जुटे हैं।
हर चुनावों की तरह इस बार भी अभीतक सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का दौर ही चल रहा है और आशंका है कि इसी तरह के दौर में चुनाव पार हो जाएगा और जनता एवं जनसमस्या एक बार फिर मुद्दा बनने से वंचित रह जाएंगे।